शिक्षक दिवस पर मिथिलेश के मन से: सीखने- सिखाने के लिए गुरु से ज्यादा ज़रूरी होता है हमारा जुनून

गुरु का काम ऊर्जावान बनाना होता है लेकिन आग जैसा कुछ अगर हमारे भीतर नहीं है तो वह क्या कर लेगा?  कहां से ऊर्जा लायेगा वह? लाया भी तो उस फारेन एजेंट को हम या हमारा शरीर या हमारा मानस कबूल कर पायेगा? दिक्कत यह है कि हम जेनरेटर पर भरोसा ज्यादा करते हैं और पावर हाउस की भूमिका पर ऐतबार कम से कम।

teacher's day

इसलिए शिक्षक दिवस पर कोई टीचर-फटीचर नहीं, उस जुनून को सलाम जो भीतर से पैदा होता है और जो उम्र भर हमारे साथ चलता है। कर सकें तो दुआ करें कि यह जुनून बचा रहे।


मेरी टिप्पणी चुभ गयी कुछेक लोगों को। वह टिप्पणी टीचर्स डे के मद्देनजर मैंने डाली थी और वह बहुत मुख्तसर सी टिप्पणी थी।

उस टिप्पणी का मकसद किसी का दिल दुखाना नहीं था। मेरा बहुत साफ तौर पर मानना है कि जब और जिस भी पल आप गुरुडम की परंपरा में भरोसा करने लगते हैं, एक और गुलामी आपको अपनी गिरफ्त में ले लेती है।

गुलामी अपने आचरण, अपनी रूप- सज्जा में चाहे जैसी भी हो- वह आपको हर हाल में बांधती है। हम इस दुनिया में बंधने नहीं आये। हम आजाद होने आये हैं। हम निर्बंध होने आये हैं। मानव जाति का इतिहास आजादी की वह रूदाद है जो सदियों से कही, सुनी और लड़ी जाती रही है और इसके बीजतत्व हम सबमें हैं।

हमें लड़ने के लिए, आजाद होने के लिए जो हौसला और जो होमवर्क चाहिए होता है, जिन असलहों की जरूरत हमें पड़ती है या पड़ सकती है मैदाने जंग में- वह आयातित नहीं हो सकते। उन सबको हमारे भीतर के कारखानों में बनना- ढलना है।

मैं फिर कहता हूं, कोई किसी को लड़ना नहीं सिखा सकता। लड़ना हमारी अंत;स्रावी ग्रंथियों में युगों- युगों से सिंचित है। जिसे हम गुरु कहते हैं, वह अधिक से अधिक यह कर सकता है कि आपको बता दे। बता दे कि लड़ने का मौसम आ गया है। लेकिन लड़ेंगे हमीं। वहां कोई गुरु नहीं होगा और हम तन्हा लड़ेंगे। लाम पर जाने से पहले का सबसे जटिल पूर्वाभ्यास होता है खुद से लड़ना और हम सबको इससे गुजरना पड़ता है। तन्हा तन्हा।

गुरु का काम ऊर्जावान बनाना होता है लेकिन आग जैसा कुछ अगर हमारे भीतर नहीं है तो वह क्या कर लेगा?  कहां से ऊर्जा लायेगा वह? लाया भी तो उस फारेन एजेंट को हम या हमारा शरीर या हमारा मानस कबूल कर पायेगा? दिक्कत यह है कि हम जेनरेटर पर भरोसा ज्यादा करते हैं और पावर हाउस की भूमिका पर ऐतबार कम से कम।

गड़बड़ी यहीं  से शुरू होती है और यहीं से बाजार खुलता है हाहाकार का, आह- वाह का, मल्टीनेशनल का, आर्चीज जैसी कंपनियों का, दिनों- तारीखों के एलान का, थोक भाव में बिकते उत्सवों का।

जिन साथियों को उस पोस्ट से पीड़ा पहुंची हो, वे क्षमा करें। ज़रूरी नहीं कि आप जो कहें, वही सही है। जरूरी यह भी नहीं कि आप इस पोस्ट से इत्तेफाक रखें ही। लेकिन आज़ाद होना ज़रूरी है और हममें से किसी को भी नकली आजादी नहीं चाहिए।