मिथिलेश के मन से: कबीर और ग़ालिब

ग़ालिब और कबीर के बीच लगभग चार सदी का जो फासला है, क्या इन चार सौ वर्षों में यह दुनिया नहीं बदली? सोचिएगा आप भी। हम भी सोच रहे हैं। सोचिएगा कि दोनों की चिंताएं एक जैसी क्यों हैं और वह कौन सा गलनांक बिंदु है जहां दोनों बिल्कुल अलग हो जाते हैं। बिल्कुल अलग होते हुए भी जहां दोनों लगभग एक जैसी धज में नजर आते हैं- मोहब्बत

mirza ghalib

इन दिनों ग़ालिब याद आ रहे हैं- दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना। बहुत संतोष, बहुत सुकून, बहुत भरोसा मिलता है ग़ालिब को पढ़ते हुए। उन्हें याद करते हुए।

बड़े काम के होते हैं ग़ालिब जैसे दानेदार लोग। हम नादानों को वे सिखाते हैं कि ज़िदगी क्या है और इस ज़िदगी की हर रहगुजर कितनी पेचदार है या हो सकती है। ..

'रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो।' ग़ालिब ही कह सकते हैं ऐसी बात। ग़ालिब में ही यह साहस होता है जो पलक झपकते जीवन को प्यार भी कर लें और उसी तबियत से बाजज़रूरत लतिया भी दें।

यह साहस हिन्दी में कबीर के बाद लगभग लुप्तप्राय है। कभी कभी तो लगता है कि कबीर और ग़ालिब में कितनी समानता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कबीर की कार्बन कापी का हम नये संदर्भों में पुनर्पाठ कर रहे हैं बरस्ता ग़ालिब?  

ग़ालिब कहीं कबीर का पुनर्नवा संस्करण तो नहीं हैं- लगभग चार सौ वर्षों के बाद कबीर को पढ़ते और बेचैन होते ग़ालिब- उस ज़मीन पर काम करते ग़ालिब जो वीरान और बंजर हो गयी थी इस लंबे वक्फे में?

सोचिएगा। हम गलत भी हो सकते हैं। लेकिन हैं तो हैं। गलत ही सही। यही क्या कम है कि हम हैं, रहने की कोई सूरत बची न रहने के बाबजूद?

कबीर पंद्रहवीं सदी में कहते हैं- रहना नहीं देस बिराना है। ग़ालिब उन्नीसवीं सदी में कहते हैं- रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो। दोनों के सोचने का पैटर्न लगभग एक जैसा।

ग़ालिब और कबीर के बीच लगभग चार सदी का जो फासला है, क्या इन चार सौ वर्षों में यह दुनिया नहीं बदली? सोचिएगा आप भी। हम भी सोच रहे हैं।

सोचिएगा कि दोनों की चिंताएं एक जैसी क्यों हैं और वह कौन सा गलनांक बिंदु है जहां दोनों बिल्कुल अलग हो जाते हैं। बिल्कुल अलग होते हुए भी जहां दोनों लगभग एक जैसी धज में नजर आते हैं- मोहब्बत करते हुए, मकतल की तरफ जाते हुए, अपने समय से टकराते हुए, उसकी चीरफाड़ करते हुए...