जयपुर सीरियल ब्लास्ट केस: फिर कौन थे अपराधी, बम फटे थे 71 लोग बेजान भी हुए और जख्मी हो गया था जयपुर का दिल, यह चूक नहीं अक्षम्य अपराध है
यदि ये गुनाहगार नहीं है है तो कातिल कौन हैं? क्या यह एक ध्यान भटकाने की सरकारी साजिश मात्र थी। अब सजा से बरी हुए लोग समाज की मुख्यधारा में कैसे लौटेंगे इससे बड़ा सवाल मेरे सामने यह है कि अपनों को खोकर सालों तक रोने के बाद मुख्यधारा की जिंदगी जी रहे लोगों-परिवारों के विश्वास का एक बार फिर से जिन्होंने खून किया है।
एक गुलाबी शहर था, जिसका गुलाब के फूल सा दिल था और वह दिल छलनी हो गया था 13 मई 2008 यानि आज से पन्द्रह साल पहले। जब आठ सिलसिलेवार धमाकों में गुलाबी रंग रक्त से सन गया।
अपराधी पकड़े गए, केस चला, सजा हुई, लेकिन आज आज फांसी की सजा चार आरोपियों को न्यायालय ने सबूतों के अभाव में ही नहीं बल्कि घटिया जांच के कारण बरी कर दिया है।
इस फैसले ने पुलिस की व्यवस्थाओं पर ऐसे सवाल उठाए हैं जिनका जवाब अब खाकी के पास नहीं है। खाकी साख को खाक करने का काम एटीएस जयपुर ने किया है। प्रदेश के लोग बहुत आहत हैं कि वे झूठी दिलासा का शिकार होते रहे।
यदि ये लोग आरोपी नहीं थे तो इनके मानवाधिकारों का क्या? पुलिस ने एक बार फिर से इलाहबाद हाईकोर्ट के उस कथन पर रोशनी डाली है, जिसमें जस्टिस ए एन मुल्ला ने कहा था कि भारतीय पुलिस पढ़े-लिखे डकैतों का समूह है।
कोर्ट ने फांसी की सजा पाए चार युवकों को बरी किया है। इनके खिलाफ सबूत नहीं मिला है। उस दिन 71 लोग मारे गए थे और185 लोग घायल हुए थे। पन्द्रह साल जेल में काटने के बाद यदि इन्हें बेगुनाह साबित किया गया है तो यह जांच व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल है।
मृतकों की संख्या में इन चार लोगों को भी जोड़ लेना चाहिए क्योंकि जांच अधिकारियों ने कोई कसर नहीं रखी इन्हें जीते-जी मार डालने में। इस फैसले ने पुलिस की जांच पर ऐसे सवाल उठाए हैं जो पहले कभी नहीं उठे। कोर्ट ने कहा है कि इन अफसरों के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। पुलिस महानिदेशक को पत्र भी लिखा है।
आप भूले नहीं होंगे कि जयपुर सीरियल ब्लास्ट में सरवर आज़मी, मोहम्मद सैफ, सैफुर रहमान और सलमान को 20 दिसंबर 2019 को एक विशेष अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी। अदालत के फैसले ने विश्वसनीय साक्ष्य प्रदान करने में विफल रहने के लिए आतंकवाद विरोधी दस्ते ;एटीएसद्ध से पूछताछ करते हुए पुलिस के खिलाफ जांच का भी आदेश दिया।
एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्सने केस लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाईए और उनकी कानूनी टीम ने अदालत में अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व किया। 2008 के जयपुर सीरियल बम धमाकों में 71 मौतें और 185 घायल हुए थे।
सभी चार आरोपियों के न्यायमित्र फारूक पाकर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यह पहला मामला था जहां मृत्युदंड केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर आधारित था।
उन्होंने जोर देकर कहा कि अभियुक्तों के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था और उन्हें झूठा फंसाया गया थाए अदालत में पेश किए गए साइकिल खरीद बिल बम विस्फोट में इस्तेमाल साइकिल के फ्रेम नंबर से भिन्न थे।
यह पूरा केस देखा जाए तो इसमें आतंकियों से बड़ी गलती अब पुलिस की हो गई है। आपको जानकर हैरत होगी कि देश में राजस्थान पुलिस ने जांच करने में बड़ी भूमिकाएं निभाई है। लेकिन इस केस ने राजस्थान पुलिस की नाक काट दी है।
पैरवी में भी यह साबित नहीं कर पाए कि सबूत नहीं है। ऐसे में बड़े सवालों से घिरी सरकार को इन अफसरों के खिलाफ बड़े कदम उठाने होंगे। ताकि ऐसे लोग इस शांत प्रदेश को किसी आतंक का शिकार करने के लिए आने वालों के लिए रहम या रिहाई की वजह नहीं बने।
इस समाचार को लिखते वक्त मैं यह सोच रहा हूं कि यदि ये गुनाहगार नहीं है है तो कातिल कौन हैं? क्या यह एक ध्यान भटकाने की सरकारी साजिश मात्र थी।
अब सजा से बरी हुए लोग समाज की मुख्यधारा में कैसे लौटेंगे इससे बड़ा सवाल मेरे सामने यह है कि अपनों को खोकर सालों तक रोने के बाद मुख्यधारा की जिंदगी जी रहे लोगों-परिवारों के विश्वास का एक बार फिर से जिन्होंने खून किया है। क्या वह किसी आतंकी घटना से कम है।