नीलू की कलम से: ऋतुनां कुसुमाकरः

जिस प्रकार ब्रह्म अक्षर व अक्षय है वैसे ही ऋतुएं भी निरंतर व अंतरहित है। शतपथ में ऋतुओं को विनाश रहित कहा गया है। ऋतुएं गतिशील है और गतिशीलता को उपनिषद् श्रेयस्कर मानता है। एतरेय ब्राह्मण में मधु का दृष्टांत दिया गया।

ऋतुनां कुसुमाकरः

ऋतुओं की स्थिति अविनाशी ब्रह्म के शासन में कही गई है। बृहदारण्यक उपनिषद् में परम ब्रह्म को अक्षर कहा गया है।

इसी अक्षर के शासन में निमिष,अहोरात्र,ऋतु और संवत्सर है-

एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि निमेषा मुहूर्ता अहोरात्राण्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति..
जिस प्रकार ब्रह्म अक्षर व अक्षय है वैसे ही ऋतुएं भी निरंतर व अंतरहित है। शतपथ में ऋतुओं को विनाश रहित कहा गया है। ऋतुएं गतिशील है और गतिशीलता को उपनिषद् श्रेयस्कर मानता है। एतरेय ब्राह्मण में मधु का दृष्टांत दिया गया।

मधुमक्खियां गतिशील होकर ही मधु का संचय करती है। सूर्य की गतिशीलता का उदाहरण देकर ऋषि चरैवेति का संदेश देते हैं।

सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तन्द्रयते चरंश्चरैवेति।

मधु से स्मरण हुआ,ऋग्वेद के प्रथम मंडल की दो तीन ऋचाओं में मधु शब्द का कई बार उल्लेख हुआ है। ऋषि सर्वत्र माधुर्य की भावना और मधुरता का आवाहन करता है।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमान् अस्तु सूर्यः ।

वनों के स्वामी (अधिष्ठाता देवता) मधुर फल देने वाले हों; आकाश में विचरण करने वाले सूर्य मधुरता प्रदान करें।

अथर्ववेदांतर्गत मधुविद्या सूक्त मिलता है जिसमें मानव की  सुंदरतम कामना व प्रार्थना मिलती है।

जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधुलकम्
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसन्दृश: 
(हमारी वाणी मधुरता युक्त हो ताकि हम सबके प्रेमास्पद बन जाएं। )

वसंत को भी मधुमास कहा गया है। यद्यपि चैत्र,वैशाख मास वसंत ऋतु में मुख्य रूप से आते किंतु इसके आगमन की सूचना फाल्गुन में ही मिलने लगती है इसलिए फाल्गुन को वसंत का द्वार व वसंत को संवत्सर का द्वार कहा गया है। जिस समय पदार्थों में जीवनदायक अग्निकण निवास करते हैं वह वसंत ऋतु है।

वसंतागमन पर नवोढ़ा सी फूली सरसों बीज धारण कर चुकी होती है। नवोढ़ा,प्रिय मिलन और बीज धारण,अब उसके सौंदर्य और प्रेमोत्साह की कल्पना कौन करे?फूलों की लख- दख अब फलियों की छनछनाहट में बदल रही है। उसीके काके-बाबे के भाई-बहन गेंहू, जौ,चना आदि भी इसी दौर में है।

सबके जोश हाई। किसान ने संयुक्त परिवार के मुखिया की तरह उन्हें नाजों से पाला- पोसा है। उसके लिए मधुमय उसका अन्न है जिसे वह मुग्धा की तरह निहार रहा है। मावठ की अमृत बूंदें मोटे-मोटे चनों में तब्दील हो चुकी है।

वसंत आग्नीध्र है, दावानल उसकी विशेषता है फिर प्रेमियों के हृदयस्थ दावानल की बात कौन कहे? पीपली जैसे काळजा कुरळाने वाले विरह गीत की रचना विरहिणी ने इसी काल में की होगी जिसके शिष्ट गार्हस्थ्य के बोल सुनकर शंकर का अद्वैत भी 'कस्त्वं कोऽहम्' को भूलकर विभोर हो जाए।

बाय चाल्या भंवर जी पींपळी जी,
हांजी ढोला हो गई घेर घुमेर,
बैठण की रूत चाल्या चाकरीजी,
ओजी म्हारी सास सपूती रा पूत,
मत ना सिधारो पूरब की चाकरी जी,
परण चाल्या भंवर जी गोरड़ी़ जी
हांजी ढोला हो गई जोध जवान
निरखण की रुत चाल्या चाकरी जी
ओ जी म्हारी लाल नणद बाई रा बीर
मत ना सिधारो पूरब की चाकरी जी
कुण थारां घुड़ला कस दिया जी,
हाँजी ढोला कुण थानै कस दीनी जीन,
कुण्यांजी रा हुकमा चाल्या चाकरी जी,
ओजी म्हारे हिवड़ा रो नौसर हार,
मत ना सिधारो पूरब की चाकरी जी,
चरखो तो लेल्यो भंवर जी रांगलो जी
हां जी ढोला पीढ़ो लाल गुलाल
मैं कातूं थे बैठ्या बिणजल्यो जी
ओजी म्हारी लाल नणद रा बीर
घर आओ प्यारी ने पलक ना आवड़ै जी

- नीलू शेखावत