नीलू की कलम से: वाल्मीकि समाज और राजपूताने की परम्पराएं

रावळों के साथ वाल्मीकि परिवार का संबंध व्यवसायिक न होकर व्यक्तिगत रहा है। प्रत्येक रावळे का अपना एक मेहतर होता है जो उनके हर सुख-दुख में सदस्य की तरह उपस्थित होता है। लाड-कोड के अवसर पर वह उतनी ही टणकाई करता है जितनी परिवार की बहन-बेटी।

वाल्मीकि समाज और राजपूताने की परम्पराएं

आप सबने अखबारों की इस खबर को देखा- पढ़ा होगा, मैंने भी पढ़ा।

एक राजपूत परिवार ने वाल्मीकि समाज की राजा जैसी खातिरदारी की, उनको ससम्मान भोज देकर फिर सबने भोजन किया।

खबर काफ़ी सुर्खियां बटोर रही है। लोग इसे सामाजिक-सौहार्द की अनुपम मिसाल बता रहे हैं जो सोलह आना सच भी है पर क्या यह सब अचानक घटित या प्रायोजित है?

मीडिया जिस तरह से आश्चर्य व्यक्त कर रहा है उससे लगता है कि उसे लोक या परंपरा का ज्ञान बिल्कुल नहीं। (इनके अनाड़ीपन पर हंसने वाली एक और घटना याद आ रही है जिसका जिक्र यथाशीघ्र करूंगी। बहरकैफ़)

उन्हें बता दें कि आपके लिए भले यह नया अजूबा हो, हमारे लिए यह चली आयी परंपरा है।

रावळों के साथ वाल्मीकि परिवार का संबंध व्यवसायिक न होकर व्यक्तिगत रहा है। प्रत्येक रावळे का अपना एक मेहतर होता है जो उनके हर सुख-दुख में सदस्य की तरह उपस्थित होता है। लाड-कोड के अवसर पर वह उतनी ही टणकाई करता है जितनी परिवार की बहन-बेटी।

मेहतर और मेहतरानी को जोड़े से वस्त्र और रकम (सोने, चांदी के आभूषण) देने का रिवाज है सो भी उनकी पसंद का। अगर उन्हें लगे कि यह उपहार उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है तो उन्हें अड़ जाने का हक भी रावळों में ही है। जजमान को उनकी मांग पूरी करनी ही पड़ेगी।

हमारे यहां वाल्मीकि परिवार की वरिष्ठ महिला को 'राणीजी' या 'राणी मां' व पुरुष को 'बाबा' कहकर संबोधित किया जाता है। रावळे में जब भी राणीजी आती है, ठाकुरानियां, कंवरानियां और भंवरानियां गज भर का घूंघट और पल्ला हाथ में ले, हाथ जोड़, सिर झुकाकर पगां लागणी (अभिवादन) करती हैं।

विशेष अवसरों पर इस दौरान उनको मुद्रा, वस्त्र या उपहार देकर यह अभिवादन किया जाता है।

इन वाल्मीकि परिवारों के भी अपने कुछ उसूल होते हैं। यह जानने के बाद आम तौर पर उनके प्रति जो समाज में छवि बना दी गई उसे झटका लग सकता है।

अपने जजमानों के यहां कितना भी बड़ा प्रीतिभोज आयोजन हो, ये उनके घर भोजन नहीं करते।

पुराने समय में संपन्न लोग विवाह या उम्र पाकर दिवंगत हुए वयोवृद्ध के मृत्युभोज के अवसर पर पूरे गांव को या 'पांच गांव', 'सात गांव' जीमाया(भोज) करते थे किंतु गांव जिमाना तभी सम्पूर्ण माना जाएगा जब गांव के बाहर अपनी ठसक में अपने कुनबे का छोटा-मोटा राजा होकर बैठा मेहतर जीमेगा।

पर उसे जिमाना इतना सरल कार्य तो है नहीं लिहाजा पूरे गाजे बाजे, ढोल नगाड़ों के साथ दंपति को उनके घर से आदर सहित लाया जाता है। जमीन पर पैर न रखना पड़े इसलिए मार्ग भर में कारपेट बिछाया जाता है और यह चाकरी स्वयं जजमान के परिवार द्वारा की जाती है।

दंपति को ससम्मान भोजन कराकर अन्न, वस्त्र, उपहार देकर प्रसन्न किया जाता है और तब उस भोज में अन्यजन शामिल होने के अधिकारी बनते हैं।

अतएव हमारे समाज के लिए यह कोई नया इनिशिएटिव नहीं किंतु हर जगह शोषित-शोषक और वर्ग-संघर्ष के चश्मों से देखने वाले लोगों के लिए यह शॉकिंग इंसिडेंट हो सकता है।
अस्तु।

(मेहतर शब्द का प्रयोग वर्तमान परपेक्ष्य में अनुचित लगता है किंतु यहां लोक प्रचलित अर्थ में किसी अन्य वैकल्पिक शब्द के अभाव में ऐसा किया गया है।)

- नीलू शेखावत