Highlights
- राजसी वैभव त्यागकर भक्ति मार्ग चुना।
- पितृसत्तात्मक समाज को अपनी आस्था से चुनौती दी।
- भगवान कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम की मिसाल।
- महिलाओं के लिए स्वतंत्रता और आत्म-शासन की प्रेरणा।
सोचिए, सोलहवीं शताब्दी का भारत! कैसा रहा होगा? जहाँ स्त्री का जीवन एक स्क्रिप्टेड नाटक से ज़्यादा कुछ नहीं था। पति परमेश्वर, परिवार ही नियति, और 'समाज क्या कहेगा' यह सबसे बड़ा संविधान। उस दौर में, जब पितृसत्ता अपने चरम पर थी, जहाँ हर साँस पर 'परंपरा' का पहरा था, वहाँ एक राजकुमारी ने सोचा, 'ये सब बकवास है!' जी हाँ, मैं मीराबाई की बात कर रहा हूँ। एक ऐसी रानी, जिसने सिंहासन, राजसी सुख और सामाजिक अपेक्षाओं को एक झटके में ठुकरा दिया। क्यों? क्योंकि उन्हें 'प्यार' हो गया था। और वो प्यार किसी राजकुमार से नहीं, बल्कि गिरधर गोपाल से था! आजकल जब हम पार्टनर चुनने के लिए सौ बार सोचते हैं, तब सोचिए उस वक़्त एक राजघराने की बहू ने भगवान को अपना पति मान लिया! ये सीधा हमला था उस व्यवस्था पर, जो कहती थी 'स्त्री का कोई अपना अस्तित्व नहीं'। मीरा ने अपनी भक्ति से ये सिद्ध कर दिया कि 'अस्तित्व' सिर्फ़ देह का नहीं, आत्मा का भी होता है, और उस पर किसी का राज नहीं चलता।
मीराबाई का 'अजीब' प्रेम: भक्ति या विद्रोह?
कई लोग कहते हैं, मीराबाई सिर्फ़ एक भक्त थीं। ठीक है, मान लिया। लेकिन उनकी भक्ति की परिभाषा ज़रा अलग थी, है ना? उनका समर्पण ऐसा था, जो उन्हें अपने परिवार, राजसी कर्तव्यों और जीवन की परवाह करने से भी रोकता था। समाज ने उन्हें 'कुलघातिनी' कहा, 'पागल' कहा। ज़हर दिया गया, मंदिरों में जाने से रोका गया। पर मीरा मुस्कुराती रहीं। उन्होंने कहा, 'मेरा तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई!' अरे भाई, कोई समझाओ इन लोगों को, प्रेम में पागल होना कोई नई बात नहीं है, पर मीरा का पागलपन तो कुछ और ही था। वो 'पागलपन' दरअसल स्वतंत्रता की एक ऐसी मशाल थी, जिसने दबी-कुचली आत्माओं को रास्ता दिखाया। उनका प्रेम सिर्फ़ एक भावना नहीं, बल्कि एक 'राजकीय घोषणा' थी कि मैं अपने जीवन का मालिक खुद हूँ। क्या आज भी हम इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं?
पितृसत्ता पर भक्ति का 'अहिंसक' वार
मीराबाई ने कोई सेना नहीं बनाई, कोई तलवार नहीं उठाई। उन्होंने बस अपनी 'आवाज़' उठाई। अपनी कविताओं, भजनों के ज़रिए उन्होंने समाज की उन रूढ़ियों पर प्रहार किया, जो स्त्री को सिर्फ़ एक वस्तु मानती थीं। सोचिए, एक राजघराने की महिला, जो राजसी वस्त्रों को त्यागकर, साधुओं के साथ नाचती-गाती फिर रही है! ये उस ज़माने के लिए कितना 'शॉकिंग' रहा होगा। जैसे आज कोई बड़ी सेलिब्रिटी अचानक सब कुछ छोड़कर सादगी में जीने लगे। लोग कहेंगे, 'पब्लिसिटी स्टंट है!' पर मीराबाई के लिए यह उनका जीवन था, उनकी आत्मा की पुकार। उनकी भक्ति, कविताएँ, भजन—ये सिर्फ़ ईश्वर की स्तुति नहीं थे, बल्कि उस ज़माने के 'कॉर्पोरेट' समाज (यानी राजघरानों) और 'सोशल मीडिया' (यानी लोक-लाज) पर एक तीखा व्यंग्य थे। उन्होंने दिखाया कि बिना तलवार उठाए भी 'क्रांति' की जा सकती है, बस दिल में सच्चा 'संकल्प' होना चाहिए। क्या यह विद्रोह कम था?
जब 'आज़ादी' बनी जीने की वजह
मीराबाई ने अपनी 'आज़ादी' को अपनी जीने की वजह बना लिया था। उनकी कहानियाँ हमें सिखाती हैं कि सच्ची स्वतंत्रता बाहरी चीज़ों में नहीं, बल्कि हमारी अपनी सोच और दृढ़ निश्चय में होती है। उन्होंने साबित कर दिया कि एक अकेली स्त्री भी, अपनी आस्था की शक्ति से, समूचे सामाजिक ढाँचे को चुनौती दे सकती है। उनकी भक्ति सिर्फ़ एक उपासना नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का एक उद्घोष बन गई। उन्होंने यह भी दिखाया कि 'धर्म' का असली अर्थ क्या है - वह जो हमें बांधे नहीं, बल्कि मुक्त करे।
मीराबाई: एक प्रेरणा, एक सवाल
आज भी, जब हम 'महिला सशक्तिकरण' की बात करते हैं, तो मीराबाई का नाम सबसे पहले क्यों याद आता है? क्योंकि उन्होंने हमें सिखाया कि अपनी 'आवाज़' कैसे बुलंद करनी है, भले ही पूरा संसार आपके ख़िलाफ़ खड़ा हो। उन्होंने सिखाया कि 'सच्ची आज़ादी' भीतर से आती है, बाहर के बंधनों से नहीं। उनकी जीवन-यात्रा उन तमाम महिलाओं के लिए एक प्रेरणास्रोत है, जो आत्म-शासित और रचनात्मक सार्वजनिक जीवन की आकांक्षा रखती हैं। क्या आज भी हम इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं, जितनी मीराबाई ने सदियों पहले दिखाई थी?
तो दोस्तों, अगली बार जब आप किसी 'रूढ़िवादी' सोच को चुनौती दें, या अपने 'सपनों' के पीछे भागें, तो एक बार मीराबाई को याद ज़रूर कर लीजिएगा। क्या पता, उनकी 'पागलपन' की कहानी आपको भी थोड़ी 'समझदारी' दे जाए! क्या समाज ने उन्हें 'पागल' कहकर उनकी आवाज़ को दबाने की कोशिश की थी, या वो सचमुच 'पागल' थीं अपने प्रेम में? सोचिएगा ज़रूर... और हाँ, अपनी चाय ठंडी मत होने दीजिएगा!