नीलू की कलम से: जय करणी किनियाणी
क्षत्रिय जाति सदा से ही शक्ति की उपासक रही है। किंतु राजस्थान में पवित्र चारण कुल में जन्मीं शक्ति साधिकाएं भी शक्तिस्वरूपा मानकर पूजी गईं। एक रात की बात। पुलिस के बूटों से अचानक ढाणी धूजी। भींव जी द्वार की ओर दौड़े तो देखते हैं कि पुलिस कुएं को घेरकर खड़ी है और भींव जी को ललकार रही है।
क्षत्रिय जाति सदा से ही शक्ति की उपासक रही है। किंतु राजस्थान में पवित्र चारण कुल में जन्मीं शक्ति साधिकाएं भी शक्तिस्वरूपा मानकर पूजी गईं।
न केवल पूजी गईं बल्कि कई राजवंशों की तो वे जीवित अवस्था में ही इष्टदेवी बन गईं। उन्हीं में से एक चारणी करणी माता हैं जिनमें राठौड़ वंश की अगाध श्रद्धा रही है।
भगवती ने भी सदा इन उपासकों को अपने चमत्कारों से अभिभूत किया। यद्यपि जनसाधारण के लिए आज उन चमत्कारों पर विश्वास करना कठिन है किंतु श्रद्धालुओं के श्रद्धा भाव ने सदैव उनकी सहाय और रक्षा की।
जोधपुर मारवाड़ के अंतर्गत खाटू ठिकाना है जहां के ठाकुर हुआ करते थे भींव जी (भीम सिंह) चांपावत। होने को तो वे ठाकुर के छोटे भाई थे किंतु प्रशासनिक कुशलता व दबंगई के कारण ठरका उनका चलता। निजी संपत्ति के नाम पर एक ऊंट, बंदूक और फाकामस्ती किंतु मूंछ की मरोड़ ऐसी कि ठाकुर साहब से भाई की हैसियत से आधा गढ़ ले लिया।
छुटभाई की हिमाकत न ठाकुर साहब को सहन हुई न ही दरबार (राजा) को किंतु भींव जी को छेड़े कौन? ठिकाने के कामदार सेठ को भींव जी फूटी आंख नहीं सुहाता क्योंकि झूठे बही खाते उनके आगे न चलते। समय कोई भी रहा हो जाति और रिश्ते वर्ग (क्लास) से हमेशा पीछे रह जाते हैं।
ठिकाने में जो प्रतिष्ठा और रुतबा कामदार का था वह छुटभाई का कैसे हो सकता था मगर भींव जी गुस्ताख थे। ठाकुर साहब भाई के आगे लाचार थे किंतु जोधपुर दरबार में कामदार की चलती थी। उसने भींव जी की शिकायत और दरबार से उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकला। भींव जी समर्पण करने के बजाय धाड़ेती (बागी) हो गए।
उन्होंने मारवाड़ राज्य में धाड़े डालकर धनिकों की नींद हराम कर दी। दरबार ने सख्ती बरती और एक पुलिस टुकड़ी खाटू रवाना कर दी।
नौरतों के दिन थे। भींव जी अपनी विधवा मां और पत्नी के साथ जागीरी रूखाळने के लिए ढाणी (खेत में बने घर) में रहते थे। दो छोटी-छोटी ओबरी (कमरे) वाला वह रावळा आज भी खंडहर के रूप में विद्यमान है।
रावळे से कुछ दूरी पर एक बेरा (कुआं) था जिससे ढाणी के सभी बासिंदे और उनके ऊंट-बैल आदि जीव जिनावर प्यास बुझाते। उस जमाने में पानी पर पहरा लगता क्योंकि दुश्मन सबसे पहले पानी को ही दूषित करते। भींव जी कुएं की पहरेदारी करते। उसीकी पाळ पर बैठकर भगवती करणी जी की आराधना-उपासना भी करते।
जनश्रुति है कि वह कुएं पर चादर बिछाकर सुपारी में शिला की धारणा करके चादर के चारों कोनों पर सुपारी रख देते और उसी पर बैठकर धिराणी का ध्यान करते। उनके इस चामत्कारिक योगबल की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी।
एक रात की बात। पुलिस के बूटों से अचानक ढाणी धूजी। भींव जी द्वार की ओर दौड़े तो देखते हैं कि पुलिस कुएं को घेरकर खड़ी है और भींव जी को ललकार रही है।
भींव जी बंदूक लेकर छत पर चढ़ गए और पड़दी में बने मोखों से फायर करने लगे। मां और पत्नी बंदूक भरती जा रही थी और भींव जी रिसाले (सशस्त्र सैनिक) को आगे बढ़ने से रोक रहे थे।
एक दिन और एक रात गुजर गई। भींव जी ने रिसाले को आगे न बढ़ने दिया परंतु एक घोर विपत्ति ने उन्हें लाचार बना दिया। रेगिस्तान की तपिश और पानी की कमी। परिंडे में रखे मटके खाली हो गए।
बच्चे प्यास से व्याकुल होकर रोने लगे। भींव जी हिल गए।
"समर्पण? नहीं नहीं!"
"तो अपने दर्प के लिए बच्चों के प्राण ले लूं?
हे मां करणी! अब मैं क्या करूं?"
"करोगे क्या दरवाजा खोलो"
वे आश्चर्य से इधर-उधर झांकने लगे। यही आवाज मां और पत्नी ने भी सुनी। द्वार पर एक बूढ़ी स्त्री पानी का घड़ा लिए प्रतीक्षा कर रही थी।
"कुएं पर तो रिसाला पड़ा है,आप पानी कहां से लाए?"
"उसी कुएं से!" वह स्त्री अपने वस्त्र झाड़ती हुई बोली।
"पहले कभी आपको देखा नहीं ढाणी में,आप आए कहां से?"
"इधर ही से!" वृद्धा ने उस दिशा की ओर इशारा किया जिधर ढाणी के बाहर थान बना हुआ था।
भींव जी के पास न बारूद की कमी थी न ही साहस की। पानी की कमी को अनजान स्त्री पूरा कर ही गई थी। इधर रिसाले के लिए खाने-पीने के लाले पड़ गए।
तिस पर एक रहस्यमयी स्त्री जो चलती बंदूकों के बीच दिन रात भींव जी की ढाणी में घूमती, शरीर पर लगे बारूद को ऐसे झाड़ती मानों मिट्टी झाड़ रही हों। कोई प्रेत भय से तो कोई दैवी आपदा से डरकर पैर पीछे रखने लगा। भींव जी को न तो जिंदा पकड़ा जा सका और न ही मुर्दा।
इधर रिसाले की उड़ती धूल जमने पर भींव जी ढाणी में पूछताछ करने निकले। वह प्राणदात्री स्त्री जिसने उनकी लाज रख ली, वे उसके चरण धोकर पीना चाहते थे पर वह स्त्री वहां की होती तो मिलती।
भींव जी के बताए एनाण सेनाण से ढाणी के और आस पास के गांवों के किसी भी व्यक्ति ने उसे पहचानने से मना कर दिया। वह समझ गए कि वह स्त्री कोई और नहीं, देशनोक की डोकरी ही थी।
भींव जी उभाणे पैर देशनोक दौड़े। श्रद्धानवत होकर एक भेंट बोली।
"इस ठाकर के पास तुम्हें देने के लिए तो कुछ नहीं फिर भी एक ओबरी का निर्माण मंदिर में करवाऊंगा।" देशनोक मंदिर में बनी वह ओबरी भींव जी/ भूप जी की ओबरी के नाम से जानी गई।
मंदिर के वर्तमान जीर्णोधार से पूर्व तक वह ओबरी अस्तित्व में थी।
मां करणी का इष्ट और उनके प्रति अटूट श्रद्धा का भाव भींव जी की पीढ़ियों में अब भी वैसा ही है।
आज भी खाटू गढ़ के दरवाजे में प्रवेश करते ही पहला थान (स्थान) करणी माता का ही है। इस वंश में जन्मे बालक के गले में डाली जाने वाली पहली पातड़ी करणी माता की होती है।