नीलू की कलम से: भए प्रकट कृपाला...

भए प्रकट कृपाला...
भए प्रकट कृपाला...
Ad

Highlights

थोड़ा धैर्य और धरो प्रभु! नवरात्रि निर्विघ्न संपन्न हो जाए।

नवरात्रि का अंतिम दिवस खंडित न हो इसलिए शीघ्रता की गई।

सूर्योदय तक सब घरों में मां की ज्योत ले ली गई। जुहारे बडे कर नारियल का भोग दे दिया गया।

अब बालक जन्मे तब भी नवरात्रि खंडित न मानी जायेगी। बालक भी कदाचित इसी प्रतीक्षा में था

चैत्र मास, नूतन वर्षारंभ,देवी पूजन और अनुष्ठानों में व्यस्त अयोध्यावासी।हर घर से घृत-मिष्टान्न मिश्रित धूम्र की महक, नए-नए पत्तों और विभिन्न प्रकार की मंजरियों से सजे सुरभित तोरणद्वार और व्रत उपवास से तप्त-दृप्त मुख अधिक आभायुक्त हो चले हैं।

नवरात्रि अनुष्ठान है और अनुष्ठान निर्विघ्न होने चाहिए किंतु राजमहल में किसी भी समय सुआ (जननाशोच) लग सकता है।प्रसूति का समय निकट से निकटतर है।निपुण चारिकाएं पूजा की सामग्री पृथक कर रही है।एक पैर अनुष्ठानकक्ष तो दूसरा पैर रनिवास में।खुशी थामे नहीं थम रही।आनंद अटाये नहीं‌ अट‌ रहा।नवरात्रि के एक-एक दिन अपने साथ शुभ संकेत ला रहे हैं।

पुष्प भाराक्रांत शाखाएं कहती हैं राम आने वाले हैं,दुगुने वेग से बहती निर्झरणी कहती है अब और प्रतीक्षा नहीं किंतु मुख्य चारिका कहती है दो दिन गुजर गए हैं,दो दिन और!

थोड़ा धैर्य और धरो प्रभु! नवरात्रि निर्विघ्न संपन्न हो जाए।

कन्याऐं और युवतियां भी यही चाहती हैं पर उनका ध्यान उपासना से अधिक उत्सव की ओर है।भूखे पेट उत्सव में रस आता है भला?

सचमुच उनकी प्रार्थनाएं सुनी गई। महागौरी  श्वेताम्बरा का पूजन संपन्न हुआ। बस एक दिन और!मगर इतना धैर्य स्वयं उनका मन भी धरने को राजी न था। नवमी की प्रभात कुछ अलग थी।बाकी दिनों से तो बिलकुल अलग-

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥ 

(योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकि) राम का जन्म सुख का मूल है।)

अब और प्रतीक्षा नहीं। नवरात्रि का अंतिम दिवस खंडित न हो इसलिए शीघ्रता की गई। सूर्योदय तक सब घरों में मां की ज्योत ले ली गई। जुहारे बडे कर नारियल का भोग दे दिया गया। अब बालक जन्मे तब भी नवरात्रि खंडित न मानी जायेगी।

बालक भी कदाचित इसी प्रतीक्षा में था-

नौमी तिथि मधुमास पुनीता, शुकल पच्छ अभिजीत हरि प्रीता।
मध्य दिवस अति धूप न घामा, प्रकटे अखिल लोक विश्रामा।।
प्रजाननों की प्रसन्नता का पारावार न रहा। प्रसन्नता की अभिव्यक्ति तुलसी बाबा ने भरपूर कर ही दी है। अगर-धूप का धुंआ और अबीर तो ऐसे उड़े है कि दिन में भी संध्या का वातावरण निर्मित हो चला है। बाबा सुंदर निरूपण करते। हुए कहते हैं- मानो रात भी बालक के दर्शन को उत्सुक है किंतु सूर्य के रहते लज्जा की ललाई से  संध्या बन जाती है।

(अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥)
सूर्य की पत्नी संजना का एक नाम संध्या भी है। सूर्यवंश कुलदीपक का जन्म कुलगुरु वशिष्ठ के लिए इतना आह्लादित करने वाला क्षण है कि सपत्नीक दौड़े आए तो कुलदेवता भला कैसे रुकते? 
अकेले जाते तो संध्या नाराज हो जाती क्योंकि लल्ला की झलक पाने की जो द्विगुणित उत्कंठा स्त्री में है वह पुरुष कहां से लायेगा?

ज्योत तो अखंड संपन्न हुई किंतु नवरात्रि किंचित अधूरी रह गई। द्विपहर बाद सुआ लग गया। सूर्यवंश की नवरात्रि अष्ट दिवसीय ही रह गई। नवें दिन सिर्फ ज्योत ली जाती है,अनुष्ठान के दिन आठ ही रहे।

नीलू शेखावत

Must Read: जाओ ठाकुर! भूल जायेंगे..

पढें Blog खबरें, ताजा हिंदी समाचार (Latest Hindi News) के लिए डाउनलोड करें thinQ360 App.

  • Follow us on :