नीलू की कलम से: इकतालिस वर्ष बाद खुशी से झूमा यह घुड़सवार

कल से एक खुशखबरी जिसने देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम नागरिक तक को रोमांचित किया है और खासकर राजस्थान के लोगों की खुशी थामे नहीं थम रही क्योंकि यहां की बेटी ने चीन के ह्वांगझू में एशियन गेम्स में घुड़सवारी में पूरे 41 वर्ष बाद भारत को सोने का तमगा दिलवाया है। हर कोई आह्लादित है। इकतालीस वर्ष का अर्थ आप समझते हैं?

raghuveer singh shekhawat

कल से एक खुशखबरी जिसने देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम नागरिक तक को रोमांचित किया है और खासकर राजस्थान के लोगों की खुशी थामे नहीं थम रही क्योंकि यहां की बेटी ने चीन के ह्वांगझू में एशियन गेम्स में घुड़सवारी में पूरे 41 वर्ष बाद भारत को सोने का तमगा दिलवाया है। हर कोई आह्लादित है। इकतालीस वर्ष का अर्थ आप समझते हैं?

प्रतीक्षा लम्बी थी किंतु शेखावाटी के झुंझनू जिले के पाटोदा गांव में बैठे एक तिहतर वर्षीय शख्श के लिए यह कल की सी बात है।

साल था 1982 और शहर था नई दिल्ली। नवंबर माह की गुलाबी ठंड में राजधानी ने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में 31वर्ष बाद दूसरी बार एशियन गेम्स की मेजबानी की थी। राजस्थान के एथलीट श्री राम सिंह शेखावत ने मशाल लेकर भारतीय टीम का नेतृत्व किया था।

61 केवलरी जो विश्व की एकमात्र अश्व रेजिमेंट है, के घुड़सवारों के लिए यह आयोजन एक बड़ी घटना थी क्योंकि पहली बार घुड़सवारी को इन गेम्स में शामिल किया गया था।

किंतु इससे भी बड़ी घटना राजस्थान के एक तीस वर्षीय युवक के लिए थी जिसे इसका इल्म तक न था। उसे कहा गया "जी जान लगा देना।"

युवक हंसा।

"भला इसमें जी जान लगाने जैसा क्या है? यह तो हमारे नियमित सेवाभ्यास का ही तो अंग है।"

युवक कुछ न जानता था पर देश विदेश ने उसे जाना क्योंकि इसी युवक ने भारत को घुड़सवारी में पहले पहल स्वर्ण पदक दिलाया।

एक नहीं दो-दो स्वर्ण पदक, व्यक्तिगत और टीम स्पर्धा दोनों अपने नाम किये। घुड़सवारी ने ही 1982 के खेलों में भारत के पदकों का खाता खोला जिसके बाद भारत ने तेरह के करीब पदक अन्य स्पर्धाओं में भी जीते।

खेलग्राम खुशी से झूम उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपने हाथों मेडल पहनाया।

इस अभूतपूर्व उपलब्धि को अपने नाम करने वाले युवक का नाम था दफेदार रघुवीर सिंह शेखावत। इस शानदार सफलता के बाद देश दुनिया में उन्हें पहचान मिली। प्रदेश और गांव के लोगों ने सिर आंखों पर बिठाया। कई रिकॉर्ड्स हाथ बांधे उनका इंतजार कर रहे थे। घुड़सवारी में पहले स्वर्ण पदक के बाद पहला अर्जुन पुरस्कार भी इन्हें ही प्राप्त हुआ। पद्मश्री, राष्ट्रपति पुरस्कार से लेकर छोटे मोटे पदकों की फेहरिस्त लंबी है।

1986 में दक्षिण कोरिया में हुए अगले आयोजन के लिए उन्होंने फिर से दमखम लगाया किंतु एनवक्त पर घोड़ों में बीमारी फैली, लिहाजा शहजादा घोड़ा जिसने रघुवीर सिंह को हीरो बनाया, पीछे रह गया किंतु एक बार फिर 'कांसा' अपने नाम कर लिया।

अगले दो वर्षों में वह सेना से रिटायर हो चुके थे। शहजादा जिसके लिए वह गांव से देशी घी लेकर जाते थे, अब किसी और के पास था और इधर अगले एशियन गेम्स के लिए खुद के घोड़े ही न मिले। यहीं से इस खेल की दुर्गति आरंभ होती है।

बिना हथियार के कैसा युद्ध? योद्धा निराश होते गए और घुड़सवारी पदक तालिका से बिल्कुल बाहर। उपेक्षा कैसे प्राणलेवा हो सकती है, यह इसका उदाहरण है।

पाेलाे और इक्वेस्ट्रियन स्पाेर्ट्स प्रमाेट करने के उद्देश्य से बनाई गई 61 कैवलरी ने 11 अर्जुन अवाॅर्ड और 10 एशियन गेम्स अवाॅर्ड जीते। 2011 और 2017 की वर्ल्ड पाेलाे चैम्पियनशिप में पहला स्थान पाया। किंतु 2020 में इस कैवलरी के 232 घाेड़ाें काे जयपुर से दिल्ली भेजे जाने की खबर सबने सुनी होगी जिनका इस्तेमाल सिर्फ खास सेरेमाेनियल माैकाें पर हाेगा।

खैर ! रघुवीर सिंह खेलों से दूर अपने गांव आ बैठे। गांव के सरपंच रहे। विशेषज्ञ के तौर पर अब भी घुड़सवारी के आयोजनों में उन्हें बुलाया जाता है।

घुड़सवारी घोड़े और घुड़सवार के आपसी तालमेल और समझ पर आधारित खेल है।

कल टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए इंटरव्यू में उन्होंने अपने घोड़े शहजादे के साथ बिताए भावुक पलों को साझा किया।

" घोड़े की देखरेख के लिए मुझे सहायक मिला था किंतु मैंने कभी शहजादे को उसके भरोसे न छोड़ा। तीन घंटे सवारी करता तो बीस घंटे उसीकी देखभाल में बिताता। उसे जरा सी तकलीफ होती तो अपने बिस्तर घुड़साल में ही डाल लेता। वास्तव में मेरा और उसका रिश्ता पिता पुत्र के समान था।"

कल भारत की जीत के समाचार ने उनकी बूढ़ी आंखों में तीस वर्ष के युवक जैसी चमक पैदा कर दी थी।

-नीलू शेखावत

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