तू देसी है रुंखड़ो, म्है परदेसी लोग: एक महाराजा का देशी पौधे से ऐसा प्रेम की बादशाह का आदेश टालकर मारवाड़ लौट गए

अपने देश मारवाड़ से परदेस में केवल तलवार और गर्दन साथ लेकर गए महाराजा रायसिंह की दशा 'फोग' के रूख को देखकर एक घायल पक्षी सी हो जाती है. घोड़े से उतर महाराजा उस रूख को बांहों में भर लेते है और अपने मारवाड़ की याद में फूट - फूट कर रोने लगने है.

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कितने आदमी थे ?

तो साहेबान कहानी जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के शाही दरबार से शुरू होती है...

काबुल और कंधार में शायद उन दिनों यही पूछा जाता था कि

कितने आदमी थे ?
"दो सरदार दो"


ये दो मरद थे बीकानेर के महाराजा रायसिंह और आमेर के कुंवर मानसिंह.

जलालुद्दीन की तरफ से किए गए काबुल और कंधार अभियान का पूरा मोर्चा मानसिंह कछावा के हाथ में था पर महाराजा रायसिंह की तलवार ने जितने नरमुंडो को धरती पर गिराया उनकी गिनती इतिहास में नही की गई.कुरमी और कमधज की तलवारों ने काबूल, कंधार में जो विनाशलीला रची वह आज भी पश्तुनो की रुंह में सिहरन पैदा कर देती है.

काबूल कंधार अभियान के बाद महाराजा रायसिंह की तलवार म्यान में जाने से ही मुकर गई और एक के बाद एक दर्जनों अभियान सफल कर दिए. जब भी किसी सफल अभियान का समाचार दिल्ली पहुंचता तो पूरा दरबार रायसिंह की जय - जयकार बोल उठता. 

नजराना देने से कौन इनकार कर रहा है ? 

तभी एक दिन शाही दरबार को मालूम हुआ कि दक्षिण में बुरहान उल मुल्क शाही सेवा में नजराना नही भेजने की हिमाकत कर रहा है. 

इस दुस्साहस का दंड देने शहजादा दानियाल दक्षिण जाने को तैयार हुआ. जलालुद्दीन रायसिंह के रण कौशल का पहले ही लोहा मान चुका था इसलिए महाराजा रायसिंह को भी भारी लश्कर के साथ बुरहान उल मुल्क को शाही फरमान मनवाने दक्षिण के लिए रवाना किया.

काबूल,कंधार से लेकर आधे हिंदुस्तान को अपनी तलवार से माप देने वाले महाराजा रायसिंह के साथ उस अभियान में एक गजब की घटना हो जाती है.

अभियान के दौरान महाराजा उस जगह ना जाने कैसे "फोग" का एक पौधा देख लेते है. जैसे ही महाराजा का मारवाड़ में उगने वाले "फोग" के पौधे पर दृष्टिपात होता है तो पूरी शाही सेना को उसी जगह ठहर जाने का फरमान होता है. 

जाने कैसे महाराजा को एक रूख़ दिख गया 

अपने देश मारवाड़ से परदेस में केवल तलवार और गर्दन साथ लेकर गए महाराजा रायसिंह की दशा "फोग" के रूख को देखकर एक घायल पक्षी सी हो जाती है. घोड़े से उतर महाराजा उस रूख को बांहों में भर लेते है और अपने मारवाड़ की याद में फूट - फूट कर रोने लगने है. आंखो से द्रव बहने लगता है गला रूंध जाता है. ना जाने कितने ही अभियानों में खून की नदियां बहाने वाली तलवार हाथ से छूट कर दूर गिरती है. लगातार युद्धों में खपते - खपते दक्षिण के मुहाने पर पहुंचे मारवाड़ घणी को रूख में अपने मारवाड़ की माटी की ऐसी खुशबू आती है कि मानो अब वे बिना पलट झपकाए अपने देश लौट जाना चाहते है. महाराजा "फोग" के रूख को गले लगकर पूछते है कि

" तू देसी है रुंखड़ो , म्है परदेसी लोग  
म्हाने अकबर भेजिया, तू क्यूं आयो फोग"

हे! मेरे देश मारवाड़ के रूख मुझे तो यहां जलालुद्दीन अकबर ने भेजा है. इसलिए अपने देश से दूर परदेस में हूं. पर मेरे बंधु मेरे सखा तू मारवाड़ से दूर परदेस में क्या कर रहा है ? तेरा यहां रुकने का क्या प्रयोजन है ? 

महाराजा का कलेजा चीखकर फिर से उस रूख से कहता है कि रुखंडा चल अब हम दोनो की अपने देश मारवाड़, अपनी धरती अपने धोरों के लिए वापस लौटते है.

बादशाह का फरमान भूल गए महाराजा 

कहा जाता है कि महाराजा रायसिंह उसी वक्त "फोग" के रूख के साथ दक्षिण अभियान छोड़कर अपने देश मारवाड़ लौट आए. 

मारवाड़ में फोग क्या है यह तो शायद ही किसी को बताने की जरूरत हो. एक दोहा भी अक्सर बहुत प्रचलित है...

"फोग ले रो रायतो, काचरी रो साग
बाजरी री रोटडी, जाग्या म्हारा भाग"