राजस्थान हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: सब-इंस्पेक्टर भर्ती रद्द होने के राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ

राजस्थान हाईकोर्ट ने 859 पदों वाली सब-इंस्पेक्टर भर्ती परीक्षा को रद्द कर एक ऐसा फैसला दिया है, जिसने न केवल हजारों युवाओं की उम्मीदों को झकझोरा है, बल्कि प्रदे

Jaipur | राजस्थान हाईकोर्ट ने 859 पदों वाली सब-इंस्पेक्टर भर्ती परीक्षा को रद्द कर एक ऐसा फैसला दिया है, जिसने न केवल हजारों युवाओं की उम्मीदों को झकझोरा है, बल्कि प्रदेश की राजनीति और प्रशासनिक तंत्र पर भी गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं।

न्याय और व्यवस्था की कसौटी पर भर्ती

रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां याद आती हैं – “न्याय अगर दो, आधा दो”। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्याय अधूरा नहीं हो सकता। भर्ती प्रक्रिया में अगर व्यापक स्तर पर गड़बड़ी और धांधली हुई है, तो इसे रद्द करना ही न्यायोचित है। कोर्ट की टिप्पणी भी बेहद कठोर और महत्वपूर्ण रही – अगर यह भर्ती रद्द नहीं होती तो राजस्थान में कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका थी।

भर्ती प्रक्रिया की सच्चाई और ‘दाल काली’ का सवाल

यह भर्ती वर्ष 2021 में कांग्रेस सरकार के दौरान हुई थी। आरपीएससी के तत्कालीन सदस्यों पर गंभीर आरोप लगे –

संगीता आर्य

मंजू शर्मा 

जसवंत राठी

रामूराम रायका 

बाबूलाल कटारा

श्रीमती राजकुमारी गुर्जर

श्री संजय श्रोत्रिया (तत्कालीन RPSC अध्यक्ष)

यह स्पष्ट करता है कि जिस एजेंसी को ईमानदारी की गारंटी देनी थी, वही संदिग्ध हो गई। जैसे कहा गया – “जब बाड़ ही खेत को खा जाए तो क्या बचेगा?”।

राजनीतिक दबाव और सामूहिक उत्तरदायित्व

भाजपा सरकार ने सत्ता में आने से पहले जीरो टॉलरेंस की नीति का दावा किया था। लेकिन जब बाकी भर्तियां रद्द हो गईं, तब सब-इंस्पेक्टर भर्ती को बचाने का प्रयास क्यों हुआ?

मंत्री किरोड़ी लाल मीणा खुद कह चुके हैं कि 50% से अधिक चयन फर्जी है।

हनुमान बेनीवाल भी इस मामले में मुखर रहे।

लेकिन अजीब स्थिति यह है कि मंत्री खुद अपनी ही सरकार के स्टैंड से अलग राय रख रहे हैं। यह सवाल खड़ा करता है कि क्या मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी नाम की चीज़ वाकई मौजूद है?

युवाओं और समाज का विश्वास

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में यह भी इंगित किया कि सब-इंस्पेक्टर सिर्फ पुलिस अधिकारी नहीं होता, बल्कि छोटे-छोटे प्रकरणों में वह न्यायाधीश जैसी भूमिका भी निभाता है।

यदि चयन ही अवैध हो तो न्याय की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?

क्या जनता उस इंस्पेक्टर पर भरोसा करेगी जिसकी कुर्सी पर बैठने का आधार ही फर्जी हो?

यहीं से कोर्ट ने बेहद गहन संदेश दिया – “न्याय का वाहक केवल वही हो सकता है जिसका चयन न्यायपूर्ण तरीके से हुआ हो।”

राजनीतिक एंगल और विपक्ष की चुनौती

यह फैसला कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए असुविधाजनक है।

कांग्रेस पर आरोप है कि उसके शासनकाल में यह भर्ती हुई और भ्रष्टाचार फैला।

भाजपा पर सवाल है कि जीरो टॉलरेंस का दावा करने के बावजूद इस भर्ती को क्यों बचाया जा रहा था?

नतीजा यह हुआ कि सरकार अब डबल बेंच या सुप्रीम कोर्ट जाने पर विचार कर सकती है। लेकिन बड़ा प्रश्न यही है – क्या सरकार युवाओं के न्याय के पक्ष में खड़ी होगी या राजनीतिक दबाव में भर्ती को बचाने का प्रयास करेगी?

आगे की राह – सिस्टम पर सवाल

हाईकोर्ट का फैसला केवल भर्ती रद्द करने का नहीं है, बल्कि यह पूरे प्रशासनिक ढांचे पर सवाल है।

क्या आरपीएससी के उन सदस्यों पर कार्रवाई होगी जिनके रहते यह भ्रष्टाचार हुआ?

क्या सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि आगे कोई भी भर्ती पारदर्शी तरीके से हो?

क्या यह भर्ती घोटाला एक मिसाल बनेगा कि अब किसी भी परीक्षा में धांधली बर्दाश्त नहीं की जाएगी?

राजस्थान हाईकोर्ट का यह निर्णय केवल 859 पदों की भर्ती का मामला नहीं है। यह न्याय, पारदर्शिता और विश्वास की लड़ाई है। जब इंसाफ की कुर्सी पर बैठने वाले ही संदिग्ध निकलें, तो व्यवस्था की नींव हिल जाती है।
भजनलाल सरकार और विपक्ष दोनों के लिए यह फैसला एक राजनीतिक कसौटी है। जनता देख रही है कि क्या सचमुच जीरो टॉलरेंस सिर्फ नारा था या इसे व्यवहार में भी उतारा जाएगा।