नीलू की कलम से: हां तो बरात टोल्डे चालबा द् यो

हां तो बरात टोल्डे चालबा द् यो
barat on camel
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इस लंबी अवधि ने जानियों (बारातियों) की स्मृति में विभ्रम उत्पन्न किया,जनेती गांव का नाम भूल गए। 'टोल्डो-टोल्डो' करते करते 'ऊंटलो-ऊंटलो' करने लगे। (राजस्थान में किशोर ऊंट को टोल्डो कहते हैं।)

बैलगाड़ियों से मारवाड़ की सीमा में प्रवेश करके किसी गांव के समझदार आदमी से पूछा- "साय! ओ ऊंटलो खटीने सी पड़सी?, गेलो बताओ।"( यह ऊंटलो गांव कहां पड़ेगा? रास्ता बताओ)

बात उन दिनों की है जब एक घर की ढाणी,दस-बीस घरों का गांव और सौ-डेढ़ सौ घरों का नगर हुआ करता था। गांव से गांव की दूरी मीलों में और नगर से नगर की दूरी कई कोसों में हुआ करती थी बावजूद इसके यातायात के साधन बहुत कम या नहींवत् थे।

आदमी का जीवन निर्वाह तो अपनी गांव, ढाणी से हो जाता किंतु शादी-विवाह के लिए तो सरहद लांघनी ही पड़ती थी। 

अन्य जातियों के लिए यह सरहद गांव-कांकड़ तक थी किंतु राजपूतों के लिए यह दायरा काफी बड़ा होता क्योंकि किसी एक राज्य में एक ही गौत्र विशेष के राजपूत निवास करते हैं।

यहां के राज्य राजाओं के नाम से नहीं, कुलों के नाम से चले हैं, राज्य को राजा के नाम से नहीं, उस कुल की शक्ति से पहचाना जाता रहा है।

मेवाड़ का राजा कोई भी हो, राज गुहिलों और सिसोदियो का कहलाया, राजा मालदेव हो या मानसिंह, 'नौ खूंटी मारवाड़' के धणी राठौड़ ही कहलाए।

विवाह-संबंधों के लिए राजपूतों को राज्य की सीमा का अतिक्रम करना पड़ता था। फिर राज-परिवार के अतिरिक्त कोई राजपूत साधन-संपन्न नहीं होता था, खेती-बाड़ी या फिर चाकरी से ही अपने परिवार का पेट पालता।

किंतु युद्ध या संकट के समय उसे तलवार लेकर दरबार में उपस्थित होना ही होता क्योंकि यह उसका जातिगत धर्म था और कुलगत कर्त्तव्य। रावळों में पुरुष कम,सफेद कपड़ों में लिपटी विधवाएं अधिक होतीं (हर विधवा सती नहीं होती थी।)

इसीके चलते विवाह संबंध तय करने का गुरूभार चारण या पुरोहितों पर रखा गया।

'बारेठजी' या 'पिरोत' जी जहां नारियल झिला आते वहीं संबंध वज्रवत दृढ़ हो जाता।

एक तो संबंध तय करना समयसाध्य कार्य था, लंबे समय तक सुरक्षा की दृष्टि से किसी सैनिक का घर से इतनी दूर रह पाना संभव न था।

दूसरा संसाधनों का अभाव , कई महीनों की यात्रा बिना धन या संसाधन के संभव न थी। फिर शादी संबंध बच्चों का खेल नहीं जो एक ही बार में तय हो जाए, वर-वधू के नानेरे-दादेरे तक खंगाले जाते थे।

तीसरा चारणों या ब्राह्मणों को किसी भी राज्य में निर्बाध गति से विचरण करने और सम्मान प्राप्त करने का अधिकार था। हर राज्य में उनके यजमान होते तथा ये उनकी कुल-परंपरा से भलीभांति परिचित होते।

ऐसे ही संबंध निर्धारण के लिए मारवाड़ के 'टोल्डा' गांव से एक बारेठ जी अपने ठाकर की कन्या का नारियल लेकर गांव से चटिए के ठेगे-ठेगे रवाना हुए।

धूप लगती तो खेजड़ी-बांठके की छांव तले चिलम सिलगाते, गर्मी लगती तो खमीस कांधे डाल लेते और बिरखा में किसी छान-झूंपड़े की शरण लेते 'धर मंजला-धर कूंचा' शेखाटी पहुंचे। गांवराम से पूछते- "गांव में कोई रावळा हो तो बताओ।"

कई दिनों तक रावळों को जांचते-खंगालते हुए वे आखिर एक शेखावत सिरदार के पांवणे (मेहमान) बने। उनके कंवर ने बारेठ जी की अच्छी मनवार और खातिरदारी की। बारेठ जी का मन चल गया। अपनी गांठळी में से 'रिप्यो-नारेळ' निकालकर सिरदार से बोले- "ओ कंवर म्हांको हुयो, नारेळ झेलो!"

सारी बातें तय करके बारेठ जी चल दिए।

वे दिन और वे लोग। कई साल सगाई चलती और कई महीने जान। तय समय पर जान (बरात) रवाना हुई।

इस लंबी अवधि ने जानियों (बारातियों) की स्मृति में विभ्रम उत्पन्न किया,जनेती गांव का नाम भूल गए। 'टोल्डो-टोल्डो' करते करते 'ऊंटलो-ऊंटलो' करने लगे। (राजस्थान में किशोर ऊंट को टोल्डो कहते हैं।)

बैलगाड़ियों से मारवाड़ की सीमा में प्रवेश करके किसी गांव के समझदार आदमी से पूछा- "साय! ओ ऊंटलो खटीने सी पड़सी?, गेलो बताओ।"( यह ऊंटलो गांव कहां पड़ेगा? रास्ता बताओ)

आदमी बोला- "साय ओ नाम तो कदे सुण्यो कोनी।"(यह नाम तो कभी सुना नहीं)

"ऊंटलो नहीं तो ऊंटला झिस्यो कोई और गांव हुलो।"(ऊंट नहीं तो ऊंट जैसा कोई और नाम होगा!)

"हां-हां, जाखेड़ो, जाखेड़ो" -भुड़की (मिट्टी की सुराही) से सोमरस की चुस्कियां लेते दा'जी बोले। (बूढ़े ऊंट को यहां 'जाखेड़ो' बोला जाता है।)

बारात पंद्रह-बीस दिन का सफर तय करके डेगाना के पास जाखेड़े पहुंची। कांकड़ में जान रोक दी गई।

वह जमाना कांकड़-सिंवाळे का था। नाई हरे पेड़ की टहनी लेकर मांडे वाले घर जाता और बारात आने की सूचना देता।

सगाई और विवाह के बीच एक लंबा अंतराल आ जाने के कारण बींद (दूल्हा) बदल जाने की संभावनाएं बढ़ जाती थी,अतः बारात को कांकड़ पर ही रोक दिया जाता।

मंडेती कांकड़ पर ही बारात की अगवानी इस व्याज से करते कि कहीं कोई धोखा होने की स्थिति में बरात को गांव के बाहर से ही लौटाकर अनावश्यक जग-हंसाई से बचा जा सके।

तो नाई जब 'हरी' लेकर गांव में पहुंचा तो गांव के सिरदार एकत्र हो गए। सबने एक-दूसरे की तरफ आश्चर्य से देखा- "इस गांव में तो कोई विवाह नहीं।"

"टाणै के धणी का नाम फलाण सिंघ।"

"इस नांव (नाम) का तो कोई राजपूत यहां नहीं।"

नाई पिछले पावंडे भरता हुआ दौड़ा- "ई गांव में तो कोई भ्या ही कोन्या, फलाण सिंघ नांवको आदमी ही कोन्या।"

छोरे-छापरे दौड़े- "दा'ज़ी-दा'जी! ई गांव में तो कोई भ्या ही कोन्या,फलाण सिंघ नांव को आदमी ही कोन्या।"

दा'जी भुड़की हटाकर रची हुई आंखों से बोले- "सुसरीकों! ऊंटलो ही जाबा द् यो अर जाखेड़ो ही जाबा द् यो। अधबिचलो के हुवे?" (ऊंट ही छोड़ों और जाखेड़ा भी छोड़ो, बीच का कौन होता है?)

"दा'जी टोल्डो !"
"हां तो बरात टोल्डे चालबा द् यो।"

- नीलू शेखावत

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