पुस्तक समीक्षा: समन्वयी संस्कृति और राष्ट्रबोध

गंगा को परिभाषित कर पाना कठिन है,इसलिए नहीं कि वह गंगा है बल्कि इसलिए कि वह प्रवाहमती है। प्रवाह को कोई क्या नाम देगा? बस सहज भाव से गंगा कह दिया तो कह दिया अन्यथा भागीरथी कहने से कौन रोके? मंदाकिनी का निषेध कौन करे और अलकनंदा बुलाना कहां वर्जित होगा? प्रवाही तत्त्व परिभाषाओं में आबद्ध नहीं हो पाते, उन्हें शब्दों में ब

Indushekhar Tatpurush book Hinduttva

गंगा को परिभाषित कर पाना कठिन है,इसलिए नहीं कि वह गंगा है बल्कि इसलिए कि वह प्रवाहमती है। प्रवाह को कोई क्या नाम देगा? बस सहज भाव से गंगा कह दिया तो कह दिया अन्यथा भागीरथी कहने से कौन रोके? मंदाकिनी का निषेध कौन करे और अलकनंदा बुलाना कहां वर्जित होगा? प्रवाही तत्त्व परिभाषाओं में आबद्ध नहीं हो पाते, उन्हें शब्दों में बांधना किंचित कठिन होता है। 'हिंदुत्व' की अवधारणा भी कुछ ऐसी ही है। इसे भारतीयता कह लें या मनुष्यता, विशेष अंतर नहीं पड़ता।

यह वह बोध है जो हमारे सदियों के चिंतन और मनन का निकष है, सार संभूत तत्त्व है और जो नितांत हमारा अपना है। हमारा आचार, विचार और संस्कार सब कुछ तो पगा है इसमें।
कुछ समय पूर्व बीबीसी हिंदी का एक आर्टिकल पढ़ने को मिला-

'क्या भारत वाकई हिंदू राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा है?'

इसमें अस्फुट शब्दों में यह भय दिखाई दिया कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा।

लेखक और इतिहासकार पुरुषोत्तम अग्रवाल का वक्तव्य भी उद्धरित किया गया कि हिंदू राष्ट्र की मांग नई नहीं है।

“1925 में संघ की स्थापना हुई। उस वक्त हिंदुत्व के सबसे प्रभावशाली विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब “हिंदुत्व : कौन है हिंदू” में इस बारे में लिखा। अपनी इस किताब में सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर वैचारिक फ्रेमवर्क दिया था और इस विचारधारा के लोग आज सत्ता में हैं।”

सावरकर का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक से जोड़ते हुए उनकी प्रतिक्रियावादी हिंदुत्व की अवधारणा पर भी चर्चा की गई।

किंतु हिंदुत्व को क्या सचमुच प्रतिक्रिया की आवश्यकता है? क्या वह किसी की लकीर को छोटी करके बड़ा बना है? क्या हिंदुत्व राज्य या राजनीति का विषय है? असंख्य नद,नदी और धाराओं को स्वयं में समाहित करने वाला सागर फिर इनसे प्रतिस्पर्धा भी करता है?

आज जब आधे अधूरे और एक तरफे तथ्यों के बल पर, हिंदुत्व के नाम पर भय उत्पन्न किया जाता जाता है, उसे अन्य प्रतिक्रियावादी मत पंथ और मजहबों के समकक्ष रखकर स्थापना-पुनर्स्थापना की बात की जाती है, ऐसे समय में एक पुस्तक जिसे पढ़ने की आपको नितांत आवश्यकता है वह है- हिंदुत्व: एक विमर्श ।

हिंदुत्व की अवधारणा पर बात करते हुए एक शीर्षक- "क्या भारत एक हिंदू राष्ट्र है" से लेखक स्पष्ट करते हैं- "भारत में हिन्दू राष्ट्र को लेकर तीन प्रकार के मत देखने को मिलते हैं - एक वह जो यह मानकर चलते हैं कि भारत एक धर्म निरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश है..दूसरे वह जो मानते हैं कि हिंदू धर्म की उत्पत्ति भारत में ही हुई थी.. अतः भारत को हिंदू राष्ट्र बनना ही चाहिए।

एक तीसरा मत भी है जो यह कहता है कि भारत सनातन हिन्दू राष्ट्र है..राज्य के प्रचलित अर्थों में धर्म निरपेक्ष या धर्म विरोधी होने पर भी इसका हिंदू राष्ट्र का स्वरूप तब तक अपरिवर्तित है जब तक अधिसंख्यक समाज हिंदू परंपरा के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर रहा है।"

स्पष्ट है भारतीय दृष्टि राष्ट्रीयता को राजनीतिक संदर्भ में नहीं देखती। फिर समाज में हिंदुत्व को लेकर कैसा भय और क्योंकर भय? खैर यह तो बात हुई प्रसंगवश पढ़ने में आए किसी लेख की किंतु यदि बात की जाए उस पुस्तक की जिसमें हिंदुत्व से जुड़ी हर एक शंका का समाधान और दृष्टि का वितान मिलता है तो उसके कुछ अध्यायों पर चर्चा कर लेना समीचीन होगा।

'भारत' शब्द की निर्मिति 'भरत' शब्द से हुई। भरत कौन? कश्यप ऋषि के आश्रम का वह दृश्य स्मरण कीजिए। बालोचित निर्ममतावश शावकों की गर्दन को खींचता हुआ एक अबोध बालक। जिसने बाल्यावस्था में ही आसपास के हिंसक जीवों का दमन (वश) कर 'सर्वदमन' नाम पाया और वह दमन हिंसा आधारित नहीं, आत्मीयता से किया गया हो। उन्हीं सप्त द्वीपवती पृथ्वी के सम्राट भरत के नाम से यह भूखंड भारत कहलाया।

पुनर्यास्यत्याख्यां भरत इति लोकस्य भरणात् (समस्त संसार का भरण करने के कारण वह 'भरत' हुए)

"भरत शब्द का अर्थ होता है- भरना,आपूरण करना। जो रीते को पूर्ण कर दे, लबालब भर दे । पूर्णता जीवन का पर्याय है। हमारे संपूर्ण जीवन प्रयत्न इस परिपूर्णता की सिद्धि के लिए है। रिक्तता तो मृत्यु है। अधूरापन प्रकृति है। यह पूर्णता की यात्रा ही वस्तुतः जीवन है और इस यात्रा का सम्यक् संपादन निर्वहन करना संस्कृति है।

महाकवि तुलसीदास ने भरत के नामकरण के बहाने बड़ी तात्विक बात की ओर संकेत किया है।

विश्व भरण पोषण कर जोई
ताकर नाम भरत अस होई। ..

यहां भारत एक व्यक्ति मात्र नहीं है। एक भाव है, एक व्यवस्था है, जीवन की प्रक्रिया है।"

कवि कुल गुरू भी तो यही अर्थ संपादित कर चुके हैं।

जहां पूर्णता की सिद्धि सदैव अभीष्ट रही हो, जिसने समस्त ब्रह्माण्ड की परिकल्पना एक पुरुष में कर ली हो, जो वसुधा को कुटुंब मानता हो और सर्वं खल्विदं ब्रह्म में अटूट विश्वास रखता हो, उस भारत को खंडों में नहीं, समग्रता में ही समझा जा सकता है। एकात्मता भारत का प्राण है। यहां व्यष्टि की नहीं, समष्टि की बात पहले होती है। 'मेरा कल्याण हो' ऐसी कामना करने की अपेक्षा 'विश्व का कल्याण हो' ऐसी कामना विरल तो है।

भारत सांस्कृतिक राष्ट्र है। इसकी राष्ट्रीयता का आधार राजनीतिक सत्ता न होकर सांस्कृतिक है। लेखक ने इसे 'राष्ट्रवाद' के स्थान पर 'राष्ट्रबोध' कहना अधिक उचित माना है।

"क्योंकि एक परंपरा, एक इतिहास बोध और एक समन्वयी संस्कृति पर आधारित यह राष्ट्रीय भावना कोई वाद नहीं है। इसका कोई प्रतिवाद भी नहीं होता। अन्य वादों की तरह यह किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रवर्तित नहीं है। यह तो एक वादातीत भाव होता है। अतः इसे राष्ट्रवाद कहकर किसी वाद के सांचे में डालना इसे बहुत छोटा करके देखना है।"

अथर्व में उसी राष्ट्र की उपासना का भाव मिलता है-
राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् तदस्मै देवाः उपसं नमन्तु ।

ऋग्वेद में कहा है-
यस्य इमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रंरसया सह आहुः।
यस्येंमे प्रदिशो यस्य तस्मै देवा हविषा विधेम।।

अर्थात् हिमवान हिमालय जिसका गुण गा रहा है, नदियों समेत समुद्र जिसके यशोगान में निरत है, बाहु सदृश दिशाएं जिसकी वन्दना कर रही है, उस राष्ट्र-देव को हम अपना हविष्य अर्पित करें।
इसी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के बल पर आसेतु हिमालय सब एक सूत्र में बंध पाए।

केरल का युवक बद्रीनाथ को तपस्थली चुनता है तो कश्मीर का साधक रामेश्वरम् के दर्शन पाकर स्वयं को भाग्यशाली समझता है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता का अनुभव, 'सियाराम मय सब जग जानि' का भाव इस राष्ट्र के किसी भी भाग में आप सहज रूप में पा सकते हैं। वस्तुतः यही भाव तो अध्यात्म है। एक सर्वव्यापी सत्ता का स्वीकार आपके मन में परायेपन का भाव आने ही नहीं देता।

यही भाव नामदेव को कुत्ते में भी ईश्वर का दर्शन करा देता है।

प्रभु घी तो लेते जाओ
रोटी रूखी तो न खाओ
कैसी शकल बनाई तुमने श्वान की
कण कण में है झांकी भगवान की

सामान्य बुद्धि भले इस पर खी खी हंस ले किंतु मानवीय बुद्धि का इससे उच्चतर विकास और क्या होगा जो आपको जड़-चेतन में ईश्वरीय अनुभूति करवा दे। फिर क्या मंदिर क्या मस्जिद? भक्तिकालीन भक्त कवियों ने इसी आध्यात्मिकता के बल पर विधर्मी अक्रांताओ के क्रूर आघात से बचने की शक्ति, भक्ति के रूप में समाज में प्रसारित की। भक्ति से भीगे हुए उनके पद आज श्रेष्ठतम काव्य बन गए और भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल ।

धर्मेतर अध्यात्म की चर्चा भी इन दिनों सुनाई दे रही है, जो धर्म और अध्यात्म को पृथक करने की हिमायती है। ऐसे विमर्शकारों का मानना है कि अध्यात्म के लिए धर्म गैर जरूरी है। भारत का एजेंडा लेखन जगजाहिर है। ऐसे एजेंडाधारियों को लेखक इन शब्दों में उत्तर देते हैं-

"उनकी चिंता धर्म प्राण शक्तियों के सत्ता का केंद्र बनने की है। ऐसे विमर्शकारों के लिए अनुकूल स्थिति वहां होती है जहां धर्म विरोधी अधार्मिक शक्तियां सत्ता के केंद्र बने। वे येन केन प्रकारेण ऐसा विमर्श खड़ा करना चाहते हैं कि भारतीय चित्त में सहज रूप से बसी हुई धर्म परायणता नष्ट हो जाए, परंतु उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि सनातन धर्म के सिद्धांतों से असहमति रखते हुए प्रारंभ हुई बुद्ध की आध्यात्मिक यात्रा भी धर्म चक्र प्रवर्तन और 'धम्मं शरणं गच्छामि' के बिना अपूर्ण रहती है।

विचारणीय है कि आध्यात्मिक और धार्मिक आचारों से मुक्त करने हेतु प्रस्तावित धर्मेतर अध्यात्म की अवधारणा उसे साधना का विषय में रहने देकर बौद्धिक विमर्श की निर्जीव वस्तु बना देती है। यहां यह बात भुला दी गई है कि अध्यात्म की भावना जब भी बौद्धिक विमर्श के क्षेत्र में अपनी असली जमीन साधना की भूमि पर आती है, वह स्वतः ही धर्मात्मक को जाती है। वस्तुतः भौतिकता से तृप्त तृप्त आंखों से अध्यात्म को देखने परखने की यही हास्यास्पद परिणति होती है।"

एक ऐसी ही अन्य सशे के सिर पर सींग जैसी भ्रांत धारणा 'सामासिक संस्कृति' की है। इनके मतानुसार आर्यों से लेकर अंग्रेजों तक अनेक जातियां यहां आई जिनके मेलजोल से एक मिश्रित संस्कृति का निर्माण हुआ। गंगा जमुनी तहजीब का बहुप्रचलित मुहावरा इसी धारणा की देन है।

विद्यानिवास मिश्र जी ने भी अपने एक निबंध में इस ओर संकेत किया कि भारतीय संस्कृति को उसके अतीत की अपेक्षा वर्तमान से पहचाना जाना चाहिए। विशालता भारतीयता की पहचान अवश्य है किंतु व्याख्या नहीं। वे कहते हैं-

"विशालता के प्रवाह में जब कोई निश्शेष समन्वय रहता है तो मुझे डर लगता है। लोग कहते हैं 'सामासिक संस्कृति' है। एक हद तक यह बात स्वीकार की जा सकती है।कबीर के शब्दों में-
हिंदू तुरुक दोऊ मरम न जाना।

पर यह कहना कि इसमें इतना फीसदी हिंदू तत्व है, इतना फीसदी इस्लाम तत्व है, इतना फीसदी बौद्ध तत्व है, इतना फ़ीसदी जैन तत्व है, इतना फ़ीसदी मार्क्स तत्व है, इन सबका योग, समास भारतीय संस्कृति है, तो यह बहुत गलत है।

कोई जानबूझकर कहे तो लगता है इसमें कोई बड़ी मक्कारी है। बिना जाने कहता है तो लगता है उसे समास का अर्थ मालूम नहीं। समास व्याकरण में योग नहीं होता, वह अपने घटकों से एकदम अलग होता है। ..समास का प्रयोजन है घटकों की भूमिका को कम करना, गौण बनाना।

भारतीय संस्कृति ने विशालता का अवगाहन करते समय हर विचारधारा की शक्ति को ग्रहण किया है जो इस विशालता के लिए प्राणों में आकुलता भर सके।.. भारतीय संस्कृति ने किसी विचारधारा के आगे समर्पण नहीं किया।"

अन्यान्य भारतीय संस्कृति के अध्ययनशील विद्वानों का भी यही मत है किंतु कैसे एजेंडा लेखन से मुहावरों का प्रचलन प्रारंभ होता है और उस भ्रम को समझदार लोग भी पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराते हैं इसका सटीक विश्लेषण और उसकी 'फ्लिप साइड' को विद्वान लेखक ने अपनी पुस्तक में बखूबी दर्शाते हुए यह सिद्ध किया है कि- "भारतीय संस्कृति का मूल स्वर एक है।"

'स्वतंत्रता की कसौटी और भारत बोध' में पन्द्रह अगस्त के गौरवानुभूति के क्षणों और देश भक्ति के तरानों से इतर मार्मिक पक्ष की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट किया गया है जिस ओर सामान्यतः हमारी दृष्टि नहीं जाती अथवा जान बूझकर हम उस ओर ध्यान नहीं देना चाहते, वह यह आत्मा को उद्वेलित करने वाला प्रश्न कि हजारों वर्षों से अखंडित रहते आए हम सहसा इस दिन खंडित क्यों हो गए?

बंग-भंग के बाद उठे जिस सांस्कृतिक एकता के स्वर ने अंग्रेजों के पांव पीछे कर दिए वह स्वर पंद्रह अगस्त को मौन क्यों हो गया?

" क्या यह संस्कृति राष्ट्रवाद के शव पर राजनीतिक राष्ट्रवाद के बैताल के वीभत्स नर्तन का स्वर नहीं था?"

राजनीतिक राष्ट्रवाद और भारत के एकात्म मानववादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मध्य भेद समझे बिना अनेक सतही और भ्रांत धारणाओं का जन्म होता है जिनका निवारण सहज, सरल शब्दों में इस अध्याय में मिलता है।

आज विश्व में हर तरफ एक ही राग है - विकास विकास विकास। कौन देश कितना बड़ा सेठ है इसकी एक ही कसौटी निर्धारित है-किसने कितना विकास किया? किंतु यह विकास शुद्ध विकास है किंवा विनाश की कीमत पर विकसित हुआ है। दूसरे पक्ष की बात करने के लिए कोई राजी नहीं।

"विकास के उच्चतम बिंदुओं को स्पर्श करने की आपाधापी में हमने कितने पर्वतों को चूर चूर कर दिया, धरती को कितना खोखला कर दिया, नदियों में और हवा में कितना जहर भर दिया, कितने जंगल बर्बाद कर दिये, इसका भी तुलनात्मक आकलन होना चाहिए। "

विकास के नाम पर परमाणु के पहाड़ पर बैठा व्यक्ति 'Other is hell' मानकर प्रकृति और प्राणिजगत का विनाश करके दर्पदीप्त आंखों से स्वयं को विजेता घोषित कर रहा है । ऐसे समय में भारतीय दृष्टि में विकास के क्या मानदंड हैं, उन पर भी पुस्तक के एक अध्याय में विस्तृत चर्चा की गई है।

भाषा, भक्ति, पर्व और अर्थायाम के अतिरिक्त विवेकानंद, निराला, गोलवलकर तथा दीनदयाल उपाध्याय से नई दृष्टि से रूबरू होने का अवसर यह पुस्तक अपने पाठक को प्रदान करती है।
हिंदुत्व एवम् उसके एकात्म मानव दर्शन को समझने के लिए मुझे इससे सरल और सहज भाषा कहीं न मिली।

हिंदुत्व, राष्ट्र, धर्म और संस्कृति इत्यादि अन्यान्य जटिल विषयों को बोधगम्य बनाकर पाठकवर्ग की अनेक दृढ़मूल भ्रांतियों का निवारण इस पुस्तक में किया गया है।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः को सार्थक करती हुई लेखक की भाषा का प्रवाह सामान्य तथा गहन अध्ययनशील दोनों प्रकार के अध्येताओं के लिए उपयोगी है।

उपर्युल्लिखित समस्त उद्गार एक पाठक के रूप में किंतु एक विद्यार्थी के रूप में तो इंदुशेखर तत्पुरुष जी सर का अभिनंदन कि जिनके इस विषय पर लेखन से सांस्कृतिक भारत की खोज का मार्ग प्रशस्त होता है और एक नई दृष्टि का आरंभ।

नीलू शेखावत