नीलू की कलम से : धर्म

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तुलसी को बचाने के लिए मनुवादियों ने जानबूझकर ऐसी साखियां बनाई ताकि कोई तुलसी पर उंगली उठाए तो कबीर का नाम उछाल दिया जाए

समाज को चाहिए कि सब मिलकर एक 'नेताचरित मानस' का निर्माण करे और नित्य उसका पाठ करें जिससे समाज में फैली 'हिंसा' और 'नफरत' का नाश हो

अब उस नजरिए से धर्म शास्त्र पढ़ने बैठे तो पता चला की यहां तो मूल में ही डिस्क्रिमिनेशन भरा पड़ा है। आइए एक-एक करके इनकी बखिया उधेड़ लेते हैं-

बचपन से गीता, मानस, महाभारत पढ़ते रहे हम रट्टू तोते की तरह पर अब तक कोई दृष्टि न पाई। धर्म की अफीम ने कुछ सोचने ही न दिया। वो तो भला हो बिहार के माननीय सिच्छामंतरी जी का कि हम जैसी नादान स्त्रियों को नई दृष्टि प्रदान की।
अब उस नजरिए से धर्म शास्त्र पढ़ने बैठे तो पता चला की यहां तो मूल में ही डिस्क्रिमिनेशन भरा पड़ा है। आइए एक-एक करके इनकी बखिया उधेड़ लेते हैं-
बात धर्म की हो रही तो शुरुआत धर्म से ही कर लेते हैं। विवाद की जड़ ही धर्म है तो हमने सोचा पहले जान तो लें कि धर्म किसको बोलते हैं ये लोग। मैंने धर्म के दस लक्षण पढ़े तो सन्नन्न्न रह गई-

"ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त ही धर्म है।"
 आप गौर कीजिए इन दस लक्षणों में सात पुरुष वाचक है। पुरुष का वर्चस्व यहीं से आरंभ होता है।
सृष्टि को व्याख्यायित करने के लिए भी पुरुष सूक्त। कोई इनसे प्रश्न करे कि स्त्री सूक्त क्यों नहीं?

पुरूष सूक्त का एक श्लोक उदाहरण स्वरूप लेती हूं-
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । 
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥
यहां शीर्ष पर आकाश(पुरूष) और पांवों में भूमि (स्त्री)। धर्म के नाम पर इससे बड़ा भेदभाव कहां मिलेगा?

गीता के कृष्ण भले प्रकृति और पुरूष की बात थोड़ी देर के लिए कर लेते हैं,पर चूंकि प्रकृति पुरूष पर भारी पड़ने लगी तो उसे भी तीन भागों में बांट दिया। सात्विक,राजस और तामस।
फिर कह दिया - ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था..

क्या इसमें एलीट स्त्रियों की झलक नहीं जिन्हें एलीट का मुलम्मा चढ़ाकर सर्व साधारण स्त्रियों से दूर रखा गया?
अब आइए शंकर पर जिनका नाम लेकर हिंदुत्व की डींग हांकी जाती है।
वैराग्य का उपदेश देते हुए वे कहते हैं-
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥
यहां फिर इन्होंने आशा (स्त्री) को निशाना बनाया और उसे नष्ट करने की बात की। मैं पूछती हूं हर बार स्त्री ही क्यों नष्ट हो। यह कैसा पोंगा पंथी धर्म है जो स्त्री को सदैव ही हेय दृष्टि से देखा करता है।

एंड फॉर गॉड सेक यह मत कहिए कि दिगंबर जैन  स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी नहीं मानते क्योंकि वह वस्त्र नहीं त्यागती या बुद्ध स्त्रियों के संघ प्रवेश के हिमायती न थे क्योंकि इससे संघों में व्यभिचार फैलने की आशंका थी। कबीर की ये पंक्तियां तो बिलकुल कोट न कीजिए-

नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग।
कबिरा तिन की कौन गति, जो नित नारी संग।।
कबीर नारी की प्रीति से, केटे गये गरंत।
केटे और जाहिंगे, नरक हसंत हसंत।।
कबीर मन मिरतक भया, इंद्री अपने हाथ।
तो भी कबहु ना किजिये, कनक कामिनि साथ।।
कलि मंह कनक कामिनि, ये दौ बार फंद।
इनते जो ना बंधा बहि, तिनका हूँ मै बंद।।

क्योंकि तुलसी को बचाने के लिए मनुवादियों ने जानबूझकर ऐसी साखियां बनाई ताकि कोई तुलसी पर उंगली उठाए तो कबीर का नाम उछाल दिया जाए।
यह तो झलक मात्र है।

मानस की सचाई माननीय ने बता ही दी। जब तक ऐसे नफरती धर्मग्रंथ घरों में रहेंगे, नेता-जनता की लड़ाई चलती रहेगी,समाज का सौहार्द्र बिगड़ता रहेगा। इसलिए समाज को चाहिए कि सब मिलकर एक 'नेताचरित मानस' का निर्माण करे और नित्य उसका पाठ करें जिससे समाज में फैली 'हिंसा' और 'नफरत' का नाश हो।

"अरे अरे! आपने तो खुद दो स्त्रियों के नाश की बात कह दी!"

"यही,यही तो ब्राह्मणवादी संस्कार है जो हमारे भीतर गहरे उतर चुके हैं,जिनसे हमें पार पाना है। दुनिया के ब्राह्मण विरोधियों! सब एक हो जाओ।"

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