नीलू की कलम से: गोपी गीत
आनंद के दो रूप है त्याग और तृप्ति। कृष्ण की प्रेप्सा ने आनंद का दूसरा रूप चुना । अन्नमय देह के त्याग से मनोमय देह में अभिगमन। जीवनभर जिस मनोरथ को पाला उसके साफल्य में गोपी को कोई विघ्न मंजूर नहीं!
दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंॾ्मारुणम् ।
वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्।।
कान्हा का वेणु नाद और गोपांगना ठहर पाए! संभव ही नहीं।करधनी की कड़ियां जुड़ने से पूर्व ही छूट गई, टप्पे खाते हुए मोती घर के चौक तक आ गए।
वस्त्रों को यथास्थान धारण नहीं कर पा रहीं ललनाएं, अंजन की तूलिका होंठों पर फिरने लगी और लाली नयनों की ओर। जलापूरित घट हाथों से छूट रहे हैं और बछड़ों की रज्जूएं हाथों से फिसल रही हैं।
करील में अटकी चुनरी को छुड़ाने की फुरसत किसे? वे चकित मृगियों की तरह अपनी समस्त श्रवण संवेदियों को कुंजों की ओर मोड़ देती हैं। यह प्लुत ध्वनि हर बार सी नहीं न ही आज का चंद्रमा सदा सा।
रात्रि शांत होकर भी तरंगायित,चांदनी श्वेत होकर भी कृष्णमय,शारदीय शीतलता में अंतरंग उत्ताप ।माधव! यह कैसा विरुद्ध मिश्रण!
ललिता, विशाखा, रूपमंजरी, अनंगमंजरी आदि सखी-सहचरी नित्यसिद्धा हैं, कुंजों की ओर बढ़ती है ,श्रीराधा तो भगवान की आह्लादिनी शक्ति ही है,उन्हें तो कोई रोक ही नहीं सकता पर साधनसिद्धा गोपांगना क्या करे?
आँखें मूँदकर उन प्रियतम श्रीकृष्ण की भावना से भावित होकर तन्मयता से उनके सौन्दर्य-माधुर्य और मधुरतम लीलाओं का ध्यान करने के अतिरिक्त विकल्प नहीं, पर कान्हा तो कान्हा! ब्रज का कौन कोना कृष्ण विहीन होगा भला?
आनंद के दो रूप है त्याग और तृप्ति। कृष्ण की प्रेप्सा ने आनंद का दूसरा रूप चुना । अन्नमय देह के त्याग से मनोमय देह में अभिगमन। जीवनभर जिस मनोरथ को पाला उसके साफल्य में गोपी को कोई विघ्न मंजूर नहीं!
वह गोपी होकर भी गोपन नहीं जानती यही उसकी दुर्बलता है। इन श्वेताभिसारिकाओं ने डंके की चोट कान्हा से प्रेम किया है,आज बुलावे की तान पर रुक कैसे जाए?
सर्वस्व त्यागकर गोपांगनाओं ने मिलन की तृप्ति पाई है और तृप्ति तो अभिमान के लिए अवकाश छोड़ ही देती है। कान्हा को एक बार फिर दूर जाने का बहाना मिल गया।
तुम्हारे बहानों का कोई सानी नहीं!हम सर्वस्व त्याग आईं और तुम अब भी हमारी "श्यान" लेने पर तुले हो? गोपी गीत के रूप में हृदय का सारा उबाल बाहर आ गया।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते
(देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं , वन वन में भटक कर तुम्हें ढूँढ रही हैं ।) तुम्हें किञ्चित लाज आती है?
हे हिंसक! वरद निघ्नतो नेह किं वधः (अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मारना हमारा वध करना नहीं है ?)
हे छली! तुम मात्र यशोधा के पुत्र नहीं हो जो जब चाहो राजपुरूष की भांति हमारे साथ छल कर जाते हो! कुछ तो अपनी प्रतिष्ठा का खयाल करो।तुम्हारा जन्म अपने परिवार के लिए नहीं,समस्त देहधारियों के लिए हुआ है।
कामात्क्रोधोऽभिजायते
कामना में विघ्न उपस्थित हो तो क्रोध आता है।
कृष्ण पर कुपित होने का यह अधिकार गोपियों को किसने दिया? प्रेम में कुछ भी प्रदत्त नहीं होता,सब कुछ अर्जित होता है और अर्जित पर अनुबंध क्योंकर लगे? कृष्ण उनकी निधि है,कृष्ण सर्वस्व है, स्वयं को मिटाकर उसे पाया है, उस पर क्रोध भी न करे?
क्रोध में व्यंग्य का सम्मिश्रण हो चला है। हे वीर तुम तो बड़े साहसी हो! कई असुरों का वध किया है,पर सच कहें ? ब्रज पर यह आफत तुम्हारे पीछे ही आई। हम सुकून से जीने वाले लोग थे,हमारे शांत जीवन में उद्वेलन तुम्हारी कृपा से ही आया।
और तुम्हारी दानवीरता! उसके बारे मे तो क्या ही कहें? ललचाकर ठेंगा दिखा देना कोई तुमसे सीखे।
हे कपटी! हम अपना घर बार छोड़कर तुम्हारे पास आईं,अब बताओ इतनी रात को कहां जाएं?
(कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि)
सारा उबाल बाहर आया तो सुध जगी कहीं कुछ अशुभ तो नहीं हो गया कान्हा के साथ। खीझ और नाराजगी अपनी जगह है पर फिक्रमंदी भी तो प्रेम ही के जिम्मे है,प्रेमास्पद के अतिरिक्त किसे होगी चिंता?
जैसा भी है पर है तो अपना। नासमझ है,भोला है,चाहे थोड़ा नटखट है पर कहीं घने वन में मार्ग भटक गया तो? उसके चरण कमल से भी कोमल हैं , कहीं उन्हें चोट न लग जाय ।
यहीं से उपजती है करुणा और फिर एक क्रंदन। टप टप आंसू की धार..तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो?
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः
"उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं !"
एक पुकार जो खीज से शुरू होती है, शनै: शनै: उसमें व्यंग्य, उपालंभ,आक्षेप जुड़ते जाते हैं,का विराम चिंता में होता है,फिक्रमंदी पूर्णविराम है। यह प्रेम ही है जो आपको अपने श्रद्धेय का भी संरक्षक बना देता है।
ऐसी स्तुति संसार में दुर्लभ है जहां ईश्वर की खिंचाई हो रही हो, उसे बार-बार कुटिल,कपटी कहकर बुलाया जा रहा हो और ईश्वर चुपचाप अपना सा मुंह लेकर चला आया हो। यही गोपी है और उसका गीत है।
भले आप गोपी न हों,भले आपके प्रेमास्पद कृष्ण न हो,भले आप ब्रज में न हों पर एक बार गोपी गीत सुन लें और आपका हृदय द्रवित न हो यह संभव नहीं। क्योंकि गोपी होना सर्वस्व मिटा देने का नाम है।