जालोर: ऋषि जाबालि एवं योगीराज जालंधरनाथजी की तपोभूमि है जाबालीपुर

जालौर एक प्राचीन नगर है, जिसे प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में जाबालीपुर, जालंधर आदि नाम से अभिहित किया गया है ।

जालौर एक प्राचीन नगर

जालौर | जालौर एक प्राचीन नगर है, जिसे प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में जाबालीपुर, जालंधर आदि नाम से अभिहित किया गया है । इतिहासकार डॉ उदयसिंह डिंगार के अनुसार ऋषि जाबाली के तपस्या स्थल होने से इसका नाम जाबालीपुर एवं योगीराज  जालंधरनाथजी की तपोभूमि होने के कारण जालंधर या जालंधरपुर के नाम से भी जाना जाता था।  इसके नामकरण की यात्रा पर दृष्टिपात से जाबालिपुर, जालंधरपुर, जालन्धर ,जालहुर एवं जालौर  नामकरण होना प्रतीत होता है।  

यहां कंचन पर्वत पर निर्मित प्राचीन किला कंचन दुर्ग (स्वर्णागिरी दुर्ग ) भी कहलाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार महाराज मनु के 9 पुत्रों में से चतुर्थ पुत्र ने इस क्षेत्र में अपना शासन स्थापित किया था। इसी प्रकार भगवान राम के वंश इक्ष्वांकु वंश  का भी यहां राज होने के संकेत मिलते हैं। महात्मा बुद्ध के काल में यह क्षेत्र अवंती (उज्जैन) के अधीन रहने एवं मौर्य शासको के भी इस भू भाग पर अधिकार होने का इतिहास पाया जाता है । 

जालोर का श्रीमालनगर 

गुप्तों के पश्चात इस क्षेत्र पर गुर्जर राष्ट्र का भी अधिकार रहा। चावडा राजाओं के शासनकाल में यहां के प्रसिद्ध नगर श्रीमाल (भीनमाल) में महाकवि माघ हुए थे। प्रतिहार, परमार ,चालुक्य, चौहान एवं राठौर राजवंशों का इस क्षेत्र पर समय-समय पर अधिकार रहा । डॉ दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम की राजधानी होने का भी जालौर को गौरव प्राप्त है।  संभवतया यहा कंचन दुर्ग( स्वर्णागिरी दुर्ग) का निर्माण भी उनके द्वारा ही करवाया गया होगा । 

जालोर पर चौहान वंश का राज 

कालांतर में नाडोल के चौहान शासक कीर्तिपाल ने सन 1181 ईस्वी में स्वर्णागिरी (जालौर )पर अधिकार कर अपनी राजधानी स्थापित करने के कारण यहां के प्रवृत्ति चौहान स्वर्णगिरा चौहान कहलाए, जिन्हें सोनिगरा चौहान कहा जाता है। सन 1298 ईस्वी में दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी की सेना को यहां के शासक कान्हड़देव सोनीगरा चौहान ने धूल चटाई थी।  

अलाउद्दीन खिलजी का जालोर पर आक्रमण

समयांतर बाद अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने  फिर से जालोर पर आक्रमण किया था। खिलजी सेना द्वारा लगातार आक्रमणों का यहां के रणबांकुरो ने  डटकर मुकाबला करते हुए बलिदानों का इतिहास रचा । वीरता एवं शहादत के प्रतीक शासक कान्हड़देव एवं युवराज वीर शिरोमणि वीरमदेव सोनीगरा समेत अनेक योद्धाओं ने  खिलजी सेना से घमासान युद्ध करते हुए लहूलुहान वीरगति प्राप्त की थी , साथ ही हजारों ललनाओ ने जौहर की धधकती ज्वाला में कूदकर अविस्मरणीय जोहर का अनुष्ठान किया था। 

लहूलुहान शहादत का रोंगटे खड़े करने वाले बलिदान के बाद  सन 1311 ईस्वी में अलाउद्दीन ख़िलजी का जालौर पर अधिकार हो सका था। यह उक्ति प्रसिद्ध रही है:-

आभ फटे धर उत्पथे ,टूटे बख्तरा  कौर।
 सिर कटे धड़ तड़फड़े , जद छूट जालौर।।

राजा रतनसिंह को चमत्कार

यह धरती वीरभूमि के साथ ही महान तपस्या स्थली एवं तपोभूमि जालौर के कलसाचल पहाड़ी पर अति प्राचीन सिरे मंदिर स्थित है। यह स्थान योगीराज जालंधरनाथजी  की तपोभूमि है, जिनके नाम पर जालौर को पहले जालंधरपूर भी कहा जाता था। योगीराज जालंधरनाथजी ने परमार राजा रतनसिंह को चमत्कार दिखाने की कहानी भी पाई जाती है। 

राजा रतनसिंह द्वारा स्थापित शिव मंदिर आज भी रत्नेश्वर महादेव के नाम से कलसाचल पहाड़ी पर सिरे मंदिर के पास ही स्थित है । सिरे  मंदिर से जुड़ी जन श्रुतियों के अनुसार सन 1803 ईस्वी में योगीराज आयसदेवनाथजी द्वारा भटकते जोधपुर के राजा मानसिंह को आशीर्वाद दिया गया था, कि वह जोधपुर के शासक बनेंगे । 

राजा मानसिंह को आशीर्वाद

ऐसा माना जाता है कि योगीनाथजी के आशिर्वाद से विपरीत परिस्थितियों में मानसिंह जी को जोधाणा (जोधपुर )की राजगद्दी मिली थी | यह भी कहा जाता है कि सिरे मंदिर जालौर में एक बार किसी बड़े उत्सव के दौरान जल स्रोतों में जल लुप्त हो गया था, तब यहां के  योगीराज पीर शांतिनाथजी महाराज द्वारा तपोबल से पुनः जल स्रोतों में जल भरने की कहानी भी जनमानस में प्रचलित रही है। 

अस्तु सनातन संस्कृति की तपोभूमि, धार्मिक नगरी एवम् वीरों के अदभुत बलिदान की प्रतीक  जालौर की भूमि  अपने आंचल में त्याग ,तपस्या ,अध्यात्मिकता, एवम् शहादात का गोरवशाली इतिहास में समेटे हुए हैं। 

डॉ उदय सिंह डिगार, प्रांत उपाध्यक्ष, भारतीय इतिहास संकलन समिति।