नीलू की कलम से: मुकातो 

मारवाड़ी बोलना गलत है तो घर,परिवार और समाज बोलता क्यों है? हिंदी बोलना ही अच्छा है तो किसीने अब तक सिखाई क्यों नहीं? पर पूछती किससे? 'बल बिना बुद्धि बापड़ी' होती है।  

मुकातो 

यह बात तब की है जब मैं कोई दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ रही होऊंगी। तब सरकारी स्कूल सचमुच में सार्वजनिक होते थे। एक नामांकित बच्चे के साथ कितने भी अनामांकित मासी,चाची, बुआ के बच्चे स्कूल चले आ सकते थे।

मैं बचपन में ननिहाल में पढ़ती थी इसलिए जब भी मेरी मां या मौसी ननिहाल आतीं, उनके बच्चे भी मेरे पीछे कर दिए जाते ताकि घर में उधम न मचाए।

मेरी मौसेरी बहन नीतू मेरी हमउम्र थी इसलिए वह मेरे साथ मेरी कक्षा में ही बैठती।नीतू जयपुर की रहने वाली थी सो हमारी तरह जमीन कुचरने वाली या सरम-संकोच में रहने वाली 'घोंचू' नहीं थी।

राजस्थान में एक कहावत है कि-"गूंगा भी जयपुर की दो चमची दाल खा ले तो बोलने लगता है।"

शायद इसीलिए कहते हैं- "नहीं देख्यो जेपर्यो, जग में आर के कर्यो।"

खैर नीतू हिंदी भी फर्राटेदार बोलती थी। महीने भर बाद जब वह अपने घर गई तो उस गांव के सरकारी स्कूल में अपनी काफी सारी फैन फॉलोइंग छोड़ गई। मैडमें भी परिचित हो चलीं।
एक रोज मैडम ने पूछा- "तेरी बहन स्कूल क्यों नहीं आ रही?"

मैंने अपनी मारवाड़ी का त्वरित हिंदी रूपांतरण करते हुए कहा- "वो आपके  गांव गई!"
(बा आपके गांव गई।)

चटाक! एक चांटा गाल पर पड़ा और मैडम आंखें तरेरती हुई बोलीं- "उसके साथ रहकर थोड़ी बहुत हिंदी तो सीख लेती गंवार!"

इधर मैं हतप्रभ! मुझसे गलती कहां हुई? मारवाड़ी बोलना गलत है तो घर,परिवार और समाज बोलता क्यों है? हिंदी बोलना ही अच्छा है तो किसीने अब तक सिखाई क्यों नहीं? पर पूछती किससे? 'बल बिना बुद्धि बापड़ी' होती है।  

मैंने अपना मुंह सिल लिया। इस घटना के बाद जब भी मैडम कक्षा में कोई प्रश्न पूछती, मैं उसका उत्तर जानते हुए भी बस गर्दन झुका कर खड़ी हो जाती,सजा में थप्पड़, डंडा जो मिलता,चुपचपा खा लेती।

घर में जिस बच्चे को वाचलता के कारण 'वकील साहब' कहा जाता था,स्कूल का 'घोंचू' कहलाया।

परीक्षाओं के समय मैं पढ़ने के बाद अक्सर किताब लेकर घरवालों के आगे-पीछे भागती- "लो मुझे पूछ लो,मुझे सब याद है।"

एक रोज मेरी मासी ने विज्ञान की किताब से प्रश्न पूछा- चा‌क पानी में तैरती क्यों है?

उत्तर- "क्योंकि वह मायने (अंदर) से थोथी होती है और....." मैं वाक्य भी पूरा नहीं कर पाई कि सब तरफ  एक ठहाका गूंज उठा।सबने एक स्वर में कहा- "यह क्या खाक होशियार है,ठीक से हिंदी नहीं बोल पाती।"

एकमात्र मेरी नानी ने बहुमत के खिलाफ घोषणा की कि हिंदी होशियारी का पैमाना नहीं, बिना हिंदी के भी अप्सर बनेगी अप्सर।"

उस दिन के बाद मैं समझ गई कि हिंदी में मेरा हाथ 'महातंग' है लिहाजा मैं कभी कोई 'बड़ा आदमी' नहीं बन पाऊंगी। हिंदी बोल पाना मेरे लिए हमेशा एक सपना रहा।हिंदी बोलने वालों को मैं अतिमानव समझकर टकटकी लगाकर देखती।

 यद्यपि समय के साथ मैंने स्वयं को और समाज की इस धारणा को झूठा साबित किया पर एक अनुत्तरित प्रश्न आज भी नहीं सुलझा पायी कि भाषा विशेष के बोलने से ही कोई कैसे सभ्य या असभ्य हो जाता है ?

आज प्रत्येक राजस्थानी परिवार के बच्चों से यत्नपूर्वक राजस्थानी छुड़वाई जा रही है क्योंकि राजस्थानी बोलने से बच्चा गंवार लगता है।किताब कागज से तो उसे पुश्तों पूर्व गायब कर ही दिया गया था।

कुछ दिन पूर्व एक शिक्षा विभाग की प्रिंसिपल मुझे कहती हैं कि इस नौकरी से पहले उसकी जबरदस्त पर्सनेलिटी थी पर यहां आकर सब 'गुड़ गोबर' हो गया। मैं बोली- "मैम आपको तो कुर्सी से हिलना भी नहीं पड़ता,अफसर की कुर्सी पर गुड़ गोबर कैसे हुआ?"

कहने लगीं- "मेरी लैंग्वेज बिगड़ गई,गांव के लोगों के साथ हिंदी चल ही नहीं पाती,'इन्हींकी भाषा' में सिर खपाना पड़ता है।"

मैं अवाक! अब अपनी ही भाषा पर्सनेलिटी डाउन करने लगे तो क्या कीजिएगा?

यह जहर कब बोया गया,हम नहीं जानते पर जिसने भी बोया उसे पाप लगे;ठीक वैसा ही जैसा दुधमुंहे बच्चे से मां का आंचल छुड़वाने वाले को लगता है।

हे हमारे समदृष्टा माननीयों! आप देख रहे हैं ना आपके उदार हृदय का वितान? इसकी जहरीली छांव ने हमारी भूमि बंजर कर दी। अपना घर उजाड़कर औरों का घर बसाने वाले समझदार नहीं कहे जाते।

एक लोक कथा याद आ रही है। एक सियार  था। बड़ा ही परोपकारी।जंगल में किसी का भी घर बनता तो 'लपड़पंच' बनकर खड़ा हो जाता पर उसके अपने बच्चे मारे-मारे फिरते;कभी अपना घर न बनाता। एक समझदार लोमड़ी समझाती,- "एक अपना घर क्यों नहीं बना लेते?"

सियार हूंककर कहता- "सारा जंगल अपना ही घर है।"

एक रोज मूसलाधार बारिश बरसी।सियार सिर छिपाने के लिए यहां-वहां दौड़ा पर कहीं आश्रय न मिला। अंत में एक शेर की मांद में घुसा।बारिश में भीगता-भागता शेर भी अपनी मांद में लौटा।पहले से उपस्थित शख्स को देख शेर गुस्सा गया।उसने सियार की पूंछ खींची। सियार जोर से चिल्लाया - "लूंका लूंका लोई! पूंछ खींच' कोई?"

लोमड़ी बोली- "स्याळजी नणदोई! ऐ तो मुकाताळा होई।"
(अरे लोमड़ी! देख तो जरा,मेरी पूंछ कौन खींच रहा है? लोमड़ी बोली ननदोई जी ! मुकाता लेने वाले आए हैं।)

हुक्मरानों के प्रमाद या प्रलोभन का मुकाता संतानें कब तक चुकाए? हमें अपनी भाषा चाहिए,वह भी ससम्मान।

- नीलू शेखावत