Highlights
- भरत सिंह कुंदनपुर का 75 वर्ष की आयु में निधन, राजस्थान की राजनीति में एक युग का अंत।
- अपनी ही सरकार के खिलाफ बेबाकी से बोलने और 'मुंडन' करवाकर विरोध दर्ज कराने के लिए प्रसिद्ध।
- चार बार विधायक और मंत्री रहते हुए भी सादगी और जनसेवा को प्राथमिकता दी।
- सर्वश्रेष्ठ विधायक और सर्वश्रेष्ठ पंचायत मंत्री के पुरस्कार से सम्मानित, विरोधियों द्वारा भी ईमानदारी की सराहना।
- अपने पैतृक गाँव में 15 बीघा ज़मीन अस्पताल और सामाजिक कार्यों के लिए दान की।
राजस्थान की राजनीति में एक ऐसा नाम, एक ऐसी पहचान, जिसने सत्ता के गलियारों में भी सिद्धांतों की मशाल जलाए रखी, अब हमारे बीच नहीं है। हम बात कर रहे हैं भरत सिंह कुंदनपुर की, जिन्होंने बीते सोमवार को जयपुर के एसएमएस अस्पताल में 75 वर्ष की आयु में अपनी अंतिम साँस ली।
साँस की लंबी बीमारी से जूझते हुए इस जुझारू नेता का निधन राजस्थान कांग्रेस के लिए एक गहरा आघात है, खासकर रामेश्वर डूडी और अश्क अली टाक जैसे नेताओं के बाद यह तीसरी बड़ी क्षति है।
लेकिन भरत सिंह सिर्फ एक नेता नहीं थे; वे एक विचारधारा थे, एक आंदोलन थे, ईमानदारी की एक जीती-जागती मिसाल थे, जिनकी विरासत युगों-युगों तक प्रेरणा देती रहेगी।
स्वतंत्रता दिवस पर जन्म, निडरता की नींव
भरत सिंह कुंदनपुर का जन्म 15 अगस्त, 1950 को हुआ था – स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर, मानो नियति ने पहले ही उनके भीतर आज़ाद ख्यालों और निडरता की नींव रख दी थी। उनका राजनीतिक सफर किसी ऊँचे पद से शुरू नहीं हुआ, बल्कि ज़मीन से जुड़ा था।
उन्होंने तीन बार सरपंच का पद संभाला, दस साल तक सांगोद पंचायत समिति के प्रधान रहे, और यहाँ तक कि 2014 से 2019 तक अपनी ही कुंदनपुर ग्राम पंचायत के वार्ड पंच भी चुने गए। यह दर्शाता है कि एक व्यक्ति जो मंत्री पद संभाल चुका हो, वह वापस सबसे छोटे पद पर आकर भी जनता की सेवा करने में कोई संकोच नहीं करता। उनकी यह सादगी और समर्पण आज की राजनीति में दुर्लभ है।
विधायक से मंत्री तक का सफर, सिद्धांतों से समझौता नहीं
भरत सिंह कुंदनपुर चार बार राजस्थान विधानसभा के विधायक रहे – दसवीं, बारहवीं, तेरहवीं और पंद्रहवीं विधानसभा में। उन्होंने अशोक गहलोत सरकार में ग्रामीण विकास एवं पंचायत राज के साथ-साथ सार्वजनिक निर्माण विभाग जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी संभाले। लेकिन उनके लिए पद केवल ज़िम्मेदारी थी, ताक़त का दिखावा नहीं।
उनकी रुचि केवल राजनीति तक सीमित नहीं थी; वे कृषि, चित्रकला, फोटोग्राफी और पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी गहरी संवेदना रखते थे। यही वजह थी कि उन्हें वर्ष 2007 में, जब राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार थी, सर्वश्रेष्ठ विधायक का प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला।
और जब वे पंचायत राज मंत्री थे, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ पंचायत मंत्री के रूप में सम्मानित किया था। यह सम्मान केवल उनके काम के लिए नहीं, बल्कि उनके अडिग चरित्र और बेदाग ईमानदारी के लिए भी था।
बेबाकी और विरोध का 'मुंडन'
उनकी बेबाकी की कहानियां आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। वे अपनी ही सरकार के खिलाफ बोलने से कभी नहीं कतराए, चाहे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हों या कोई और मंत्री। गहलोत सरकार के तीसरे कार्यकाल में, उन्होंने तत्कालीन मंत्री प्रमोद जैन भाया पर भ्रष्टाचार और अवैध खनन के गंभीर आरोप लगाए थे।
अपनी बात मनवाने और जनता के हक की लड़ाई के लिए, उन्होंने अपने ही दल की सरकार के खिलाफ 'मुंडन' तक करवा लिया था। जी हाँ, सिर मुंडवाकर विरोध दर्ज कराया था! यह साहस, यह निडरता, राजनीति में बहुत कम देखने को मिलती है।
वे हमेशा जल, जंगल और ज़मीन के संरक्षण की बात करते रहे। बारां जिले के सोरसन वन क्षेत्र में गोडावण के पुनर्वास से लेकर, नरेश मीणा के पीपलोदी हादसे में मारे गए बच्चों को इंसाफ दिलाने वाले आंदोलन तक, उन्होंने हमेशा जनता के हक की आवाज़ बुलंद की, भले ही वे अस्पताल के बिस्तर पर क्यों न हों।
विरोधियों में भी सम्मान
भरत सिंह कुंदनपुर की ईमानदारी और स्पष्टवादिता के कायल उनके राजनीतिक विरोधी भी थे। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उनके निधन पर गहरा दुख व्यक्त करते हुए उन्हें "बेबाकी और ईमानदारी की मिसाल" बताया। लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला ने उन्हें "जन-जन का नेता" कहा।
सांगोद विधानसभा से उनके सामने तीन चुनाव लड़ने वाले हीरालाल नागर ने भी उनकी साफगोई को सराहा, "हीरालाल नागर हो, चाहे अशोक गहलोत... जो कहना मुंह पर कहना, खरा कहना।
उनकी इस साफगोई का मैं शुरू से कायल रहा।" यह दिखाता है कि भरत सिंह कुंदनपुर ने केवल चुनाव नहीं जीते, बल्कि लोगों के दिलों में भी जगह बनाई।
अधूरी इच्छाएं और अमर विरासत
उनकी कुछ इच्छाएं अधूरी रह गईं, जैसे काली सिंध नदी के किनारे बसे गाँव खान की झोपड़ियां को बारां जिले से हटाकर कोटा जिले में शामिल करवाने की उनकी मुहिम। लेकिन उनकी सबसे बड़ी विरासत उनके सिद्धांत थे।
उन्होंने अपने पैतृक गाँव कुंदनपुर में स्वयं के खाते की 15 बीघा ज़मीन अस्पताल और सामाजिक कार्यों के लिए दान कर दी – एक ऐसा कदम जो केवल निस्वार्थ जनसेवक ही उठा सकता है।
2023 के विधानसभा चुनाव से पहले, उन्होंने अपनी "विधायक के रूप में अंतिम चिट्ठी" लिखी थी। उसमें न कोई शिकवा-शिकायत थी, बस एक नम्र धन्यवाद – "मेरे आलोचकों का भी आभार।" ये शब्द उनके विराट व्यक्तित्व का प्रमाण हैं।
उनके परिवार पर लगे आरोपों पर भी, उनका रुख स्पष्ट था: "मैं जांच का स्वागत करता हूँ, लेकिन प्रशासन राजनीति से प्रेरित होकर कार्रवाई न करे।"
एक युग का अंत, एक प्रेरणा का उदय
भरत सिंह कुंदनपुर, एक ऐसे सितारे थे जो ज़मीन से जुड़े रहे। उन्होंने कभी आसमान छूने की कोशिश नहीं की, लेकिन अपनी जड़ों से इतनी गहराई से जुड़े रहे कि उनकी चमक दूर-दूर तक फैली।
वे उन गिने-चुने चेहरों में से एक थे, जो राजनीति में सच्चाई को जिंदा रखने में कामयाब रहे। उनका जाना, राजस्थान की राजनीति में एक युग का अंत है।
वे हमें सिखा गए कि असली ताकत पद में नहीं, सिद्धांतों में होती है। असली जीत चुनाव में नहीं, जनता के विश्वास में होती है। और असली विरासत, धन-दौलत में नहीं, बल्कि उन मूल्यों में होती है जिनके लिए आपने अपना जीवन जिया।
उनकी कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या आज भी हम ऐसे नेताओं की उम्मीद कर सकते हैं, जो सत्ता की चमक से दूर, जनता की आवाज़ बनकर खड़े हों। उनकी ज़िंदगी हमें प्रेरणा देती है कि एक व्यक्ति, अपने मूल्यों पर अडिग रहकर, समाज में कितना गहरा और सकारात्मक बदलाव ला सकता है।
भरत सिंह कुंदनपुर का पार्थिव शरीर भले ही अब हमारे बीच न हो, लेकिन उनकी ईमानदारी, बेबाकी और निस्वार्थ सेवा की भावना अमर है। वे इतिहास के उन पन्नों में हमेशा जीवित रहेंगे, जहाँ सच्चे जनसेवकों की गाथाएँ लिखी जाती हैं।