Highlights
टिप्पी आर्किड का स्वर्ग है। सुना है यहां एक आर्किड रिसर्च सेंटर और संग्रहालय भी है जिसे हमने नहीं देखा क्योंकि न हमने आने से पहले टूरिस्ट प्लेस गूगल किए न कोई गाइड किया, बस यूं ही गाड़ी ली और चल पड़े पर संग्रहालय में तो नमूने होंगे
एक लड़की खुशी से अपने फोन में अपने मारवाड़ी प्रेमी का फोटो दिखाती है जिससे भविष्य में विवाह करना चाहती है। हमारा पडौ़सी भूतपूर्व एमएलए का बेटा है। उसकी बहन का विवाह मारवाड़ी परिवार में हुआ है। अब वह बहन अपने भाई के घर भोजन नहीं करती क्योंकि उसका पितृपक्ष मांसाहारी है जबकि वह स्वयं अब वैष्णव है और शाकाहारी परिवार की कुलवधू
वृक्षों से ऊंचे शिखर हैं या शिखरों से ऊंचे वृक्ष, निश्चय कर पाना कठिन है। अपने स्थान से जिस शिखर को आप मेघों में विलीन पाते हैं, अगले ही घंटे आप स्वयं को उसी उत्तुंग शिखर पर पाते हैं किंतु पता चलता है कि फिर कोई शिखर आपसे उतनी ही ऊंचाई पर बादलों को चूम रहा है। यह ऊंचाई कहां जाकर खत्म होती होगी, मैं नहीं जानती मगर वतन की सीमा का एक ऊंचाई के बाद दम टूटने लगता होगा जहां हार खाकर आपको रुकना होता है अन्यथा ऊंचाई तो अंतहीन है।
इस ऊंचाई में हर वक्त जो आपके साथ है वह है बीआरओ, सीमा सड़क संगठन। कहते हैं कई कंपनियों के ठेकेदार आए और भाग गए। अंतिम मोर्चा बीआरओ ने संभाला और सफलता भी मिली। बीआरओ न होता तो ये गगनस्पर्शी पर्वत श्रृंखलाएं अनछुई रह जातीं, प्रकृति का कलरव अनसुना रह जाता और आंखों में कभी न अट सकने वाला सौंदर्य अनदेखा रह जाता।
मैं बात कर रही हूं अरूणाचल प्रदेश की जहां की पर्वत चोटियां सबसे पहले सूर्य की अरूण आभा से स्नान करती हुई कुटुम्ब की किसी मुखिया की तरह सम्पूर्ण भारत वर्ष को जगाती हैं- उठो, उठो भोर हो गई।
आसाम की ओर से भालूकपोंग के रास्ते अरुणाचल में प्रवेश करने के कुछ समय बाद ही मौसम बदलता नजर आता है।
यद्यपि वर्षा का आधिक्य आसाम में भी है किंतु इस बार मैंने यहां की जलवायु का नया रूप देखा। लगातार पांच छः दिनों तक पड़ने वाली धूप,गर्मी और उमस से परेशान तो हूं ही, चकित भी हूं । ऐसा ही मौसम रहना था तो राजस्थान क्या बुरा था। वैसे राजस्थान और आसाम कई बातों में जुड़वा लगते हैं। खेत, किसान और बैल दोनों के जनजीवन का अभिन्न अंग हैं।
अलसुबह लंबी रस्सी से बंधी गाय और खूंटे लेकर खेत में घूमता किसान और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चरती गाएं राजस्थान की याद दिलाती हैं। वही खेतों में खटता किसान, वही मालन की तरकारी की टोकरी, वही घास और लकड़ियों के भारे और वही उत्सवप्रियता।
उनिंदी आंखों से सुबह-सुबह छोटे-से मंदिर के आगे हाथ जोड़ता वृद्ध थानों पर नाक रगड़ते राजस्थानी से कितना मिलता है! दोनों स्थानों में अंतर तो असंख्य है किंतु समानताएं भी तो कम नहीं।
हालांकि इस बार राजस्थान में लू और गर्मी की जगह बारिश और तूफान ने लेकर कमोबेश आसाम जैसा माहौल बना ही दिया है और गर्मी के लिहाज से आसाम इस बार कुछ-कुछ 'राजस्थान' हो चला है। शायद इसीलिए अरुणाचल और अधिक अच्छा लगा इस बार।
बादलों की अठखेलियां देखनी हो तो इससे बेहतर स्थान बहुत कम ही होंगे। पंत की 'बादल' कविता आपके होठों पर सहसा बिखरने लगेगी-
कभी चौकड़ी भरते मृग-से
भू पर चरण नहीं धरते ,
मत्त मतगंज कभी झूमते,
सजग शशक नभ को चरते
अरुणाचल मतलब बादल,अरुणाचल मतलब बरखा, अरुणाचल मतलब प्रकृति, अरुणाचल मतलब पहाड़, अरुणाचल मतलब नदियां,अरुणाचल मतलब शांति, निस्सीम शांति।
ग़र फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त
हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त
अरुणाचल के अभी भी स्वर्ग बने रहने की भी अपनी कुछ वजहें है। एक तो भारत का सुदूर पूर्वी सघन वन और पर्वतीय प्रदेश किंतु इतना कारण नाकाफी है क्योंकि यही समांतर स्थितियां सुदूर उत्तर पर भी लागू होती हैं किंतु उत्तरी भारत के वन और पर्वतों की हमने क्या दुर्दशा की है पर्यटन के नाम पर, यह किसीसे छिपा न होगा।
हमने वहां की घाटियों को प्लास्टिक और कचरे से पाट दिया है। सड़कें ट्रैफिक से अटी पड़ी हैं और नदियों के किनारे गंदगी के ढेर ऊपर से ऊपर सर उठाते जाते हैं।
पर्यटकों के नाम पर जाहिलों की भीड़ उमड़ती है जो प्रकृति का नाश करने पर तुली हुई है किंतु अरुणाचल पर अभी देवकृपा है । जाहिल यहां भी पहुंचकर झरनों में प्लास्टिक तैरा रहे हैं किंतु अभी इनकी संख्या बहुत कम है। क्योंकि यहां प्रवेश के लिए आपको स्पेशल परमिट की आवश्यकता होती है।
फिर हिमाचल, उत्तराखंड की खुली सैर करने वाले उधर क्यों जाने लगे? भाषा, भोजन और दूरी इसमें अन्य बाधा है। तिस पर पूर्वोत्तर का प्रत्येक राज्य प्राकृतिक सौंदर्य से इतना संपन्न है कि वहां के लोगों को कहीं और जाने की आवश्यकता ही नहीं है। आसाम वाले गर्मी में जरूर ऊपर (पहाड़ों पर) खिसक लेते हैं।
भालूकपोंग अरुणाचल की देहरी है जिसके एक और आसाम है तो दूसरी ओर अरुणाचल। एक ही कस्बे में दो राज्यों का शासन। आसाम की जीया भराली नदी अरुणाचल में कामेंग। यहीं से बुद्धिज़्म का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होने लगता है। तोरण, भवन और मंदिरों से लेकर जन और जंगल तक।
असाध्य वीणा के किरीटी तरु का कुटुंब यहां श्वास साधे कुंभक करता है। किसी जटाजूट योगी सदृश विश्वभर से विमुख अपने श्वासोच्छ्वास की निगरानी करते वृद्ध किंतु भीमकाय वृक्ष मानो किसी चिर समाधि में लीन हों।
विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है-
लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ, अचिर चिर-निर्वाण में हूँ!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!
थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पंक्तिबद्ध लहराती धम्म ध्वजाएं, मौन वृक्षावली और गोम्पा आपसे बुद्ध शरणम् गच्छामि कहलवा ही देते हैं।
सघन वनों से आच्छादित नभस्पर्शी पर्वत अरुणाचल की विशेषता है । वन, पर्वत और प्रवाही नदी आपकी यात्रा में सदैव सहगामी होते हैं यहां। छोटे छोटे झरने और प्रपातों की कोई गिनती नहीं। यहां सिर्फ जल बोलता है, कहीं नदी में, कहीं झरने में तो कहीं बारिश में।
बादलों की अठखेलियां यहां के सुंदरतम दृश्यों में से एक है। कहीं ये हल्के रूई के फाहों की तरह आपसे नीचे तैर रहे होते हैं तो कहीं घनाकार में आपसे ऊपर। बहुधा आप स्वयं को इनसे लिपटा हुआ पाएंगे। सब कुछ रोमांचित कर देने वाला।
हालांकि इंटेलेक्चुअल लोगों के लिए इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं, यह सिर्फ एक प्राकृतिक घटना है जो 'धूमज्योति: सलिलमरुतां सन्निपात' मात्र है किंतु "प्रकृति के विभूति मय गुणों पर मुग्ध होकर मनुष्य में आश्चर्य करने की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है, वैज्ञानिक अपने रहस्य विवरण द्वारा उसका मान मर्दन करना चाहता है।
रस सिद्ध कवि को भी यदि विज्ञानानुगत विमर्श से ही शांति मिल सकती होती तो मेघदूत जैसे काव्य का जन्म ही न होता।"(वासुदेवशरण जी)
फिर जिस जमीन को देखकर बादल दूर-दूर भागते हों उस जमीन के लोगों के लिए बादल का आलिंगन किसी अभूतपूर्व घटना से कम नहीं।
मन करता है इन सब दृश्यों को किसी चित्र में समेट लूं मगर अगले ही क्षण पता चलता है कि -"तुम कोई चित्रकार तो हो नहीं फिर कैसे कर पाओगी?"
कोई बात नहीं अपने पास लेखनी तो है। वैसे राहुल जी का मानना है- "उच्च श्रेणी के घुमक्कड़ के लिए लेखनी का धनी होना आवश्यक है। बंधी हुई लेखनी को खोलने का काम यदि घुमक्कड़ी नहीं कर सकती तो कोई दूसरा नहीं कर सकता।"
तब यह सही समय है, यद्यपि मैं उच्च श्रेणी की घुमक्कड़ नहीं।
हम प्यासी धरती के लोग हैं। बादल हमारे सौंदर्य शास्त्र का हिस्सा हैं। मेघदूत यहां के संयोग और वियोग दोनों का साक्षी है, सहचर भी। बादल हमें आकर्षित करते हैं, बरखा हमें आह्लादित करती है और हरितिमा हमें प्रफुल्लित करती है।
भालुकपोंग के बाद हमारा पहला पड़ाव रहा टिप्पी।
यह हिमालय की सबसे निचली क्रोड है, वन और वन्य जीवों से संपन्न क्रोड। सीधी दीवार की तरह खड़ी पहाड़ियों पर लहराते कदली वन, आसमान की ऊंचाई को छूते वृक्ष और रंग-बिरंगे फूलों के गुच्छों से बोझिल शाखाएं।
सुपारी और नारियल के पेड़ यहां इस तरह उगे हुए हैं जैसे रोही में बबूल उगते हैं। जिस करी लीव्स को लगा लगाकर मैं थक गई वह यहां पीले फूलों वाले खरपतवार ( जिसे राजस्थान में कुछ लोग कांग्रेस कहते हैं,कुछ बीजेपी) की तरह उगे पड़े है।
आम, अमरूद और लीची की कोई गिनती नहीं। यह स्थान वन्य जीवों की शरणस्थली है और विशेषकर हाथियों का निज गृह।
टिप्पी आर्किड का स्वर्ग है। सुना है यहां एक आर्किड रिसर्च सेंटर और संग्रहालय भी है जिसे हमने नहीं देखा क्योंकि न हमने आने से पहले टूरिस्ट प्लेस गूगल किए न कोई गाइड किया, बस यूं ही गाड़ी ली और चल पड़े पर संग्रहालय में तो नमूने होंगे।
आर्किड तो यहां हर कहीं बिखरे हुए हैं। पुराने पड़े से तनों पर खिलते फूलों के गुलदस्ते! पर मुख्य आकर्षण लुमुम जल प्रपात।
परमिट व्यवस्था शुरू होने से पूर्व तक आसाम के लोगों का मुख्य टूरिस्ट स्पॉट हुआ करता था टिप्पी। लोगों का चहेता अब भी है यह स्थल किंतु अब वह बेहिसाब भीड़ देखने को नहीं मिलती। सड़कें बिल्कुल खाली हैं। वीकेंड पर कुछ गुलजार अलबत्ता रहता है।
स्त्रियों की आजादी के लिहाज से पूर्वोत्तर सुखद स्थान है। उत्तर भारत में जिस तरह सूने स्थानों पर पुरुष वर्ग मटरगश्ती करते मिल जाते हैं वैसी ही छूट यहां स्त्रियों को भी लगती है। बीच जंगल गाड़ी या स्कूटी रोककर पार्टी करती स्त्रियां यहां देखी जा सकती हैं पर यह संपन्न स्त्रियों की बात है, गरीब को यहां भी रोटी-कपड़े के लिए बीसो घंटे पचना पड़ता है।
पुरूष दायित्वों से मुक्त कुछ करे तो करे, न करे तो कौन कहे?
स्त्री विमर्श पर अक्सर पूर्वोत्तर के मातृ प्रधान समाज के उदाहरण दिये जाते है किंतु यहां की आम स्त्री में इस व्यवस्था को लेकर कोई ज्यादा संतुष्टि भाव नहीं है। छोटे से बड़े हर काम को अपने सिर लेकर थकी हारी स्त्री कौन विजयी भाव से तनेगी? उन्हें घरों में बैठकर महारानियों की तरह राज करने वाली मारवाड़ी स्त्रियां अधिक आकर्षित करती हैं।
यहां (आसाम में) जाति व्यवस्था एकदम लचीली लगती है मुझे। जाति, समाज या राज्य से बाहर विवाह बिल्कुल साधारण घटना है जैसे। मारवाड़ी पुरुषों में युवतियों की खासी रुचि है। कारण? यही कि मारवाड़ी अपनी स्त्रियों को बहुत सम्मान देता है (?) मेरे घर के नजदीकी पार्लर में काम करने वाली युवतियों का ऐसा ही मानना है।
एक लड़की खुशी से अपने फोन में अपने मारवाड़ी प्रेमी का फोटो दिखाती है जिससे भविष्य में विवाह करना चाहती है। हमारा पडौ़सी भूतपूर्व एमएलए का बेटा है। उसकी बहन का विवाह मारवाड़ी परिवार में हुआ है। अब वह बहन अपने भाई के घर भोजन नहीं करती क्योंकि उसका पितृपक्ष मांसाहारी है जबकि वह स्वयं अब वैष्णव है और शाकाहारी परिवार की कुलवधू।
वह मारवाड़ी बोलती है, मारवाड़ी परंपराओं का गर्व से बखान करती है और अपने बच्चों का परिचय मारवाड़ी के रूप में करवाती है। भाई-भौजाई को भी उसके व्यवहार से कोई आपत्ति नहीं, यह तो मन माने की बात है।
उदारता में आसामी समाज का कोई सानी नहीं तभी तो लघु भारत को स्वयं में समेटे बैठा है यह समाज।
इसी उदार मन ने उन्हें स्त्री-पुरुष में कोई भेद न करने दिया। ( हालांकि कुछ पढ़ी लिखी युवा स्त्रियां जो गांव से शहर रहने आई हैं, उनका मानना है कि गांवों में जाति, परंपरा और विवाह को लेकर यहां भी वैसी ही सोच है जैसी उत्तर भारत में है। विवाहित स्त्रियों को परिवार की परंपरा के अनुरूप ही रहना होता है।
ससुराल में सिर ढंकना और कहीं कहीं घूंघट का भी प्रचलन है। अंतर्जातीय विवाह अच्छे नहीं माने जाते, तथापि शहरों में चल पड़े हैं। वे कहती हैं आप जिसे खुला समाज कहती हैं वह बंगालियों और नेपालियों का है जो शताधिक वर्षों से आसाम में रहने से आसामी जैसे लगते हैं। हर व्यक्ति अपना मूल (स्थान या समाज) छोड़ने के बाद खुला हो ही जाता है। बाहर के लोग वास्तविक आसाम को बहुत कम जानते हैं।)
खूबसूरती और नजाकत अरुणाचल की स्त्रियों को भर भरकर दी है प्रकृति ने। रबड़ की गुड़िया जैसी छोटी-सी और मासूम लड़कियां। लगता नहीं इनमें कभी वार्धक्य भी आता होगा। सीमेंट के कट्टों से सिलकर बनाए खूबसूरत बैग पैक्स को अपने दोनों कंधों से झुलाती और लकड़ियां चुनती ये बालाएं किसी अप्सरा से कम नहीं।
खड़े पहाड़ों पर निर्जन वन में झूलते तंबू से यहां के रहवासियों की जीवटता झलकती है। निर्मल वर्मा कहते हैं-
"इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी है।" मैं कहती हूं इस खाली दुनिया में कितनी दुनियाएं भरी पड़ी है।
टिप्पी से कुछ किलोमीटर आगे पड़ता है सेस्सा। टिप्पी का सहोदर या जुड़वा भाई कह लें।
सेस्सा आर्किड सेंचुरी आपके स्वागत में खड़ी मिलेगी यहां। खूबसूरत लकड़ी का कलाकारी वाला द्वार आपकी ही प्रतीक्षा में हो जैसे। छोटी छोटी सीढ़ियों का ट्रैकिंग पाथ आपको अपने साथ ले चलने की जिद्द करता है। हम उसकी उंगली पकड़ने ही वाले थे कि घुंघरुओं सी बजती जलधारा ने हमारा ध्यान खींचा।
किसी भू-भ्रंश के दौरान बड़ी चट्टानों ने लुढ़ककर इसका निर्माण किया होगा। उस ओर जाने का कोई सीधा सरल मार्ग तो नहीं था किंतु मार्ग बना लेना कहां कठिन है। मार्ग बदले भी जा सकते हैं यदि लक्ष्य स्पष्ट हो। फिर क्या था जंगली घास-पूस को हटाते हटते, कहीं गिरते कहीं फिसलते धारा तक पहुंच गए।
इस दौरान एक अजीब किस्म के कीड़े ने इस तरह काटा कि सबके पैरों में बिना किसी दर्द के खून की टींकियां उभर आई। काफी समय बाद वहां से निकलते समय सबने एक दूसरे के पैर देखे तब तक पैरों में चुनडी़ उघड़ चुकी थी।
खेर हम जलधारा की ओर मुड़े तो ऐसे मुड़े कि 'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास'। चलकर आए थे सेप्पा जाने के लिए मगर अभी तो सेस्सा ही आगे न बढ़ने दे रहा, बोमडिला राह जोह रहा होगा।
पहाड़ों से लुढ़क-लुढ़ककर गोल बनी चिकनी चट्टानों से छमक-छमक उछलता पानी। काई की हल्की परत ने उन्हें और चिकना बना दिया जिन पर असावधानीवश पैर रखो तो रपटकर औंधे मुंह लंबलेट हो सकते हो। जल का ऐसा कर्णप्रिय स्वर मनुष्यों के बीच कहां? यहां जल इतना साफ कि कांच भी मैला लगे ।
मीठा इतना कि शरबत भी फीका लगे। सागवान के ऊंचे पेड़ों के बीच से कहीं कोयल टहुंके मारकर बहते जल को संगत देने लगती है। हम यह अलौकिक वातावरण कैमरे में कैद करना चाहते थे किंतु कैमरे की अपनी सीमा है,वह वास्तविकता का शतांश भी न ले पाया।
यहीं पर सेना का बॉल ऑफ फायर डिवीजन भी है। फिर वह इलाका खूबसूरत तो होना ही था। सुनसान सड़कों पर इक्की दुक्की लोकल गाड़ियों के अतिरिक्त सिर्फ आर्मी ऑफिसर्स की गाड़ियां ही गश्त करती दिखाई देती है टिप्पी से लेकर त्वांग के रास्ते तक। गहन गिरी-कानन और घोर घन नाद में भी आप अकेले निर्भय विचर सकते हैं, यह अभयदान आपकी सेना की बदौलत है।
ऊपर अमाप ऊंचाई से बहते और नीचे अतल गहराई में गिरते झरने को जब काले बादल सहसा अपनी अंक में भरते हैं तो आप एक क्षण के लिए भय से जड़ हो जाते हैं। कितने भी जोर से चिल्लाओ,आपकी ध्वनि पहाड़ों से टकराकर पुनः लौट आएगी किंतु अगले ही क्षण ऐसे निर्जन निविड से भारतीय सेना की गाड़ी आपके करीब से इस आश्वस्ति भाव से गुजरेगी कि 'सब कुछ ठीक है'।
वे सूने जंगल, तपती माटी और सूखे पहाड़ों को भी रूखाळते हैं जिनसे आम इंसान का कोई लेना देना तक नहीं। मैं तब याद करती हूं मेरे गांव के वयोवृद्ध शास्त्री जी का वाक्य- "बाईसा जमीन स्त्री है, वह उसीकी होती है जो उसकी कदर और रुखाळी करता है।"
मेरी स्मृति में तैरते हैं डांग हाथ में लिए हुए मेरे नाना जो अपने गोडों में जोर रहने तक हर रोज अपनी सौ बीघा जमीन की परिक्रमा किया करते थे।
सूने झरने के किनारे मधुमक्खियों ने बड़े बड़े छत्ते बना रखे हैं। जल से मधु का संचय!
मधुं क्षरन्ति सिन्धवः
मधु सूक्त लिखने वाले ऋषि ने ऐसे ही किसी मनोरम स्थल का सेवन किया होगा इस दौरान। अभी यहां सिर्फ जल है, मधुमक्खी है और है एक नन्ही सी श्वेत श्याम चिड़िया जो खड़ी चट्टान पर बिना किसी अवलंब के फुरफुराती हुई कलाबाजियां दिखा रही है। साथ ही यह भी जता रही है कि तुम जिसे सुनसान कह रहे हो वहां मेरी दुनिया है, पूरी दुनिया।
हमें अब भूख लगी है । टिफिन खोलने के लिए झरने से बेहतर जगह और क्या होगी? हमारे पूर्वज भी लौटा डोर देखकर ही भाता खोलते थे। ठंड में भूख बढ़ गई थी। इधर मार्ग की तफरी ने घड़ी में चार बजा दिए। वैसे परमिट के चक्कर में निकलना ही लेट हुआ घर से। बारिश के मौसम और पहाड़ों के घुमावदार रास्तों को ध्यान में रखते हुए हमें शाम होने तक घर पहुंचना था।
सेप्पा अब फिर कभी। खाना खाकर डमडळ-कमडळ गाड़ी में डाले। प्लास्टिक की बोतलें, रेपर,डिस्पोजल आदि थैली में बांधकर साथ ले लिए। इन्हें उचित स्थान देखकर निस्तारित करना है क्योंकि "आने वाले घुमक्कड़ों के रास्ते को साफ रखना, यह भी एक घुमक्कड़ का कर्त्तव्य है।"
-नीलू शेखावत