नीलू की कलम से: उकारड़ा

हमारे यहां इसे अकुरड़ा या अकुरड़ी कहते हैं।सामान्यतः हिंदी में इसे कचरे और गोबर का ढेर कहा जा सकता है,पर वास्तव में यह एक निकृष्ट कोटि का अनुवाद ही कहा जाएगा क्योंकि  गोबर और कचरा शब्द को सुनकर जैसा विगर्हित भाव उत्पन्न होता है वैसा अकुरड़ा शब्द से नहीं।

उकारड़ा

कल मेरे एक मित्र ने बातों-बातों में उकारड़ा शब्द का प्रयोग किया और फिर हंसते हुए पूछने लगे- "कभी सुना है यह नाम?"

मैंने उनसे कहा-" मैं इस शब्द का अर्थ ही नहीं महत्त्व भी बता सकती हूं।"

खासकर ग्रामीण परिवेश और उसमें बीते बाल्यकाल के लिए उकारड़ा कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण रहा है।

हमारे यहां इसे अकुरड़ा या अकुरड़ी कहते हैं।सामान्यतः हिंदी में इसे कचरे और गोबर का ढेर कहा जा सकता है,पर वास्तव में यह एक निकृष्ट कोटि का अनुवाद ही कहा जाएगा क्योंकि  गोबर और कचरा शब्द को सुनकर जैसा विगर्हित भाव उत्पन्न होता है वैसा अकुरड़ा शब्द से नहीं।

इसका एक कारण है-

वह यह कि गांव और धन-ढांढों (गाय,भैंस,आदि मवेशियों)को पालने वाले लोग उनके गोबर से घृणा नहीं करते।वहां आज भी गोबर और मिट्टी से आंगन और दीवारें लीपी जाती हैं।

लीपने के लिए पहले जो कच्ची सामग्री तैयार की जाती है उसे 'गारा' कहते हैं। इसके लिए विशेष चतरायी(चतुराई) की आवश्यकता होती है।घर की ठायी (चतुर) स्त्री ही यह कार्य करती है।

गोबर और मिट्टी की गुणवत्ता का खास खयाल रखा जाता है ताकि लीपने में सफाई आए।स्त्रियां गीत गाती हुईं बड़ी तल्लीन होकर लीपणा लीपती हैं।

अकुरड़े का ही एक भाग बोळाई होता है जहां स्त्रियां उतना ही समय बिताती हैं जितना चूल्हे चौके में। यहां थेपड़ियां(कंडे) थापी जाती हैं।

पुनश्च यहां भी उतनी ही चतुराई और निपुणता की ज़रूरत होती है।  चारे की डूंकळी जड़ी गोल- मटोल और पतली थेपड़ी अच्छी मानी जाती है।पतली होने से सूखती जल्दी है और डुंकळी से जलाने में आसानी रहती है।

सियाळे की थेपड़ी अच्छी मानी जाती है।बड़ी मात्रा में एकत्र हो जाने पर किसी निरापद स्थान पर 'चिण' कर उन्हें चारों तरफ से लीप दिया जाता है जिसे 'पिरावंडा' कहते हैं।

चौमासे में बारिश के  कारण जब नई थेपड़ी नहीं थेपी जा सकती तब इनका उपयोग किया जाता है।

थेपड़ियों के प्रति स्त्री जाति का मोह विख्यात है। पड़ौसन से उनके झगड़े या तो बेटों को लेकर होते हैं या थेपड़ियों को लेकर।

स्त्रियों के साथ-साथ बच्चों के खेल का अधिकांश समय भी अकुरड़े के आस-पास ही गुजरता है। माचिस जैसी नाचीज वस्तु का क्या मोल है,यह गांव से बेहतर कौन जानेगा?

चूल्हे में आठों प्रहर आग मिलती है,माचिस का काम तो महीनों में कभी कभार पड़ता है।अधजले छाणे को राख से ढंक कर रखा जाता है,फूंका और जगा लिया चूल्हा।

महीने दो महीने में माचिस खाली होती है,कचरे के साथ अकुरड़ी पहुंचती है और उधर घर के छोटे रेगपिकर्स (बच्चे) हाथों हाथ चुन लेते हैं। लड़के उसे फाड़कर ताश पत्ते बनाते हैं और लड़कियां उसे साबुत रखकर गुड़ियों के कपड़ों की पेटी।

हर घर में एक या एकाधिक स्त्रियां टेलर होतीं है,सिलाई के दौरान कतरने खूब होती है लेकिन कपड़े की एक-एक कातर को संभाल कर रखा जाता है किसी अन्य उपयोग के लिए।

मुश्किल से कोई बारीक कतरन अकुरड़ी पहुंचती है। गुड़ियों के कपड़ों की आपूर्ति यहीं से होती है। चूंकि एक अकुरड़ी से मिले संसाधन अपर्याप्त होते हैं तो मित्रों के घरों की अकुरड़ी भी टटोल आते हैं।

घर की युवतियों और नववधुओं के लिए बड़े बुजुर्गों से बचकर सहेलियों से बतळावण का अड्डा भी अकुरड़ी ही है।छाणे(सूखे कंडे) चुगने के बहाने घंटों हाथ रळकाते हुए बातें करके दिल हल्का कर लेती हैं।

अकुरड़ी मात्र कचरे का ढेर नहीं होती,उसकी सार संभाल जरूरी है,घर के बड़े पुरुष या स्त्रियां ध्यान रखते हैं कि कहीं उसमें प्लास्टिक या मिट्टी तो नहीं आ रहे घरेलू कचरे के साथ।

आखिर इसीसे बना खाद अन्न देगा, खाद में मिला प्लास्टिक मिट्टी को बरबाद कर देता है।

'सेव सॉइल' के नारे तो अब लगने लगे हैं,हमारे लिए तो हमेशा से माटी ही 'महतारी' थी और उसको पुष्ट करने वाला गोबर 'गणेश'।

- नीलू शेखावत