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सियासत का नया 'शोक': सिर्फ़ सोशल मीडिया पोस्ट तक!अब आप ही बताइए, राजनीति में संवेदनशीलता क्या सिर्फ़ सोशल मीडिया पोस्टों तक ही सीमित रह गई है? नेता 'शोक संदेश' तो फटाफट लिख देते हैं, लेकिन उनके 'शोक संतप्त' होने का पता ही नहीं चलता। दो मिनट का मौन रखकर अगले ही पल फोटोशूट या पार्टी मीटिंग में व्यस्त दिखना, ये कैसा 'शोक' है?
नमस्ते दोस्तों! आज मन एक अजीब से बोझ से भर गया। जैसलमेर और जयपुर में लगी आग की खबरें, परिवारों का उजड़ना, बच्चों का राख में अपने माँ-बाप को ढूँढना... दिल दहल जाता है, है न?
लेकिन, रुकिए ज़रा! इसी बीच, एक और खबर मेरी नज़रों से गुज़री, जिसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया – क्या हम वाकई उसी समाज में जी रहे हैं?
मातम के बीच 'स्नेहमिलन': वाह रे संवेदनशीलता!एक तरफ़ पूरा राज्य इन त्रासदियों से विचलित है, तो दूसरी तरफ़ सिरोही में भाजपा के पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास राज्यमंत्री ओटाराम देवासी साहब का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। अरे भई, 'स्नेहमिलन कार्यक्रम' है ये! आप ही बताइए, इससे 'स्नेह' किस पर बरसाया जा रहा है – आपदा पीड़ितों पर या ख़ुद की राजनीतिक छवि पर?
भव्य जुलूस और भजन संध्या: प्राथमिकताएँ क्या हैं?
मीडिया प्रभारी रोहित खत्री जी बताते हैं कि सुबह सारणेश्वर महादेव में पूजा-अर्चना होगी, फिर गोयली चौराहे से भव्य स्वागत जुलूस निकलेगा और फिर पनिहारी गार्डन में भजन गायक छोटूसिंह रावणा की प्रस्तुति होगी। सोचिए ज़रा, एक तरफ़ लोग अपने घर के जले हुए मलबे में अपनों की निशानियाँ तलाश रहे हैं, और दूसरी तरफ़ हमारे नेतागण भजन कीर्तन और जश्न में डूबे हैं। क्या यही वक्त है जश्न मनाने का? क्या यह 'स्नेहमिलन' की जगह 'शोकसंवेदन' कार्यक्रम नहीं हो सकता था?
सियासत का नया 'शोक': सिर्फ़ सोशल मीडिया पोस्ट तक!अब आप ही बताइए, राजनीति में संवेदनशीलता क्या सिर्फ़ सोशल मीडिया पोस्टों तक ही सीमित रह गई है? नेता 'शोक संदेश' तो फटाफट लिख देते हैं, लेकिन उनके 'शोक संतप्त' होने का पता ही नहीं चलता। दो मिनट का मौन रखकर अगले ही पल फोटोशूट या पार्टी मीटिंग में व्यस्त दिखना, ये कैसा 'शोक' है?
क्या यह वही राजस्थान नहीं है जहाँ आज ही दर्जनों परिवार उजड़ चुके हैं? क्या यह वही समाज नहीं है जहाँ बच्चे राख से अपने माता-पिता को पहचानने की कोशिश कर रहे हैं? और हम 'स्नेहमिलन' की बात कर रहे हैं? अरे भैया, इंसानियत से बड़ा कोई 'मिलन' नहीं होता!
जब सत्ता का उत्सव इंसानियत के शोक से बड़ा हो जाए…यह किसी एक दल की बात नहीं, दोस्तों। यह तो हमारे पूरे राजनीतिक तंत्र की कहानी है। जहाँ सत्ता का उत्सव, इंसानियत के शोक से ज़्यादा अहम हो जाता है। जहाँ एक मंत्री का जन्मदिन, सैकड़ों नागरिकों की पीड़ा से ज़्यादा 'मीडिया कवरेज' पा जाता है। यह आग सिर्फ़ घरों में नहीं लगी है, मेरे प्यारे पाठक, यह आग हमारी संवेदनाओं में भी लगी है। और जब हम, आम जनता, इन नेताओं को ऐसे हालात में भी भव्य जश्न मनाने देते हैं, तो इसका मतलब है कि हमारी चुप्पी इस आग को और भड़काने का काम कर रही है।
क्या हमने अपनी संवेदनाओं को इतना सस्ता कर दिया है कि वे चंद चुनावी गणित के आगे फीकी पड़ जाएँ? सोचिएगा ज़रूर। क्योंकि राजनीति में शोक अब सिर्फ़ एक 'पोस्ट' है... और संवेदना... बस एक 'शब्द' भर।
— प्रदीप बीदावत