पाठ्यक्रम-3 स्त्री उद्धार: उन्नीसवीं सदी में स्त्री दशा और समाज सुधार आंदोलन का सच

उन्नीसवीं सदी में स्त्री दशा और समाज सुधार आंदोलन का सच
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Highlights

उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों की दशा अत्यंत दयनीय थी, बाल विवाह और सती जैसी कुप्रथाएं प्रचलित थीं.

राजा राममोहन राय, मिशनरी और नेहरू जी ने स्त्री उद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

विधवा पुनर्विवाह कानून 1856 में ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से पारित हुआ.

विधवा पुनर्विवाह को अक्सर लिंगानुपात असंतुलन के कारण भी बढ़ावा मिला.

चलिए महान पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाने वाले समाज सुधार अध्याय का अगला टॉपिक लेते हैं- स्त्री दशा। 

इसके अनुसार आंदोलनों से पहले स्त्रियों की दशा बहुत बुरी थी। बाल विवाह करके उन्हें किसी और के खूंटे बाँध दिया जाता था, पति मरने पर जीवित जला दिया जाता था और विधवाओं को अनाथ की तरह घर से निकाल दिया जाता था और बची खुची महिलाओं को जबरन घर की चारदीवारी में बांधकर घरेलू कामों में जोत दिया जाता था। पढ़ने लिखने का अधिकार उनके पास नहीं था।

महान भारतीय समाज सुधारक राजा राममोहन राय फ़रिश्ते की तरह आये और एक ही बार में उन्होंने स्त्री उद्धार कर दिया। दूसरा उपकार किया मिशनरी स्कूलों ने और तीसरा तथा अंतिम एहसान स्त्री समानता की बात करके किया जवाहर लाल नेहरू जी ने वरना स्त्री की आज पशु से भी बदतर स्थिति होती।

पुस्तक में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध को आधार बनाकर तथ्य(?) पेश किये गए हैं। इस समय स्त्रियां घर की चार दीवारी में घुटकर बुरे दौर से गुजर रही थी, चलिए देखते हैं पुरुष कैसी रंगरेलियां मना रहे थे। 

अब चूंकि आप गंभीर वर्ग भेद की बात कर रहे हैं ( जो इसी पाठ की अगली कड़ी है) जिसमें समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग की सेवा चाकरी कर रहा था।

फिर हरिजन स्त्री तो चारदीवारी में कैद थी तो पुरुष पढ़ लिखकर सारे दिन झाड़ू बुहारी करके मौज मार रहा था? लोहार की पत्नी कैद थी, लोहार पुरुष पढ़ लिखकर लोहा कूटते हुए मजे ले रहा था?

किसान पुरुष पढ़ लिखकर खेतों में खटते सुख ले रहा था? ब्राह्मण, बनिया और ठाकुर पुरुष तो जन्मे ही अय्याशी के लिए थे इसलिए उनकी तो क्या ही बात करना। 

पुरुष कोलम्बिया में पढ़कर स्कॉलरशिप से मजे नहीं मार रहा था। वह भी जीविका के लिए दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत कर रहा था, बीवी बच्चों के पेट भर रहा था। यहां मैं यह नहीं कह रही हूं कि स्त्रियां शिक्षित थीं, परेशान नहीं थी या अपने पारिवारिक जीवन से काफी खुश थीं पर यह भी मत समझिए कि सारे पुरुष सर्व सुख सम्पन्न थे। वर्जनाओं के युग में सबकी अपनी अपनी विवशताऐं थी।

फिर आज से सवा सौ वर्ष पूर्व शिक्षा के मानदंड ही अलग थे। आज घर बैठे डिग्रियां बांटकर आपने कौनसी उपलब्धि हासिल कर ली?

झूठे, हकमार चोर, लुटेरे ही तो तैयार किये। आप जब स्त्री दशा की बात करते हैं तो परोक्षरूप से उसके लिए दूर जेंडर को कटघरे में खड़ा कर रहे होते हैं मगर पुरुष दशा को क्यों भूल जाते हैं?

दूर देश कमाने निकले या सीमा पर लड़ने निकले पुरुष वापस घर आ गए तो आ गए वरना घर वाले मरा मानकर अंत्येष्टि कर देंगे, ये दिन थे वो - ऐसी नियति में आपको कहीं कोई पीड़ा नजर नहीं आती?

इस देश में स्थितियां तभी बदलेगी जब महिलाएं तथाकथित पुरुषों वाली भूमिका में आ जाएंगी क्योंकि भारत में बीच का रास्ता नहीं। या तो पुरुष अत्याचारी या तो स्त्री।

खैर महिला शिक्षा का आगाज पढ़िए-

"बीसवीं सदी की शुरुआत से ही बहुत सारी मुस्‍ल‍िम महिलाओं ने  महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अहम भूमिका अदा की।" 
उंगलियों पर गिनने लायक नाम जिनमें आधे तो फेक साबित हो रहे हैं, उन्होंने महिला शिक्षा में योगदान दिया। 

कैसा योगदान? 

"उन्होंने अरबी में कुरान पढ़ना शुरू किया।"

दोहरे मानदंड क्यों? हिन्दू स्त्रियां अब तक घरों में पढ़ रही थी, रामायण, महाभारत और अन्य धर्म ग्रंथ कंठाग्र थे तो बंधन में थी, उनका उद्धार मिशनरीज शिक्षा से हुआ जबकि कुछ प्रिविलिज्ड मुस्लिम  स्त्रियों ने कुरान की आयतें पढ़ी तो सोयी पड़ी शिक्षा जग पड़ी। इन स्त्रियों ने इसके लिए अपने धर्म को नहीं कोसा मगर हिन्दू स्त्री पढ़ते ही क्या सोचती है?

"संस्कृत की महान विद्वान पंडिता रमाबाई का मानना था कि हिंदू धर्म महिलाओं का दमन करता है। उन्होंने ऊँची जातियों की हिंदू महिलाओं की दुर्दशा पर एक किताब भी लिखी थी…"

सब हिन्दू स्त्रियों का प्रतिनिधित्व एक पंडिता के नाम से खत्म हो गया था। इनका विरोध किया गया। किनके द्वारा?

"ज़ाहिर है कि इन सब बातों से रूढ़िवादी खेमे के लोग काफ़ी आग-बबूला हुए। उदाहरण के लिए, बहुत सारे हिंदू राष्‍ट्रवादियों को लगने लगा था कि हिंदू महिलाएँ पश्‍चिमी तौर-तरीके अपना रही हैं जिससे हिंदू संस्कृति भ्रष्‍ट होगी और पारिवारिक संस्कार नष्‍ट हो जाएँगे। रूढ़िवादी मुसलमान भी इन बदलावों  के नतीजों को लेकर चिंतित थे।" 

राष्ट्रवादी और रूढ़िवादी की समकक्षता के मायने क्या हैं, पाठ्यक्रम निर्माता भलीभांति जानते हैं।

अब आता है विधवा पुनर्विवाह। उद्धारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी। उनके कहने से अंग्रेजों  ने-

"1856 में विधवा विवाह के पक्ष में एक कानून पारित कर दिया। जो विधवाओं के विवाह का विरोध करते थे उन्होंने विद्यासागर का भी विरोध किया और यहाँ तक कि उनका बहिष्कार कर दिया।"

बार बार बहिष्कार शब्द सुनकर हँसी आती है क्योंकि आप इतने ऊँचे रसूख वाले कि आपके कहने मात्र से भारत में शासन करने वाली अंग्रेज सरकार कानून बना देती है और आपको बहिष्कार से फर्क पड़ता है कि इसे ऐतिहासिक घटना के रूप में मेंशन करना पड़े।

"इसके बावजूद विवाह करने वाली विधवा महिलाओं की संख्या काफ़ी कम थी। विवाह करने वाली विधवाओं को समाज में आसानी से स्वीकार नहीं  किया जाता था।"

यह दूसरा झूठ है। विधवा पुनर्विवाह कोई समाज सुधार या विधवाओं पर उपकार नहीं था बल्कि कुंवारों का जैसे तैसे हाथ पीला करने का  उस समय का उपक्रम था जिसे कुछ लोगों ने अपने नाम के लिए ग्लोरीफाई किया।

यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे आजकल पूर्वी राज्यों से तस्करी करके लाई गई लड़कियों को पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में खपाकर इसे 'सुखद अंतर्जातीय विवाह' का नाम दिया जा रहा है।

जैसे तस्करी की शिकार इन युवतियों को ब्याहकर लाने वाले मूँछ पर ताव देकर कहते हैं-इसके घर में भूख पड़ी थी, हमने रोटी दी वैसे ही विधवा से शादी करने वाला चौड़ा होकर कह सकता था-बेचारी विधवा थी। जबकि असल में उसके लिए कुंवारी लड़की के लाले पड़े थे।

प्रेमचंद के लिए यह कहा जाता है कि उन्होंने एक विधवा से विवाह किया था और इस घटना को उनके प्रशंसक अलग से रेखांकित करते हैं मानो उन्होंने उस विधवा पर बहुत बड़ा उपकार किया था मगर शिवरानी देवी लिखती हैं कि उनकी दूसरी शादी के लिए उनके पिता ने इस्तीहार निकलवाये तब बहुत सारे पुरुषों ने उनसे सम्पर्क किया जिनमें प्रेमचंद एक थे।

उन्नीसवी सदी का अंतिम और बीसवीं सदी का प्रथम दशक भयंकर ( न्यूनतम ) लिंगानुपात असंतुलन की समस्या से गुजर रहा था। लड़के के पिता को दहेज़ तो दूर की बात, लड़की के एवज में खूब सारा धन देने पर भी लड़कियां नहीं मिलती थी। (सौ साल बाद आज समय फिर खुद को दोहरा रहा है ) हर परिवार में एक दो पुरुष कुंवारे मरे थे उस पीढ़ी के।

तब लड़कियों को लेकर एक कहावत बनी- खांगी, बांकी, गेंहू की रोटी अर्थात् रूप, कुरूप छोड़िये लड़की तो है न। राजपूतों को छोड़कर प्रत्येक जाति में विधवा पुनर्विवाह प्रचलित था।

राजस्थान में इसके दो प्रकार थे - विधवा यदि अपने मृतक पति के भाई से शादी करती तो इसे 'चूड़ी पहनाना' और यदि अन्यत्र विवाह करती तो इसे 'नाते जाना' कहा जाता है जो आज दिन तक चल रहा है।

- नीलू शेखावत

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