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माणकचंद जी ने लगभग साठ वर्षों तक राष्ट्र और समाज की निस्वार्थ सेवा की.
वार्धक्य व रुग्ण देह के बावजूद उनका स्वाध्याय सतत और अबाध रहा.
उनके मुख पर सदैव आत्मसंतुष्टि का भाव झलकता था.
उन्होंने गृह-त्याग और अपनी इच्छाओं का त्याग कर कठोर सेवक व्रत का पालन किया.
मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य कुछ समय पूर्व ही मिला। चेहरे पर अबोध बालक जैसा स्मित हास और अपनापन तो क्या ही कहें? जैसे ही पिताजी ने परिचय दिया, चहक उठे,
अरे! आप तो हमारे पास ही के हैं!
अपने गांव का जागिरी इतिहास बताने लगे। मेरे गांव के साथ आसपास के सारे गाँवो के नाम गिना दिए। जब आसाम, तेजपुर का नाम लिया तो वहाँ के संघ कार्यालय का विस्तृत परिचय दे डाला। अभी वहाँ क्या क्या प्रकल्प चल रहे हैं, वह भी बता दिया। वार्धक्य और रुग्ण देह का स्मृति पर कोई असर नहीं?
सहचर बोले- काफी असर है, आप बीमारी से पूर्व मिलते तो चकित रह जाते। जो एक बार पढ़ लिया उसकी पृष्ठ संख्या तक बता देते। स्वाध्याय अब भी सतत और अबाध है पर स्मृति लोप है।
स्वाध्याय को गीता में वाणी का तप कहा है भगवान ने। किन्तु इनके लिए वह तप से अधिक सेवा है। राष्ट्र सेवा, स्वत्व त्यागकर समष्टि की सेवा। वह भी लगभग साठ वर्ष तक। गृह त्याग, स्वजनों का त्याग, सबसे बड़ी बात अपनी इच्छाओं का त्याग।
सब ते सेवा धरम कठोरा
सेवक व्रत बड़ा कठिन है।
हमारे यहां योग अटकलबाजी नहीं बल्कि ईश्वर प्राप्ति का साधन मार्ग है। निष्काम कर्म भी योग ही है। बिना किसी कामना के किया गया कर्म सेवा बन जाता है। आसक्ति का बंधन छूटता है तो साधारण कर्म भी असाधारण बन जाता है। गीता इसे उत्कृष्ट कर्म कहती है, कर्म ही क्या कर्म योग-
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥
( यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है।)
पर उत्कृष्ट का अनुगामी होना इतना भी आसान नहीं। जिस तृष्णा के चिर यौवन के आगे मनुष्य जीर्ण होता आया है उसका त्याग भला इतना सरल है?
किन्तु सेवा इस कठिन मार्ग को सरल बना देती है, सबकी कामनाओं में अपनी कामना मिला देना, सबके हित में अपना हित तिरोहित कर देना, अपनी क्षुद्र अहंता को व्यापक में विलीन कर देने का नाम सेवा है और ऐसी सेवा साधना है। इस साधना का साधक कुछ भी हो सकता है पर अधूरा नहीं होता, अकेला नहीं होता और असंतुष्ट तो जरा भी नहीं क्योंकि अब समष्टि उसका निजस्व है।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते
जो अपने में ही सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य) नहीं होता।
मैंने और उनसे मिलने वाले हर व्यक्ति ने उनके मुख पर इसी संतुष्टि का भाव देखा। लोग उनका स्वास्थ्य पूछने आते और वे आने वालों से ही हालचाल पूछने लग जाते। हमें खुद यह मौका नहीं मिला कि उनसे एक बार भी पूछ लें- आपका स्वास्थ्य कैसा है?
अभी यह वीडिओ देखा तो उनसे मिलते समय का दृश्य सजीव हो उठा। राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित करने वाले ऐसे महामना का जाना निस्संदेह बड़ी क्षति है किन्तु उनकी सेवा की सौरभ समाज को दीर्घकाल तक सुरभित करती रहेगी।
पाथेय पुरुष माणकचंद जी को अंतिम प्रणाम!
- नीलू शेखावत