Highlights
- अमेरिका ने चीन पर 'फेंटानिल टैरिफ़' 20% से घटाकर 10% किया।
- चीन अमेरिका से बड़ी मात्रा में सोयाबीन खरीदने पर सहमत हुआ।
- रेयर अर्थ व्यापार का मुद्दा सुलझा, भारत के लिए रणनीतिक महत्व।
- सेमीकंडक्टर और टिकटॉक जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई।
नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग (Xi Jinping) के बीच दक्षिण कोरिया (South Korea) में हुई बातचीत में 'फेंटानिल टैरिफ़' घटाए गए और रेयर अर्थ का मुद्दा सुलझा। यह वैश्विक व्यापार के लिए महत्वपूर्ण है।
ट्रंप-जिनपिंग वार्ता: वैश्विक व्यापार पर असर
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच दक्षिण कोरिया में महत्वपूर्ण बातचीत समाप्त हो गई है।
यह मुलाकात भारत सहित पूरी दुनिया के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इसका वैश्विक व्यापार और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ने वाला था।
'फेंटानिल टैरिफ़' में कमी और सोयाबीन समझौता
राष्ट्रपति ट्रंप ने घोषणा की है कि अमेरिका उन सभी चीनी वस्तुओं पर लगाए गए टैरिफ़ कम कर देगा, जिन्हें पहले 'फेंटानिल बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले केमिकल की सप्लाई के बदले' में लागू किया गया था।
इन टैरिफ़ को अमेरिका 'फेंटानिल टैरिफ़' कहता है, और इन्हें 20 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया है।
भारत, जो अक्सर वैश्विक व्यापार युद्धों के नतीजों से प्रभावित होता है, के लिए यह एक सकारात्मक संकेत हो सकता है, क्योंकि इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में कुछ स्थिरता आने की उम्मीद है।
ट्रंप ने यह भी बताया कि चीन पहले की अपनी घोषणा के मुताबिक अमेरिका से बड़ी मात्रा में सोयाबीन खरीदने के लिए तैयार हो गया है।
रेयर अर्थ का मुद्दा और भारत के लिए महत्व
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि चीन के साथ रेयर अर्थ के व्यापार का मुद्दा भी सुलझा लिया गया है।
भारत के लिए रेयर अर्थ का मुद्दा महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये खनिज आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक्स और रक्षा प्रौद्योगिकियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इन खनिजों पर चीन का प्रभुत्व भारत के लिए भू-राजनीतिक चिंता का विषय रहा है।
हाल के दिनों में दोनों देशों के बीच टैरिफ़ को लेकर खासा तनाव देखा गया था।
अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने तो यहां तक कहा था कि उन्हें नहीं लगता कि ट्रंप ने चीनी सामानों पर 100 फ़ीसदी लेवी लगाने की जो चेतावनी दी है, वह अब लागू किया जाएगा।
सेमीकंडक्टर और टिकटॉक पर प्रतिस्पर्धा
दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं लगभग हर क्षेत्र में एक-दूसरे से मुकाबला कर रही हैं।
यह मुकाबला बदले की भावना से लगाए गए टैरिफ़ से लेकर महत्वपूर्ण खनिजों और सेमीकंडक्टरों तक पहुंच तक फैला हुआ है।
सेमीकंडक्टर मॉडर्न मैन्युफैक्चरिंग की रीढ़ माने जाते हैं।
भारत भी सेमीकंडक्टर निर्माण में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रयासरत है, और अमेरिका-चीन के बीच की यह प्रतिस्पर्धा भारत के लिए अवसर और चुनौतियां दोनों पैदा करती है।
बेहद लोकप्रिय चीनी ऐप टिकटॉक भी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं के कारण लंबे समय से दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बना हुआ है।
भारत ने भी कुछ चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाए हैं, इसलिए इस मुद्दे पर अमेरिका-चीन की बातचीत का परिणाम भारत के लिए भी प्रासंगिक है।
विश्लेषकों का मानना था कि दोनों नेता इस बातचीत में टिकटॉक के अमेरिकी ऑपरेशन की बिक्री पर सौदे को अंतिम रूप दे सकते हैं।
वैश्वीकरण की नई दिशा और व्यापार युद्ध की पृष्ठभूमि
सिडनी की टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर टिम हारकोर्ट का कहना है कि यह वह बैठक है जो कोविड के बाद के दौर में वैश्वीकरण की नई दिशा तय करेगी।
भारत के लिए यह नई दिशा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह देश वैश्विक व्यापार और निवेश पर काफी निर्भर करता है।
इस बैठक तक पहुंचने में दस महीने लग गए, जिसमें एक-दूसरे पर लगाए गए टैरिफ़, अस्थिर युद्धविराम और दुनिया भर के उद्योगों और कारोबारों के लिए अनिश्चितता शामिल रही।
ट्रंप ने 'लिबरेशन डे' से काफी पहले ही चीन के साथ व्यापार युद्ध शुरू कर दिया था।
ये वो तारीख थी जब अमेरिका ने लगभग सभी देशों पर टैरिफ़ लगा दिए थे, जिनमें उसके दोस्त और विरोधी दोनों तरह के देश शामिल थे।
चीन लंबे समय से उनके निशाने पर था, क्योंकि ट्रंप का आरोप था कि चीन अनुचित व्यापारिक नीतियां अपनाता है।
अपने पहले कार्यकाल में भी ट्रंप ने चीन पर टैरिफ़ लगाए थे।
अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में यानी फरवरी में ट्रंप ने सभी चीनी आयातों पर दस फ़ीसदी एक्स्ट्रा टैरिफ़ लगाने का एलान किया था।
इसके जवाब में चीन ने टैरिफ़ बढ़ा दिया था, और ट्रंप ने फिर पलटवार कर अमेरिकी टैरिफ़ बढ़ाकर 20 फ़ीसदी कर दिया।
फिर लिबरेशन डे पर चीन को 34 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ लगाने की धमकी दी गई, और एक दूसरे के खिलाफ टैरिफ़ लगाने का सिलसिला चलता रहा।
आखिरकार अमेरिकी टैरिफ़ 145 फ़ीसदी और चीनी टैरिफ़ 125 फ़ीसदी तक पहुंच गया।
टैरिफ़ का प्रभाव और चीन की प्रतिक्रिया
इन भारी टैरिफ़ ने मैन्युफैक्चरर्स और आयातकों को हिला कर रख दिया।
चीन के गोदामों में माल का ढेर लग गया, जबकि अमेरिकी कंपनियां घबराई हुई यह सोचने लगीं कि रातों-रात वे अपनी सप्लाई चेन के लिए नया विकल्प कैसे ढूंढें।
इस बीच, ट्रंप की टैरिफ़ मुहिम ने उन "ट्रांसशिपमेंट्स" पर भी निशाना साधा, जिनसे चीनी सामान पहुंचने की संभावना थी।
यानी चीन में बने सामान, जिन्हें वियतनाम जैसे अन्य देशों के रास्ते अमेरिका भेजा जा रहा था, ताकि वे अमेरिकी टैरिफ़ से बच सकें।
भारत के कई उद्योगों पर भी इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा, क्योंकि वैश्विक कीमतें और आपूर्ति श्रृंखलाएं प्रभावित हुईं।
लेकिन चीन पीछे नहीं हटा, उसने बार-बार कहा कि वह बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि वह दिक्कतें झेलने के लिए तैयार है।
उसने भी पलटवार किया, जैसे उसने ट्रंप के वोट बैंक अमेरिकी किसानों को निशाना बनाया और सोयाबीन जैसी एग्रीकल्चर प्रोडक्ट पर भारी टैरिफ़ लगा दिया।
ट्रंप ने अमेरिकी कंपनियों जैसे एपल और वॉलमार्ट को चीन के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से अलग करने की कोशिश की, लेकिन कई छूट देने से ये पॉलिसी कमजोर पड़ गई।
इससे चीन का आत्मविश्वास और बढ़ गया, और जून में महीनों तक चली बातचीत के बाद दोनों देशों ने एक नाजुक समझौते पर सहमति जताई।
यह तय हुआ कि जब तक कोई ठोस समझौता नहीं हो जाता तब तक वे बातचीत जारी रखेंगे।
एडवांस चिप्स पर नियंत्रण की लड़ाई
टैरिफ़ पर भले ही दोनों देशों की बातचीत जारी थी, लेकिन अमेरिका-चीन संबंधों में एक और पुराना विवाद फिर से उभर आया था, वो है एडवांस चिप्स पर नियंत्रण की लड़ाई।
ये चिप्स स्मार्टफ़ोन से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक हर तकनीक के लिए जरूरी हैं।
ये चीन की उस आर्थिक योजना का अहम हिस्सा हैं, जिसके तहत वह "दुनिया की फैक्ट्री" से आगे जाकर एडवांस टेक्नोलॉजी हब बनाना चाहता है।
लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही चीन के पास प्रतिभा की कमी नहीं है, फिर भी उसका सेमीकंडक्टर उद्योग अमेरिका से काफी पीछे है।
इसीलिए अमेरिका ने ऐसे कदम उठाने शुरू किए जिससे सबसे एडवांस चिप्स तक पहुंचने की चीन की कोशिश सीमित हो जाए।
यह नीति ट्रंप से पहले भी मौजूद थी, लेकिन उनके शासन में इसे और कड़ा कर दिया गया ताकि केवल साधारण सेमीकंडक्टर ही चीन पहुंच सकें।
इस रणनीति के केंद्र में रही कंपनी एनविडिया, जो अब दुनिया की सबसे अमीर टेक कंपनी बन चुकी है।
एनविडिया के बनाए चिप्स को इंडस्ट्री में "गोल्ड स्टैंडर्ड" माना जाता है।
भारत के लिए भी सेमीकंडक्टर आपूर्ति एक प्रमुख चिंता है, और इन वैश्विक तनावों के बावजूद अपनी घरेलू क्षमता विकसित करना एक प्राथमिकता है।
चीन एनविडिया के लिए एक बड़ा बाजार है, जिससे उसे अरबों डॉलर की कमाई होती है।
इसी कारण एनविडिया ने अमेरिकी सरकार को अपनी चीन बिक्री का 15 फ़ीसदी देने पर सहमति जताई, ताकि उसे निर्यात लाइसेंस मिल सके।
लेकिन फिर बीजिंग ने पलटवार किया, उसने कथित तौर पर स्थानीय कंपनियों को अमेरिकी चिप्स खरीदने से रोक दिया।
इसके बजाय उसने घरेलू कंपनियों जैसे अलीबाबा और हुआवे का समर्थन करने के लिए कहा, और एनविडिया के खिलाफ एंटी-मोनोपॉली जांच भी शुरू कर दी।
एस. राजरत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज की चीन नीति विशेषज्ञ स्टेफनी कैम का कहना है कि इन कदमों से यह बात और साफ हो जाती है कि चीन का असली मकसद अधिक आत्मनिर्भर बनना है।
उनके मुताबिक, चीन लगातार टेक्नोलॉजी और एआई में भारी निवेश कर रहा है, और कंपनियों को इनोवेशन बढ़ाने और जोखिम उठाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है।
विश्लेषकों का मानना है कि चीन "लॉन्ग गेम" खेल रहा है, यानी वह जल्दबाजी में कोई ऐसा समझौता नहीं करना चाहता भले ही ये टिके या न टिके।
इसके बजाय, वह ऐसे घरेलू उद्योगों में निवेश कर रहा है जो पश्चिमी देशों पर कम निर्भर हों।
रेयर अर्थ की रणनीतिक लड़ाई
चीन के इस "लॉन्ग गेम" के फैसले का मतलब ये नहीं है कि वह अमेरिका के साथ समझौता नहीं चाहता।
प्रोफेसर टिम हारकोर्ट का कहना है कि चीन की ताकत की एक सीमा है, और उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था कई चुनौतियों से जूझ रही है, जैसे बेरोजगारी, कमजोर उपभोग और रियल एस्टेट संकट।
चीन की नेतृत्व प्रणाली पर लोकतांत्रिक चुनावों का दबाव तो नहीं होता, लेकिन फिर भी उसे मध्यवर्ग की समृद्धि बनाए रखने और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करने का दबाव झेलना पड़ता है।
हारकोर्ट कहते हैं, "अमेरिका चीन की घरेलू मुश्किलों से पूरी तरह वाकिफ है, चीन पर दबाव है और वह किसी लंबे और गंभीर व्यापार युद्ध को नहीं चाहेगा।"
शी जिनपिंग चाहते हैं कि वे बातचीत में एक मजबूत स्थिति से प्रवेश कर सकें, इसी कारण अक्टूबर में चीन ने जवाबी कदम उठाया था।
उसने रेयर अर्थ के निर्यात पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए, क्योंकि चीन के पास इन महत्वपूर्ण खनिजों की प्रोसेसिंग में लगभग एकाधिकार है।
इन्हीं खनिजों का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक्स, ग्रीन एनर्जी तकनीक और फाइटर जेट्स में होता है।
भारत के लिए यह एक बड़ी चिंता का विषय है, क्योंकि इन खनिजों पर चीन की निर्भरता रणनीतिक जोखिम पैदा करती है।
भारत ने भी अपनी रेयर अर्थ क्षमताओं को विकसित करने की दिशा में कदम उठाए हैं।
यह कदम व्यापार युद्ध में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ, और ऑस्ट्रेलिया के एडिथ कोवान विश्वविद्यालय की नाओइज़ मैकडोनो कहती हैं, "अमेरिका के टेक्नोलॉजी प्रतिबंधों से चीन की प्रगति धीमी पड़ सकती है, लेकिन चीन की ओर से रेयर अर्थ्स पर नियंत्रण लगाने से पूरे-के-पूरे उद्योग ठप हो सकते हैं।"
रेयर अर्थ को लेकर चीन की घोषणा ने अमेरिका को चौंका दिया था, खासकर इसलिए क्योंकि यह कदम उस वक्त उठाया गया जब ट्रंप ने यह कहा था कि दोनों पक्ष टिकटॉक के अमेरिकी कारोबार की बिक्री पर समझौते पर पहुंच गए हैं।
एक शीर्ष अमेरिकी ट्रेड अफसर ने इस कदम को अमेरिका-चीन के बीच समझौते की स्थिति के प्रति विश्वासघात बताया, और उसने अमेरिका को एक बार फिर याद दिलाया कि वह चीनी संसाधनों पर कितना निर्भर है।
इसके बाद अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और जापान के साथ कई नए समझौते किए ताकि उसे चीन से बाहर के स्रोतों से रेयर अर्थ्स मिल सकें।
भारत भी इस तरह की विविध आपूर्ति श्रृंखलाओं का समर्थक रहा है।
प्रोफेसर हारकोर्ट के मुताबिक, "यह अमेरिका के लिए एक तरह का 'इंश्योरेंस पॉलिसी' था ताकि वह चीन पर पूरी तरह निर्भर न रहे।"
ये समझौते उस समय हुए जब ट्रंप और अमेरिकी वार्ताकार चीन के साथ तनाव कम करने की कोशिश में थे और गुरुवार की बैठक तय करने के लिए चीनी अधिकारियों से मुलाकात कर रहे थे।
भविष्य की संभावनाएं और अनिश्चितताएं
ट्रंप और जिनपिंग की बातचीत से एक दिन पहले, रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में बताया गया कि चीन ने इस सीजन की पहली सोयाबीन खेप खरीदी, जो ट्रंप और अमेरिकी किसानों के लिए बड़ी जीत मानी जा रही है।
इसके बदले में उम्मीद की जा रही है कि शी जिनपिंग चिप्स की बिक्री पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों में ढील की मांग करेंगे।
अगर टिकटॉक सौदे को भी अंतिम मंजूरी मिल जाती है तो यह ट्रंप के लिए एक और राजनीतिक जीत होगी।
प्रोफेसर कैम का कहना है, "चाहे समझौता कितना भी नाजुक क्यों न हो, यह आने वाले महीनों में अप्रत्याशित फैसलों के जोखिम को कम कर सकता है।"
प्रोफेसर हारकोर्ट भी इससे सहमत हैं, वे कहते हैं, "मेरा मानना है कि ट्रंप प्रशासन अब भी टैरिफ़ के मामले में काफी अनिश्चित है, लेकिन ये वार्ताएं माहौल को थोड़ा शांत कर सकती हैं।"
हालांकि वे चेतावनी देते हैं, "अमेरिका और चीन के बीच कोई भी समझौता हमेशा के लिए नहीं टिकेगा।"
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