Highlights
- जयपुर के SMS अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर में आग लगने से 8 मरीजों की मौत।
- परिजनों ने अस्पताल स्टाफ पर लापरवाही और मदद न करने का आरोप लगाया।
- पुलिसकर्मियों और परिजनों ने जान जोखिम में डालकर मरीजों को बचाया।
- मुख्यमंत्री ने मुआवजे और जांच समिति के गठन की घोषणा की।
नमस्ते दोस्तों! आज बात थोड़ी गंभीर है, पर क्या करें, कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन पर चुप्पी साधना गुनाह है। जयपुर के हमारे प्यारे SMS अस्पताल में जो हुआ, वो सिर्फ एक हादसा नहीं था, जनाब! वो एक 'व्यवस्था' पर लगा आग का धब्बा है, जो शायद धुएँ की तरह फैलता जा रहा है।
ट्रॉमा सेंटर की रात: जहाँ मौत ने दस्तक दी
किस्सा कुछ यूं है कि रविवार की रात, लगभग सवा ग्यारह बजे, जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल के ट्रॉमा सेंटर के न्यूरो आईसीयू में आग लगी। कहाँ? स्टोर रूम में। क्या था वहाँ? पेपर, आईसीयू का सामान और ब्लड सैंपलर ट्यूब। और कारण? अरे! ये तो हमारा राष्ट्रीय बहाना है – 'शॉर्ट सर्किट'! अब आप ही बताइए, जहाँ इतनी ज़िंदगी और मौत का खेल चलता हो, वहाँ 'शॉर्ट सर्किट' कैसे हो सकता है? क्या ये पहले से पता नहीं था कि यहाँ ज्वलनशील सामान भी रखा जा सकता है?
उस रात 8 ज़िंदगियाँ, जिनमें तीन महिलाएँ भी शामिल थीं, धुएँ और आग की भेंट चढ़ गईं। सोचिए ज़रा, ये वो लोग थे जो अस्पताल में 'इलाज' के लिए आए थे, 'मौत' के लिए नहीं। दिलीप, रुक्मणि, पिंटू... ये सिर्फ नाम नहीं, ये उन परिवारों की बची-खुची उम्मीदें थीं, जो अब राख हो चुकी हैं। उनके परिजनों की मानें तो आग से ज़्यादा धुएँ ने जान ली। पिंटू के भाई ने बताया कि उसका पूरा मुँह काला पड़ गया था। डेढ़ घंटे बाद उसे बाहर निकाला गया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
जब सिस्टम हुआ 'शॉर्ट सर्किट': लापरवाही का धुआँ
परिजनों का आरोप है कि धुआँ उठते ही उन्होंने स्टाफ को बताया, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। क्या कमाल की बात है, है न? अस्पताल में आग की आहट मिल रही है और स्टाफ 'इमरजेंसी' में है – खुद की जान बचाने की! जोगेंद्र ने बताया कि धुआँ इतना था कि कुछ दिख नहीं रहा था, और उन्हें खुद टॉर्च लेकर अपनी माँ रुक्मणि को ढूँढना पड़ा। मदद के लिए कोई नहीं आया। कोई नहीं! सोचिए ज़रा, जिस जगह पर हर पल 'जीवन रक्षा' का पाठ पढ़ाया जाता है, वहाँ ज़रूरत पड़ने पर लोग 'भाग' जाते हैं।
दिलीप दिव्यांग थे, ठीक से देख नहीं पाते थे। उनकी माँ किशन कंवर ने अपनी आँखों के सामने उन्हें दम तोड़ते देखा, क्योंकि धुएँ में 'हाथ से हाथ भी नहीं दिख रहा था'। क्या हमारी ज़िंदगियाँ इतनी सस्ती हैं कि उन्हें यूं ही छोड़ दिया जाए? क्या ये वो 'स्वास्थ्य सेवा' है जिसका हम ढोल पीटते हैं?
कहीं 'पुलिस' तो कहीं 'परिवार': असली हीरो कौन?
अस्पताल स्टाफ तो कथित तौर पर 'मौके से फरार' हो गया, लेकिन कुछ 'हीरो' अभी भी इस देश में बचे हैं। ये वो परिवार वाले थे जिन्होंने खुद अपने मरीजों को स्ट्रेचर या बेड सहित वार्ड से बाहर निकाला। और फिर हमारे चार पुलिस कांस्टेबल – वेदवीर सिंह, हरि मोहन, ललित और हरिओम! इन बहादुरों ने अपनी जान की परवाह किए बिना आईसीयू में घुसकर 10 से ज़्यादा लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला। इन्हें धुएँ से दिक्कत हुई, इन्हें भर्ती करना पड़ा, लेकिन इन्होंने अपना फर्ज निभाया। वाह! सलाम है इन वीरों को! अच्छा हुआ, कुछ 'इंसान' अभी भी बचे हैं, जो वर्दी में हों या आम नागरिक!
फायर ब्रिगेड आई, आग बुझाई, लेकिन तब तक जो नुकसान होना था, वो हो चुका था। फायरकर्मी कह रहे थे कि पूरे वार्ड में धुआँ भरा था और अंदर जाने का कोई रास्ता ही नहीं था। तो भैया, ये आईसीयू कैसा था? परिजनों का आरोप है कि ये 'मौत का जाल' था, जहाँ ग्लासवर्क और सील्ड स्ट्रक्चर धुएँ को बाहर ही नहीं निकलने दे रहा था। क्या आईसीयू ऐसे ही बनाए जाते हैं, जहाँ 'बाहर निकलने' की जगह 'घुटन' ही घुटन हो?
सरकारी 'मरहम' और 'जांच' का खेल
और फिर आता है 'सरकारी एक्शन' का दौर! मुख्यमंत्री से लेकर उप मुख्यमंत्री तक, सब ट्रॉमा सेंटर पहुंचे। मृतकों के परिजनों को 5-5 लाख का मुआवजा और घायलों का मुफ्त इलाज। क्या एक जान की कीमत सिर्फ पांच लाख रुपये है? क्या इस 'मुआवजे' से वो माँ, वो भाई वापस आ जाएँगे जिन्होंने अपने अपनों को आँखों के सामने दम तोड़ते देखा?
और हाँ! एक 'छह सदस्यीय जांच समिति' का गठन भी हुआ है। अरे वाह! ये तो हर हादसे के बाद का 'रिचुअल' है, है न? समिति बनेगी, जाँच होगी, रिपोर्ट आएगी, और फिर सब 'शांत' हो जाएगा। अगले हादसे तक! अस्पताल अधिकारी कह रहे हैं कि नर्सिंग ऑफिसर और वार्ड बॉय ने तुरंत मरीजों को निकाला। अब आप ही बताइए, किसकी बात पर यकीन करें? 'सरकारी बयान' पर या 'आँखों देखी' पर, जहाँ परिजनों को खुद अपने अपनों को बाहर निकालना पड़ा?
आखिर कब तक?
ये कोई पहली बार नहीं है जब किसी अस्पताल में आग लगी हो और लापरवाही के आरोप लगे हों। सवाल ये है कि हम कब तक इन 'हादसों' को सिर्फ 'हादसा' मानकर भूलते रहेंगे? कब तक हम अपने अपनों को इस तरह 'सिस्टम' की बलि चढ़ाते रहेंगे? क्या हम कभी जवाबदेही तय कर पाएंगे? क्या हमारे अस्पताल वाकई 'सुरक्षित' हैं, या वो खुद 'खतरे' में हैं?
सोचिए ज़रा, अगले शिकार आप भी हो सकते हैं। क्या हम सिर्फ मुआवजे और समितियों के नाम पर इन हादसों को भुला देंगे, या फिर उठेंगे और एक सुरक्षित कल की मांग करेंगे? ये सवाल सिर्फ SMS अस्पताल का नहीं, ये हमारे पूरे 'स्वास्थ्य तंत्र' का है। जवाब आपको देना है, क्योंकि अब तो धुएँ से हाथ से हाथ भी नहीं दिख रहा।
— प्रदीप बीदावत
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