Highlights
- मकरंद देशपांडे ने 'आइंस्टीन' बनकर बच्चों को कल्पना और जिज्ञासा का महत्व समझाया।
- न्यूजीलैंड के नाटक 'द गिर्मिट' ने ब्रिटिश शासन में भारतीयों की दुर्दशा को मार्मिक रूप से दर्शाया।
- फिल्म समीक्षक अजीत राय की स्मृति में संवाद सत्र आयोजित किया गया।
- 14वें जयरंगम महोत्सव का जवाहर कला केंद्र में भव्य शुभारंभ हुआ।
जयपुर: जयपुर (Jaipur) में 14वें जयरंगम महोत्सव (Jayarangam Mahotsav) की शुरुआत हुई, जहाँ बॉलीवुड अभिनेता मकरंद देशपांडे (Makarand Deshpande) ने 'आइंस्टीन' (Einstein) बन बच्चों को खुले आकाश में उड़ने का हौसला दिया। न्यूजीलैंड (New Zealand) के नाटक 'द गिर्मिट' (The Girmitt) ने भी दर्शकों को भाव-विभोर किया।
रंगमंच, कला और संस्कृति के रंगों से सजे 14वें जयरंगम महोत्सव का गुरुवार को जवाहर कला केंद्र में भव्य शुभारंभ हुआ। यह महोत्सव कला प्रेमियों के लिए एक अद्भुत अनुभव लेकर आया है।
थ्री एम डॉट बैंड्स थिएटर फैमिली सोसाइटी, राजस्थान के कला एवं संस्कृति विभाग और जवाहर कला केंद्र जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में यह फेस्टिवल आयोजित किया जा रहा है। महोत्सव के पहले दिन कई महत्वपूर्ण प्रस्तुतियां और संवाद सत्र देखने को मिले।
मकरंद देशपांडे का 'आइंस्टीन' नाटक: बच्चों को प्रेरणा
महोत्सव की शुरुआत बॉलीवुड अभिनेता और निर्देशक मकरंद देशपांडे के निर्देशन में प्रस्तुत नाटक 'आइंस्टीन' से हुई। देशपांडे ने स्वयं महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के किरदार को मंच पर जीवंत किया।
इस नाटक के माध्यम से उन्होंने उस वैज्ञानिक की कहानी बताई, जिसने दुनिया को देखने का हमारा नजरिया पूरी तरह बदल दिया। आइंस्टीन ने समय, अंतरिक्ष और ऊर्जा की नई परिभाषाएं गढ़ीं, जिससे मानव सभ्यता को सोचने की एक नई दिशा मिली।
मंच पर देशपांडे ने दर्शाया कि आइंस्टीन की मां ने कभी उन्हें कमजोर महसूस नहीं होने दिया। उन्होंने आइंस्टीन के सपनों के पंख नहीं काटे, बल्कि उन्हें और भी मजबूती प्रदान की।
मां ने उन्हें खुले आकाश में उड़ने का हौसला दिया और यह भरोसा दिलाया कि सवाल पूछना कोई अपराध नहीं, बल्कि हर खोज की शुरुआत है। यह संदेश बच्चों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक रहा।
नाटक में यह भी बताया गया कि आइंस्टीन बचपन में एक साधारण बच्चे नहीं थे। वे दुनिया से बेखबर अपने ही विचारों के संसार में डूबे रहते थे और सोचते थे कि पक्षी आपस में क्या बातें करते होंगे।
उनकी जिज्ञासा की कोई सीमा नहीं थी; वे स्कूल में अध्यापकों से ऐसे सवाल पूछते थे जिनके जवाब किताबों में नहीं मिलते थे। इसी कारण उन्हें 'अलग' समझकर स्कूल से निकाल दिया गया था।
मकरंद देशपांडे ने मंच पर बच्चों को थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (सापेक्षता का सिद्धांत) के महत्व से भी परिचित कराया। इसे सरल और रोचक उदाहरणों के साथ समझाया गया।
बच्चों को बताया गया कि जब हम किसी काम में पूरी तरह डूबे होते हैं तो समय कैसे तेजी से बीत जाता है, और जब मन ऊबा हुआ हो तो वही समय कितना भारी लगने लगता है। यह सिद्धांत जीवन के अनुभव से जुड़ा है।
यह नाटक बच्चों को एक महत्वपूर्ण संदेश देता है कि अपनी कल्पनाशक्ति को कभी बांधकर नहीं रखना चाहिए। उसे हर दिशा में बेरोक-टोक दौड़ने देना चाहिए।
दिमाग की साइकिल पर विचारों के पैडल लगातार मारते रहना चाहिए, क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो संतुलन बिगड़ सकता है। यह विचारों की स्वतंत्रता का प्रतीक है।
न्यूजीलैंड का मार्मिक नाटक: 'द गिर्मिट'
महोत्सव के पहले दिन समीना जेहरा के निर्देशन में न्यूजीलैंड की नाट्य प्रस्तुति 'द गिर्मिट' का भी मंचन हुआ। इस बेहद संवेदनशील और प्रभावशाली नाटक ने कलाप्रेमियों को भाव-विभोर कर दिया।
रंगायन के मंच पर प्रस्तुत इस नाटक में ब्रिटिश शासन काल की एक मार्मिक कहानी दर्शाई गई। इसमें दिखाया गया कि कैसे गरीब और निरक्षर भारतीयों को बेहतर रोजगार के झूठे सपने दिखाए गए।
उन्हें कागजों पर अंगूठा लगवाकर फिजी और अन्य देशों में अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के लिए भेज दिया गया। ये लोग 'गिर्मिटिया' के नाम से जाने गए।
नादिया फ्रीमैन ने मंच पर अपनी सशक्त प्रस्तुति से गिर्मिटिया लोगों की पीड़ा, बिछोह, असहायता और संघर्ष को गहराई से दर्शाया। उनके सधे हुए अभिनय ने दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ दिया।
प्रस्तुति में ऑडियो-विजुअल्स का प्रभावशाली ढंग से प्रयोग किया गया। इससे गिर्मिटिया समाज के दर्द और उनके टूटते सपनों को जीवंत रूप में सामने रखा जा सका।
नाटक में वेस्टर्न म्यूजिक और तबले के फ्यूजन ने भावनात्मक गहराई को और बढ़ाया। जयपुर के 16 वर्षीय मो. ज़मान ने तबले पर अपनी थिरकती अंगुलियों के साथ इस अंतरराष्ट्रीय प्रस्तुति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अजीत राय स्मृति संवाद: सिनेमा का विश्वकोष
महोत्सव के दौरान नाटक व फिल्म समीक्षक-आलोचक अजीत राय की स्मृति में एक विशेष संवाद सत्र भी आयोजित किया गया। यह सत्र 'अजीत राय– थिएटर, सिनेमा एंड एवरीथिंग इन बिटवीन' विषय पर केंद्रित था।
संवाद की शुरुआत कुछ ऐसी शांति के साथ हुई: 'शब्द मौन रहे और जीभ लड़खड़ाती रही, सभागार में सन्नाटा छाया रहा।' यह अजीत राय के निधन पर कला जगत के दुख को दर्शाता था।
इस टॉक शो में मकरंद देशपांडे, गुलाब सिंह तंवर, धर्मेंद्र नाथ ओझा और राजकुमार रजक ने अपने विचार साझा किए। सत्र का मॉडरेशन अभिषेक गोस्वामी ने बखूबी किया।
राजकुमार रजक ने बताया कि अजीत राय की लेखनी को पढ़कर यह स्पष्ट होता है कि एक समीक्षक का क्या गहरा प्रभाव हो सकता है। उनकी रचनात्मकता अद्वितीय थी।
उन्होंने यह भी बताया कि राय की लेखनी में नाटक की शुरुआत से लेकर अंत तक की प्रक्रिया में आम जीवन के अनुभवों को रचनात्मक शब्दों में गढ़ा जाता था। यह उनकी लेखन शैली की विशेषता थी।
अजीत राय के जीवन से यह बात सीखने को मिलती है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती। वे हमेशा कुछ नया सीखने और समझने के लिए उत्सुक रहते थे।
धर्मेंद्र नाथ ओझा ने कहा कि कला जगत में होने वाली हर घटना उन्हें बेचैन कर देती थी। वे कला और कलाकारों के सम्मान की पुरजोर पैरवी करते थे और उनके अधिकारों के लिए खड़े रहते थे।
गुलाब सिंह तंवर ने अजीत राय के व्यक्तित्व को बहुत बड़ा बताया। उन्होंने कहा कि राय का प्रभाव केवल सिनेमा तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वे कला के हर क्षेत्र में गहरी समझ रखते थे।
मकरंद देशपांडे ने अजीत राय के साथ बिताए सुखद पलों को याद किया। उन्होंने बताया कि अजीत राय भावनाओं के वाहक और ऊर्जा के स्रोत थे, जिनसे मिलकर हमेशा सकारात्मकता मिलती थी।
यह संवाद सत्र अजीत राय जैसे महान समीक्षक को श्रद्धांजलि देने और उनकी विरासत को याद करने का एक महत्वपूर्ण अवसर था। उन्होंने भारतीय सिनेमा और रंगमंच को अपनी लेखनी से समृद्ध किया।
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