Highlights
- 1971 युद्ध के नायक बलवंतसिंह बाखासर की प्रतिमा का अनावरण 13 दिसंबर को।
- केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथसिंह और उपमुख्यमंत्री दियाकुमारी सहित कई गणमान्य अतिथि होंगे शामिल।
- बलवंतसिंह ने स्थानीय ज्ञान से भारतीय सेना को पाकिस्तान के छाछरो तक पहुँचाया।
- डाकू से देशभक्त बने बलवंतसिंह की कहानी देशभक्ति का अनूठा उदाहरण।
बाड़मेर: 1971 भारत-पाक युद्ध (Indo-Pak War) के नायक, डाकू से देशभक्त बने बलवंतसिंह बाखासर (Balwant Singh Bakhasar) की प्रतिमा का अनावरण 13 दिसंबर को होगा। राजनाथसिंह (Rajnath Singh) और दियाकुमारी (Diya Kumari) मुख्य अतिथि होंगे।
1971 के युद्ध में राजस्थान का पश्चिमी मोर्चा
1971 का भारत-पाक युद्ध भारतीय इतिहास के सबसे निर्णायक सैन्य संघर्षों में से एक था, जिसने एक नए राष्ट्र बांग्लादेश के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। इस युद्ध में पश्चिमी मोर्चे पर राजस्थान की तपती धरती ने भारतीय सेना के शौर्य और रणनीतिक कौशल की अनूठी गाथा लिखी। सेना का मुख्य लक्ष्य पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र में प्रवेश कर उनकी अग्रिम चौकियों को ध्वस्त करना था, ताकि दक्षिणी-पश्चिमी मोर्चे पर दुश्मन पर भारी दबाव बनाया जा सके और उनकी सैन्य आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया जा सके। इस महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण अभियान की कमान जयपुर के पूर्व महाराजा, ब्रिगेडियर कर्नल भवानी सिंह जी के हाथों में थी, जिन्हें भारत के सबसे बहादुर और रणनीतिकार राजपूत योद्धाओं में गिना जाता है। उनका नेतृत्व इस अभियान की सफलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था।
बलवंतसिंह बाखासर: रेत के साम्राज्य का महारथी और गुप्त मार्गों का ज्ञाता
राजस्थान के बाड़मेर जिले का बाखासर क्षेत्र हमेशा से अपनी दुर्गम भौगोलिक कठिनाइयों के लिए जाना जाता रहा है। यह इलाका ऊँचे-नीचे रेत के टीलों, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों और अदृश्य सीमा रास्तों से भरा है, जहाँ सामान्यतः रास्ता खोजना बेहद मुश्किल होता है। इस दुर्गम क्षेत्र को अपनी हथेली की रेखाओं की तरह जानने वाला एक नाम था – बलवंतसिंह बाखासर। उनकी पाकिस्तान सीमा के छाछरो इलाके तक पहुँच और उस पर उनकी पकड़ किसी भी सैन्य नक्शे से कहीं अधिक भरोसेमंद थी। उनका यह गहन स्थानीय ज्ञान भारतीय सेना के लिए एक अमूल्य संपत्ति साबित हुआ, खासकर ऐसे समय में जब हर कदम पर खतरा था।
जब देश ने पुकारा: डाकू से देशभक्त की यात्रा
कथाओं के अनुसार, जब भारतीय सेना को इस जटिल और शत्रुतापूर्ण इलाके में एक विश्वसनीय मार्गदर्शक की तीव्र आवश्यकता पड़ी, तो कर्नल ब्रिगेडियर भवानी सिंह को बलवंतसिंह बाखासर का स्मरण हुआ। उन्हें तुरंत संदेश भेजा गया, और बलवंतसिंह बिना एक क्षण गंवाए सेना के सामने हाज़िर हो गए। बताया जाता है कि उन्होंने सिर्फ इतना कहा, "आज से मेरी बंदूकें सिर्फ़ वतन के लिए चलेंगी।" यह एक डाकू के जीवन से देशभक्त बनने की अविस्मरणीय यात्रा की शुरुआत थी, जहाँ बलवंतसिंह ने अपने व्यक्तिगत अतीत और हितों से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा। उनका यह निर्णय भारतीय सेना के लिए एक बड़ा वरदान साबित हुआ।
रणकौशल का अनूठा प्रदर्शन: जोंगा जीपों को बनाया टैंक
युद्ध में रणकौशल और छल अभिन्न अंग होते हैं, जो दुश्मन को भ्रमित कर अपनी जीत सुनिश्चित करने में मदद करते हैं। कर्नल भवानी सिंह और बलवंतसिंह बाखासर ने मिलकर एक असाधारण और रचनात्मक रणनीति तैयार की। उन्होंने भारतीय सेना की जोंगा जीपों के साइलेंसर निकाल दिए ताकि उनकी आवाज़ टैंकों जैसी गर्जना कर सके। सुनसान रेगिस्तानी इलाके में इन जीपों की गर्जना सुनकर पाकिस्तानी फौज को यह भ्रम हुआ कि भारतीय सेना भारी कवच और टैंकों के साथ आगे बढ़ रही है। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध ने पाक चौकियों में गहरा भय और भ्रम फैला दिया, जिससे भारतीय सेना को तेज़ी से आगे बढ़ने का एक अप्रत्याशित रास्ता मिल गया।
यह वह क्षेत्र था जहाँ बिना स्थानीय मार्गदर्शक के पहुँचना लगभग असंभव था। बलवंतसिंह का अद्वितीय स्थानीय ज्ञान और उनके द्वारा सुझाए गए गुप्त मार्ग युद्ध का निर्णायक हथियार बन गए। उन्होंने सेना को उन कच्चे और छिपे हुए रास्तों से निकाला, जिन्हें सिर्फ स्थानीय लोग ही जानते थे और जिनका कोई भी आधिकारिक नक्शा मौजूद नहीं था। उनके इस सटीक मार्गदर्शन में भारतीय सेना की टुकड़ियाँ सीधे पाकिस्तान के छाछरो तक पहुँच गईं, जो सिंध प्रांत में एक महत्वपूर्ण सैन्य और रणनीतिक लक्ष्य था।
छाछरो पर भारतीय सेना का विजय अभियान और तिरंगे का गौरव
बलवंतसिंह के सटीक और विश्वसनीय मार्गदर्शन तथा कर्नल भवानी सिंह के कुशल और दूरदर्शी नेतृत्व में भारतीय सेना ने छाछरो में स्थित कई पाकिस्तानी चौकियों को सफलतापूर्वक ध्वस्त कर दिया। इस अभियान के दौरान कई स्रोतों में उल्लेख मिलता है कि भारतीय सेना ने करीब सौ से अधिक पाकिस्तानी गाँवों पर भारत का तिरंगा फहराया था, जो एक बड़ी सैन्य उपलब्धि थी। यह विजय भारतीय सेना की असाधारण बहादुरी, दृढ़ संकल्प और एक स्थानीय नायक के अमूल्य योगदान का प्रत्यक्ष परिणाम थी, जिसने 1971 के युद्ध में पश्चिमी मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण मोड़ लाने में निर्णायक भूमिका निभाई।
ब्रिगेडियर भवानी सिंह: एक अद्वितीय सैन्य कमांडर और रणनीतिकार
ब्रिगेडियर भवानी सिंह को इस अभियान में उनके असाधारण नेतृत्व, अदम्य साहस और अद्वितीय रणनीतिक कौशल के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च सैन्य सम्मान, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनका नाम भारतीय सेना के सर्वश्रेष्ठ कमांडरों में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। एक राजपूत राजवंश से आने वाले योद्धा जिनकी युद्ध रणनीतियाँ आज भी सैन्य अध्ययनों में मिसाल मानी जाती हैं। उनका दूरदर्शी नेतृत्व और बलवंतसिंह जैसे स्थानीय नायकों की क्षमता पर उनका विश्वास ही इस ऐतिहासिक विजय का आधार बना। उन्होंने दिखाया कि सही रणनीति और सही लोगों का साथ कैसे असंभव को भी संभव बना सकता है।
कानून तोड़ने वाला नहीं, देश के लिए जीने वाला बलवंतसिंह बाखासर
युद्ध के बाद बलवंतसिंह के जीवन में सब कुछ बदल गया। भारत सरकार ने उनके विरुद्ध चल रहे सभी आपराधिक मामले वापस ले लिए और उनके साहसिक तथा राष्ट्रभक्तिपूर्ण योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें दो वैध शस्त्र लाइसेंस भी प्रदान किए। स्थानीय जनमानस में वे आज भी "सीमा के संरक्षक" के नाम से अत्यंत सम्मान के साथ याद किए जाते हैं। बलवंतसिंह की वीरता की वह गाथा आज भी रेतीले टीलों में गूंजती है, जो हमें देशभक्ति के सच्चे मायने सिखाती है और यह दर्शाती है कि राष्ट्र के प्रति समर्पण किसी भी पृष्ठभूमि से आ सकता है।
यह कहानी एक ऐसे डाकू की है, जिसने अपने जीवन का रास्ता मोड़कर अपने वतन की राह चुन ली और 1971 के युद्ध के सबसे अनसुने, पर सबसे निर्णायक नायकों में अपना नाम दर्ज करवा दिया। उनकी कहानी हमें यह याद दिलाती है कि देशभक्ति किसी जन्मपत्री में नहीं लिखी जाती, बल्कि यह हमारे निर्णयों और राष्ट्र के प्रति हमारे समर्पण में प्रकट होती है। यह प्रेरणा देती है कि कोई भी व्यक्ति, अपने अतीत से परे जाकर, राष्ट्र के लिए महान और अमूल्य योगदान दे सकता है, और इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों में लिखवा सकता है।
- गुलाबसिंह भाटी
राजनीति