Highlights
- छात्र राजनीति से संसद और विधानसभा तक का लंबा सफर तय किया।
- पश्चिमी राजस्थान में 'किसानों के मसीहा' और 'किसान केसरी' के रूप में पहचान बनाई।
- अशोक गहलोत और सचिन पायलट के साथ उनके राजनीतिक रिश्ते जटिल रहे।
- 2013 में नेता प्रतिपक्ष बने और किसानों के मुद्दों को मुखरता से उठाया।
क्या कभी आपने सोचा है, राजनीति की उस बिसात पर, जहाँ हर मोहरा अपनी चाल चलता है, कुछ किरदार ऐसे भी होते हैं, जो सिर्फ कुर्सी के लिए नहीं, बल्कि उस मिट्टी के लिए जीते हैं, जिससे वो पैदा हुए हैं? वो मिट्टी, जिसकी खुशबू उनकी रगों में दौड़ती है, और जिसकी आवाज़ उनकी ज़ुबान पर हमेशा रहती है।
आज हम उस नेता के पन्नों को पलटेंगे, जिसने छात्र राजनीति की दहलीज से लेकर देश की संसद और राजस्थान की विधानसभा तक का सफ़र तय किया। एक ऐसा नाम, जो कभी किसानों का मसीहा बना, तो कभी सियासी शतरंज में अपनों के ही जाल में उलझता चला गया। पश्चिमी राजस्थान की राजनीति में अपनी एक अमिट छाप छोड़ने वाले वो नाम थे, रामेश्वर डूडी।
एक शख्सियत, जिसका जीवन संघर्षों, उम्मीदों और अप्रत्याशित मोड़ों से भरा रहा। एक ऐसा सफर, जो ऊंचाइयों पर पहुँचा, ज़मीन से जुड़े रहकर आसमान को छूने का हौसला दिया, लेकिन फिर... अचानक एक ऐसी खामोशी में बदल गया, जिसने पूरे प्रदेश को स्तब्ध कर दिया। आज हम उसी रहस्यमय और नाटकीय यात्रा को खंगालेंगे, जो सिर्फ एक राजनीतिक जीवन नहीं, बल्कि एक युग की दास्तां है।
किसानों की बुलंद आवाज़: रामेश्वर डूडी का प्रारंभिक जीवन और राजनीतिक उदय
रामेश्वर डूडी, वो नाम जो आज भी पश्चिमी राजस्थान में किसानों की बुलंद आवाज़ के रूप में गूंजता है। उनका राजनीतिक जीवन सिर्फ पदों की फेहरिस्त नहीं, बल्कि संघर्ष, जुनून और जनता से सीधे जुड़ाव की एक लंबी कहानी थी। उनका जन्म 1 जुलाई 1963 को एक साधारण परिवार में हुआ।
डूडी ने पहले बी.कॉम की डिग्री हासिल की और फिर राजनीति की उस राह पर कदम रखा, जो उन्हें मिट्टी से उठाकर शिखर तक ले जाने वाली थी। उनकी शुरुआत किसी बड़े राजनीतिक मंच से नहीं, बल्कि छात्र राजनीति की तपती गलियों से हुई। एनएसयूआई (NSUI) के झंडे तले, उन्होंने छात्र आंदोलनों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई, और यहीं से उनकी पहचान एक जुझारू और मुखर युवा नेता के रूप में बनी।
साल 1995, ये वो वर्ष था, जब रामेश्वर डूडी ने अपने राजनीतिक सफर की असली नींव रखी। वो पहली बार पंचायत समिति सदस्य बने, और फिर नोखा (बीकानेर) के प्रधान पद की ज़िम्मेदारी संभाली। 1995 से 1999 तक, उन्होंने इस पद पर रहकर ग्रामीण राजनीति की नब्ज़ को समझा।
लेकिन उनकी कहानी में असाधारण मोड़ तब आया, जब उन्होंने पंचायती राज स्तर की इन छोटी सीढ़ियों से सीधे केंद्रीय राजनीति में छलांग लगा दी। ये राजनीति में दुर्लभ माना जाता है कि कोई नेता इतनी जल्दी ग्रामीण राजनीति से सीधे राष्ट्रीय पटल पर पहुँच जाए।
नोखा से संसद तक का सफर: राष्ट्रीय राजनीति में डूडी का प्रवेश
नोखा की पंचायत समिति से शुरू हुआ उनका सफर, अब संसद के गलियारों तक पहुँच चुका था। साल 1999 में, प्रधान रहते हुए ही, उन्होंने बीकानेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और शानदार जीत दर्ज की। उसी दौर में, केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे, और रामेश्वर डूडी 13वीं लोकसभा के सदस्य के रूप में अपनी नई भूमिका निभा रहे थे।
1999 से 2004 तक, उन्होंने बीकानेर का प्रतिनिधित्व किया, और इस दौरान खाद्य, नागरिक आपूर्ति और सार्वजनिक वितरण समिति के सदस्य के रूप में भी महत्वपूर्ण कार्य किए।
लेकिन सियासत की धूप-छाँव उन्हें हमेशा मिलती रही। 2004 में, उन्होंने एक बार फिर बीकानेर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार उनकी टक्कर किसी और से नहीं, बल्कि बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता और भाजपा उम्मीदवार धर्मेंद्र से थी। और इस बार, किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया, उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
हार के बाद ज़मीन से जुड़ाव और नेता प्रतिपक्ष की भूमिका
हार ने डूडी को कमज़ोर नहीं किया, बल्कि उन्हें और भी दृढ़ बना दिया। वो एक बार फिर अपनी ज़मीन की ओर लौटे, और 2005 से 2010 तक, उन्होंने दो बार जिला प्रमुख (Zila Parishad) का पद संभाला। ये उनकी जनता के बीच गहरी पैठ और लोकप्रियता का प्रमाण था।
फिर आया 2013 का साल, जब उन्होंने राजस्थान विधानसभा चुनाव में नोखा सीट से ऐतिहासिक जीत हासिल की। और यहाँ से उनकी भूमिका और भी बड़ी और निर्णायक हो गई। 23 जनवरी 2013 से 13 दिसंबर 2018 तक, रामेश्वर डूडी ने राजस्थान विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाली।
वसुंधरा राजे के कार्यकाल में, उन्होंने विपक्ष की भूमिका को सिर्फ निभाया नहीं, बल्कि पूरी आक्रामकता और मुखरता के साथ जिया। ग्रामीण और किसान हितों के मुद्दों को उन्होंने इतनी प्रभावी ढंग से उठाया कि पूरे प्रदेश ने उनकी आवाज़ को सुना और सराहा। वो किसानों की एक बुलंद आवाज़ बन चुके थे, 'किसानों के मसीहा' के रूप में उनकी पहचान मज़बूत होती जा रही थी।
सियासी उतार-चढ़ाव और नियति का क्रूर खेल
लेकिन राजनीति की धारा कब बदल जाए, कोई नहीं जानता। 2018 के विधानसभा चुनाव में, नोखा सीट से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में उन्हें भाजपा के बिहारीलाल बिश्नोई से फिर हार का सामना करना पड़ा। ये वो दौर था, जब उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार भी माना जा रहा था, लेकिन इस हार ने कई समीकरण बदल दिए। फिर भी, पार्टी के भीतर उनकी साख और अहमियत बनी रही।
2022 से 2025 तक, उन्हें राजस्थान राज्य कृषि उद्योग विकास बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, और इस पद पर उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी प्राप्त था। ये उनकी पार्टी के भीतर मज़बूत स्थिति का संकेत था। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। अगस्त 2023 में, एक भयानक ब्रेन हेमरेज ने उनकी सक्रिय राजनीतिक यात्रा पर अचानक विराम लगा दिया। वो लगभग दो साल तक कोमा में रहे, और फिर 4 अक्टूबर 2025 को, संघर्षों से भरी एक आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई।
जटिल राजनीतिक रिश्ते: गहलोत और पायलट से समीकरण
रामेश्वर डूडी का राजनीतिक जीवन सिर्फ जीत और हार का लेखा-जोखा नहीं था, बल्कि कांग्रेस के भीतर उनके जटिल रिश्तों की कहानी भी थी, खासकर अशोक गहलोत और सचिन पायलट जैसे प्रमुख नेताओं के साथ उनके समीकरण, समय के साथ बदलते रहे।
कहा जाता है कि अशोक गहलोत के साथ डूडी के रिश्ते में पहले "जमीन बर्फ" की तरह जमी हुई थी, यानी दोनों के बीच एक गहरी दूरी थी। लेकिन धीरे-धीरे ये बर्फ पिघलने लगी। अशोक गहलोत ने खुद डूडी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त करते हुए कहा था कि उन्होंने डूडी के साथ सांसद, विधायक और नेता प्रतिपक्ष के रूप में कार्य किया था, जो उनके पुराने जुड़ाव को दर्शाता है। लेकिन मुख्यमंत्री पद की दावेदारी की बात आती है, तो कहानी में एक गहरा मोड़ आता है।
जब राजस्थान में मुख्यमंत्री पद को लेकर टकराव चरम पर था, तब अशोक गहलोत का नाम दावेदारों में शामिल नहीं था, वे केंद्र में संगठन महासचिव जैसे बड़े पद पर थे। लेकिन सियासी गलियारों में ये माना जाता है कि 'जादूगर' (अशोक गहलोत) की ओर से ही कोई ऐसी चाल चली गई थी, जिसके कारण डूडी की "बाली" सबसे पहले चली गई, और ऐसा लगा जैसे उनके साथ "खेल हुआ"।
मगर सियासत की नदियाँ हमेशा एक दिशा में नहीं बहतीं। अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन के अंतिम चरण में, रामेश्वर डूडी ने स्पष्ट रूप से सचिन पायलट का खेमा छोड़कर, अशोक गहलोत की टीम का दामन थाम लिया था। उन्हें बाद में राजस्थान राज्य कृषि उद्योग विकास बोर्ड का अध्यक्ष (कैबिनेट मंत्री का दर्जा) नियुक्त किया गया।
ये कदम तब आया जब लोकसभा चुनाव समाप्त हो चुके थे और उसके कुछ समय बाद पदों का वितरण शुरू हुआ। ये बात भी कही गई कि चार साल तक रामेश्वर डूडी अशोक गहलोत के साथ नहीं दिखे थे, लेकिन फिर अचानक उन्हें ये महत्वपूर्ण पद दिया गया। गहलोत ने डूडी के निधन को "बेहद दुखद खबर" और अपने लिए "व्यक्तिगत तौर पर एक आघात" कहा था। उन्हें याद था कि ब्रेन स्ट्रोक से कुछ दिन पहले ही डूडी उनसे मिलने आए थे और उनके बीच लंबी बातचीत हुई थी। गहलोत ने यह भी बताया कि उन्होंने डूडी के इलाज के लिए "बेहतर से बेहतर प्रबंध किए" थे, जो उनके व्यक्तिगत लगाव को दर्शाता है।
अब आते हैं सचिन पायलट के साथ उनके संबंधों पर। वसुंधरा राजे के कार्यकाल के दौरान, जब डूडी विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में संघर्ष कर रहे थे, और सचिन पायलट पीसीसी अध्यक्ष के रूप में सड़क पर अपनी ताक़त दिखा रहे थे, तब इन दोनों नेताओं के बीच गज़ब की तालमेल थी।
उस समय ऐसी बातें चलती थीं कि सचिन पायलट और रामेश्वर डूडी की अच्छी ट्यूनिंग है। लेकिन चुनाव में टिकट वितरण के समय, इन दोनों के बीच थोड़ी सी खटास आने लगी थी। डूडी स्वयं मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में शामिल थे, और शुरुआती दौर में, यह माना जाता था कि वह सचिन पायलट खेमे के समर्थक थे और चाहते थे कि सचिन पायलट ही मुख्यमंत्री बनें।
लेकिन वक्त के साथ दूरियां बढ़ती गईं, और उनके बीच एक अदावत (दुश्मनी) का साया भी मंडराने लगा। लोकसभा चुनाव समाप्त होने के कुछ समय बाद, जब राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन (RCA) का चुनाव हुआ, तब रामेश्वर डूडी ने सचिन पायलट खेमे से थोड़ी दूरी बना ली थी, हालांकि ये दूरी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी।
डूडी ने एक बार मुख्यमंत्री के लिए 'धृतराष्ट्र' शब्द का इस्तेमाल भी किया था, जो संभवतः पायलट खेमे से उनकी बढ़ती दूरी को ही दर्शाता था। सूत्रों के अनुसार, डूडी ने स्पष्ट रूप से सचिन पायलट का खेमा छोड़ दिया और गहलोत की टीम में शामिल हो गए। जसरासर में आयोजित एक किसान सम्मेलन, जिसमें मुख्यमंत्री गहलोत पहुँचे थे, में पायलट खेमे के किसी भी नेता को नहीं बुलाया गया, जिसने इस अलगाव को और पुख्ता कर दिया।
किसानों के मसीहा और जाट राजनीति के कद्दावर नेता
रामेश्वर डूडी राजस्थान की सियासत में 'किसानों के मसीहा' और जाट समुदाय के एक कद्दावर नेता के रूप में जाने जाते थे। उन्हें पश्चिमी राजस्थान में किसानों की एक बुलंद आवाज़ माना जाता था। उनकी पहचान 'किसान केसरी' के रूप में थी। किसान हितों के लिए उनकी सक्रियता, उनकी आक्रामक शैली और मुद्दों पर उनका सख्त रुख, उन्हें आम जनता के बीच अत्यंत लोकप्रिय बनाता था। उन्होंने पश्चिमी राजस्थान के किसानों की आवाज़ को पुरजोर तरीके से बुलंद किया।
नेता प्रतिपक्ष के रूप में उन्होंने वसुंधरा राजे की सरकार के समय ग्रामीण और किसान हितों के मुद्दों को इतनी प्रभावी ढंग से उठाया कि उनकी आवाज़ दूर-दूर तक गूंजी। वो किसानों का लगातार आह्वान करते थे कि वे खेती को उद्योग के रूप में विकसित करें, ताकि उनकी आय में कई गुना वृद्धि की जा सके।
लोकसभा में खाद्य, नागरिक आपूर्ति और सार्वजनिक वितरण समिति के सदस्य के तौर पर, और फिर राजस्थान राज्य कृषि उद्योग विकास बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने किसानों के हितों से जुड़े कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया। उनकी सादगी, किसानों के प्रति समर्पण और जुझारू तेवर ने उन्हें 'डूडी भैया' बना दिया था।
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी इस बात का उल्लेख किया था कि रामेश्वर डूडी किसान वर्ग के लिए हमेशा काम करते रहे। उनका राजनीतिक करियर संघर्ष, समर्पण और जनता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रतीक रहा।
जाट राजनीति में डूडी का कद बेहद ऊँचा था। उनकी गिनती राजस्थान के बड़े जाट नेताओं में होती थी, और वो कांग्रेस में एक सक्रिय जाट नेता की छवि रखते थे। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में तो उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार भी माना गया था, भले ही वे उस चुनाव में नोखा सीट से हार गए थे।
जाट महासम्मेलन में उनकी खुली मांग, "हम जाट सीएम चाहते हैं, नंबर दो से कम नहीं चलेगा", उन्हें कांग्रेस के भीतर जाट वोट बैंक की राजनीति में एक मज़बूत आवाज़ के रूप में स्थापित करती है। कांग्रेस को भी ऐसा लगता था कि जाट वोट, जो हनुमान बेनीवाल जैसे नेताओं की ओर जा रहा था, उसे डूडी के माध्यम से वापस लाया जा सकता है।
इससे पार्टी के लिए उनकी राजनीतिक अहमियत साफ होती है। छात्र राजनीति से शुरुआत कर, पंचायत समिति प्रधान और जिला प्रमुख जैसे स्थानीय पदों पर मज़बूत पकड़ बनाना, और फिर उनकी पत्नी सुशीला डूडी का नोखा से वर्तमान विधायक होना, उनके परिवार के नोखा और बीकानेर क्षेत्र में मज़बूत राजनीतिक प्रभाव को दर्शाता है।
एक युग का अंत: रामेश्वर डूडी की विरासत
तो ये थी, रामेश्वर डूडी की कहानी। एक राजनेता, जो सिर्फ आंकड़ों और पदों में नहीं सिमटा, बल्कि जिसने एक पूरी विचारधारा को आवाज़ दी। मिट्टी से उठकर, उन्होंने संघर्ष, समर्पण और अपने जुझारू तेवरों से राजस्थान की राजनीति में एक ऐसी अमिट छाप छोड़ी, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। वो भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन 'किसानों के मसीहा' की उनकी छवि, और जाट समुदाय के लिए उनकी बुलंद आवाज़, राजस्थान की सियासत में हमेशा एक सशक्त और प्रभावशाली विरासत के रूप में अमर रहेगी। रामेश्वर डूडी का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची राजनीति सिर्फ कुर्सी और सत्ता का खेल नहीं, बल्कि उन लोगों की आवाज़ बनना है, जिन्हें अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। उनकी ये गाथा सिर्फ एक स्मृति नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा है... एक ऐसी प्रेरणा, जो याद दिलाती है कि कुछ लोग इतिहास लिखते हैं, और कुछ लोग इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। उनकी ये कहानी हमेशा याद रहेगी।