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मृत्यु के बाद भी यदि इंसान को चैन नसीब न हो, यदि शव को सम्मानपूर्वक मोर्चरी तक पहुँचाना भी चुनौती बन जाए, तो यह सवाल हम सबके सामने खड़ा होता है—क्या यह वही स्वास्थ्य व्यवस्था है जिस पर गर्व किया जाता है?
सिरोही जिला अस्पताल की मोर्चरी के बाहर जो नज़ारा सामने आया, वह सिर्फ़ बदइंतज़ामी का नमूना नहीं, बल्कि हमारी पूरी व्यवस्था के खोखलेपन का प्रतीक है। एक मासूम बालिका का शव एक घंटे तक मोर्चरी के मुहाने पर वैन में फंसा रहा। कीचड़ और पानी से धंसी वैन को ट्रैक्टर खींचकर निकालना पड़ा। ज़रा सोचिए, परिजनों को मजबूरी में शव अपने हाथों पर उठाकर घुटनों तक भरे कीचड़ और पानी से गुजरना पड़ा। यह दृश्य किसी फ़िल्म का दृश्य नहीं, बल्कि हक़ीक़त थी, जिसे ज़िंदा लोग सह रहे थे और मृतक की आत्मा देख रही थी।
सबसे शर्मनाक पहलू यह रहा कि जिला अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी (PMO) मौके पर मौजूद थे। लेकिन उनकी भूमिका सिर्फ़ तमाशबीन की रही। वे खड़े होकर देख रहे थे, पर हालात सुधारने की कोई ठोस कोशिश नहीं की। सवाल यह उठता है कि यदि जिले का सबसे बड़ा जिम्मेदार अधिकारी भी मूकदर्शक बना रहे, तो फिर सुधार की उम्मीद किससे की जाए?
यह घटना बताती है कि अस्पताल प्रशासन की संवेदनाएँ मर चुकी हैं। अस्पताल का परिसर किसी श्मशान जैसी चुप्पी और लापरवाही से भरा पड़ा है। यह केवल एक परिवार का दर्द नहीं है, बल्कि पूरी व्यवस्था की नाकामी की गवाही है।
मृत्यु के बाद भी यदि इंसान को चैन नसीब न हो, यदि शव को सम्मानपूर्वक मोर्चरी तक पहुँचाना भी चुनौती बन जाए, तो यह सवाल हम सबके सामने खड़ा होता है—क्या यह वही स्वास्थ्य व्यवस्था है जिस पर गर्व किया जाता है?
दरअसल, शव कीचड़ में अटका नहीं था, इंसानियत और जिम्मेदारी इस पूरे सिस्टम के दलदल में धंसी हुई थी।