Highlights
- भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की बगराम एयरबेस वापसी की मांग का विरोध किया।
- तालिबान विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी जल्द भारत दौरे पर आ रहे हैं।
- मॉस्को में 10 देशों ने सैन्य ढांचे की तैनाती को अस्वीकार्य बताया।
- बगराम एयरबेस का भारतीय इतिहास, सिकंदर और मुगलों से संबंध।
नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (US President Donald Trump) की अफगानिस्तान (Afghanistan) के बगराम एयरबेस (Bagram Airbase) को वापस सौंपने की मांग का भारत (India) ने तालिबान (Taliban), पाकिस्तान (Pakistan), चीन (China) और रूस (Russia) के साथ मिलकर विरोध किया है। यह फैसला तालिबान विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी (Amir Khan Muttaqi) की भारत यात्रा से पहले आया है।
मॉस्को बैठक और भारत का रुख
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अफगानिस्तान को दी गई धमकियों के खिलाफ भारत ने एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंच पर तालिबान का साथ दिया है।
अफगानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यह एक बड़ा मोड़ है, जो भारत की बदलती विदेश नीति को दर्शाता है।
भारत ने तालिबान, पाकिस्तान, चीन और रूस सहित कई देशों के साथ मिलकर ट्रंप की उस मांग का विरोध किया है, जिसमें उन्होंने अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस को अमेरिका को वापस सौंपने की बात कही थी।
यह महत्वपूर्ण घटनाक्रम उस समय सामने आया है जब तालिबान शासित अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी इस हफ्ते भारत की ऐतिहासिक यात्रा पर आने वाले हैं।
मॉस्को में आयोजित ‘मॉस्को फॉर्मेट कंसल्टेशन ऑन अफगानिस्तान’ की सातवीं बैठक में 10 देशों ने हिस्सा लिया, जिनमें भारत, ईरान, कजाकिस्तान, चीन, पाकिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान शामिल थे।
बेलारूस के प्रतिनिधि भी इस बैठक में अतिथि के रूप में मौजूद रहे।
इस बैठक का मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता को बढ़ावा देना तथा क्षेत्रीय सहयोग को मजबूत करना था।
बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में किसी देश का नाम लिए बिना स्पष्ट रूप से कहा गया कि प्रतिभागियों ने अफगानिस्तान या उसके पड़ोसी देशों में किसी भी देश की ओर से सैन्य ढांचे की तैनाती के प्रयासों को अस्वीकार्य बताया।
इस बयान में यह भी कहा गया कि ऐसी कोई भी सैन्य तैनाती क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के खिलाफ होगी और इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
यह संयुक्त बयान सीधे तौर पर ट्रंप की बगराम एयरबेस को वापस लेने की योजना की आलोचना के रूप में देखा जा रहा है, जो अमेरिका के लिए एक कूटनीतिक झटका है।
भारत का यह रुख अफगानिस्तान में एक समावेशी सरकार के गठन और वहां के लोगों के अधिकारों की रक्षा के उसके लंबे समय से चले आ रहे रुख के अनुरूप है।
ट्रंप और तालिबान का टकराव
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में तालिबान से मांग की थी कि वह अमेरिका को बगराम एयरबेस वापस सौंप दे।
बगराम एयरबेस वही सैन्य अड्डा है जहां से अमेरिका ने 2001 के बाद ‘वॉर ऑन टेरर’ यानी आतंकवाद के खिलाफ अपना युद्ध अभियान चलाया था।
यह बेस अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य अभियानों का केंद्र बिंदु रहा है और इसकी रणनीतिक अहमियत बहुत अधिक है।
18 सितंबर को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्रंप ने कहा था कि हमने वह बेस उन्हें मुफ्त में दे दिया था, और अब हम उसे वापस चाहते हैं।
ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल’ पर भी लिखा था कि अगर अफगानिस्तान ने बगराम एयरबेस वापस नहीं किया तो इसके बुरे नतीजे होंगे और तालिबान को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद ने ट्रंप की इस मांग को सिरे से खारिज कर दिया था।
मुजाहिद ने स्पष्ट कहा था कि अफगान किसी भी हाल में अपनी जमीन किसी और को नहीं देंगे और वे अपनी संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेंगे।
उन्होंने यह भी कहा कि तालिबान अगले 20 साल तक युद्ध लड़ने को तैयार है यदि उनकी राष्ट्रीय संप्रभुता पर कोई आंच आती है।
यह बयान तालिबान के दृढ़ संकल्प को दर्शाता है कि वे अपनी जमीन पर किसी भी विदेशी सैन्य उपस्थिति को स्वीकार नहीं करेंगे।
भारत के लिए ऐतिहासिक मोड़
इस मुद्दे पर भारत का तालिबान के साथ खड़ा होना कई मायनों में ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है, जो क्षेत्रीय भू-राजनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत देता है।
तालिबान विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी पहली बार भारत की यात्रा पर आ रहे हैं, जो दोनों पक्षों के बीच संबंधों में एक नए अध्याय की शुरुआत है और आपसी समझ को बढ़ावा देगा।
मुत्ताकी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने 9 से 16 अक्टूबर तक भारत यात्रा की विशेष अनुमति दी है।
चूंकि मुत्ताकी UNSC की प्रतिबंधित सूची (Resolution 1988) में शामिल हैं, इसलिए उन्हें इस यात्रा के लिए विशेष मंजूरी की आवश्यकता थी, जो भारत के प्रयासों से संभव हो पाई।
यह यात्रा भारत की अफगानिस्तान नीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देती है, जहां वह क्षेत्रीय स्थिरता और अपने रणनीतिक हितों को प्राथमिकता दे रहा है।
भारत अफगानिस्तान में एक स्थिर और शांतिपूर्ण भविष्य के लिए सभी हितधारकों के साथ जुड़ने की कोशिश कर रहा है।
इस कदम से भारत को अफगानिस्तान में अपने विकास परियोजनाओं को जारी रखने और मानवीय सहायता प्रदान करने में मदद मिल सकती है।
यह भारत के लिए मध्य एशियाई देशों तक पहुंच बनाने और व्यापारिक संबंधों को मजबूत करने का एक अवसर भी है।
बगराम एयरबेस: अमेरिका क्यों चाहता है?
काबुल से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित बगराम एयरबेस अफगानिस्तान का सबसे बड़ा और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हवाई अड्डा है।
इस एयरबेस में दो बड़े रनवे हैं, जिनमें से एक 3.6 किलोमीटर और दूसरा 3 किलोमीटर लंबा है, जो इसे बड़े सैन्य विमानों के लिए उपयुक्त बनाता है।
अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाके के कारण बड़े विमानों की लैंडिंग अक्सर मुश्किल होती है, ऐसे में बगराम एक आदर्श और रणनीतिक केंद्र माना जाता है।
अमेरिका ने इस एयरबेस का उपयोग अपनी सैन्य गतिविधियों और रसद आपूर्ति के लिए एक प्रमुख हब के रूप में किया था, खासकर आतंकवाद विरोधी अभियानों के दौरान।
इसकी भौगोलिक स्थिति इसे मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में सैन्य अभियानों के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु बनाती है, जिससे क्षेत्रीय निगरानी और त्वरित प्रतिक्रिया संभव हो पाती है।
यही कारण है कि अमेरिका इसे फिर से अपने नियंत्रण में लेना चाहता है, ताकि वह क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति और प्रभाव को बनाए रख सके और भविष्य की किसी भी चुनौती का सामना कर सके।
बगराम एयरबेस का नियंत्रण अमेरिका को क्षेत्र में अपनी खुफिया जानकारी इकट्ठा करने और रणनीतिक पहुंच बनाए रखने में भी मदद करेगा।
बगराम का गौरवशाली इतिहास
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में संकेत दिया था कि उनकी सरकार अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस पर दोबारा नियंत्रण को लेकर तालिबान से बात कर रही है।
यह वही एयरबेस है, जो कभी अफगानिस्तान में अमेरिका की सबसे बड़ी सैन्य चौकी हुआ करती थी और अमेरिकी सेना के लिए एक महत्वपूर्ण गढ़ था।
ट्रंप के इस बयान के तुरंत बाद तालिबान ने इन चर्चाओं से जुड़ी बातों को पूरी तरह खारिज कर दिया था, जिससे दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ गया।
अफगानिस्तान का बगराम, जो आज काबुल से करीब 60 किलोमीटर उत्तर में स्थित है, इतिहास के पन्नों में एक बेहद अहम जगह रहा है।
यह सिर्फ एक एयरबेस या सैन्य ठिकाना नहीं, बल्कि सभ्यताओं, साम्राज्यों और युद्धों का साक्षी भी रहा है, जिसने कई ऐतिहासिक परिवर्तनों को देखा है।
यह वही इलाका है जहां से कभी भारतीय साम्राज्य की सीमाएं फैला करती थीं और जहां सिकंदर, चंगेज खान और बाबर जैसे बड़े विजेता भी कदम रख चुके हैं।
बगराम का नाम भले ही अब युद्धों और सैन्य ठिकानों से जुड़ा हो, लेकिन इसके पीछे एक हजारों साल पुराना गौरवशाली इतिहास छिपा है, जो इसकी सांस्कृतिक और रणनीतिक अहमियत को बढ़ाता है।
भारत से जुड़ा बगराम का रिश्ता
अगर इतिहास के पन्ने पलटें, तो बगराम कभी कापिशा नाम से जाना जाता था।
यह क्षेत्र मौर्य साम्राज्य का हिस्सा था, जब सम्राट अशोक ने अफगानिस्तान तक अपने शासन की सीमाएं बढ़ाई थीं और बौद्ध धर्म का प्रसार किया था।
बगराम (कापिशा) गांधार क्षेत्र के उत्तर में स्थित था और यहां बौद्ध संस्कृति का गहरा प्रभाव दिखाई देता था, जो कला और वास्तुकला में परिलक्षित होता था।
यहां से कई बौद्ध मूर्तियां, सिक्के और शिलालेख मिले हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह इलाका कभी भारतीय सभ्यता का अभिन्न अंग था और सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़ा हुआ था।
इन पुरातात्विक साक्ष्यों से यह भी पता चलता है कि बगराम एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र था।
सिकंदर महान और बगराम का संबंध
ईसा पूर्व 327 में जब सिकंदर महान ने भारत की ओर बढ़ना शुरू किया, तब वह अफगानिस्तान के इस क्षेत्र से होकर गुजरा था।
बगराम उस समय एक समृद्ध नगर था और भारतीय प्रभाव वाले गांधार प्रदेश का महत्वपूर्ण केंद्र था, जो व्यापारिक मार्गों पर स्थित था।
सिकंदर ने यहां रुककर अपनी सेना को आराम दिया और अपनी आगे की रणनीतियों को अंतिम रूप दिया, फिर भारत की दिशा में बढ़ा।
उस दौर में बगराम व्यापार, संस्कृति और सेना की दृष्टि से रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता था, जिससे इसका नियंत्रण अत्यंत मूल्यवान था।
चंगेज खान और बगराम की तबाही
13वीं सदी में मंगोल आक्रमणों ने पूरे मध्य एशिया और अफगानिस्तान को हिला कर रख दिया था, जिससे इस क्षेत्र में भारी उथल-पुथल मची।
चंगेज खान की सेना जब इस क्षेत्र से गुजरी, तो बगराम भी उनके निशाने पर आया और उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा।
यह इलाका उस समय खुरासान और भारत के बीच व्यापार का मुख्य रास्ता था, जिससे यह मंगोलों के लिए एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बन गया।
मंगोलों ने यहां भारी तबाही मचाई, जिससे बगराम की बौद्ध और हिंदू विरासत बुरी तरह प्रभावित हुई और कई प्राचीन संरचनाएं नष्ट हो गईं।
इसके बाद यह क्षेत्र धीरे-धीरे इस्लामी शासन के अधीन आ गया, जिससे इसकी सांस्कृतिक पहचान में और बदलाव आया।
बाबर और बगराम का मुगल कनेक्शन
बगराम का नाम फिर से इतिहास में तब आया जब 16वीं सदी में बाबर ने काबुल को अपना केंद्र बनाया और मुगल साम्राज्य की नींव रखी।
बाबर भारत पर आक्रमण करने से पहले कई सालों तक अफगानिस्तान में रहा और उसने इस क्षेत्र को अपनी गतिविधियों का आधार बनाया।
बगराम उस वक्त उसके सामरिक इलाकों में से एक था, जहां से वह अपनी सैन्य तैयारियों को अंजाम देता था।
यहां से वह अपनी सेना और जरूरी सामानों का प्रबंधन करता था, जिससे उसके अभियानों को मजबूती मिलती थी।
कहा जाता है कि भारत पर चढ़ाई करने की कई योजनाएं बाबर ने काबुल और बगराम के इलाकों में रहते हुए ही बनाई थीं, जो उसके विजय अभियान का आधार बनीं।
इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि बगराम ने मुगल साम्राज्य के इतिहास में भी परोक्ष भूमिका निभाई और उसकी स्थापना में योगदान दिया।
भारत की सांस्कृतिक छाप आज भी
पुरातात्विक खुदाई में बगराम से जो मूर्तियां, सिक्के और हस्तशिल्प मिले, वे आज भी भारत और बौद्ध संस्कृति की झलक दिखाते हैं।
यहां से मिली मूर्तियां आज फ्रांस के लौवर म्यूजियम और काबुल म्यूजियम में सुरक्षित हैं, जो इनकी ऐतिहासिक और कलात्मक मूल्य को दर्शाती हैं।
ये मूर्तियां गंधार कला शैली की हैं, जो भारत की प्राचीन कला और संस्कृति की मिसाल पेश करती हैं और दोनों क्षेत्रों के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंधों को उजागर करती हैं।
इस प्रकार, बगराम केवल एक सैन्य अड्डा नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर है, जिस पर भारत का भी गहरा प्रभाव रहा है और जो दोनों देशों के साझा इतिहास का प्रतीक है।
भारत का यह कदम क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को प्रभावित कर सकता है और अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के प्रयासों को नई दिशा दे सकता है।