Highlights
- हाईकोर्ट ने चूरू से जैसलमेर ट्रांसफर को चुनौती देने वाली याचिका खारिज की।
- प्रिंसिपल ने तबादले को लंबी दूरी और राजनीतिक हस्तक्षेप बताया था।
- कोर्ट ने दुर्भावना और साक्ष्य के अभाव में याचिका को मेरिट रहित पाया।
- संबंधित मंत्री और ब्लॉक अध्यक्ष को पक्षकार न बनाने पर भी कोर्ट ने टिप्पणी की।
जोधपुर: राजस्थान हाईकोर्ट ने चूरू से एक स्कूल प्रिंसिपल को जैसलमेर ट्रांसफर करने के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी है। याचिकाकर्ता आशाराम पंडर ने लंबी दूरी और राजनीतिक हस्तक्षेप का आरोप लगाया था, लेकिन जस्टिस मुन्नुरी लक्ष्मण की कोर्ट ने सबूतों के अभाव में इसे अस्वीकार कर दिया।
जस्टिस मुन्नुरी लक्ष्मण की कोर्ट ने सोमवार को दुर्भावना के आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य और सही पक्षकारों को शामिल न करने के कारण याचिका को मेरिट से रहित मानते हुए खारिज कर दिया। यह मामला शिक्षा विभाग में तबादला नीतियों और राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोपों की न्यायिक जांच के महत्व को उजागर करता है।
क्या था प्रिंसिपल का मामला?
याचिकाकर्ता आशाराम पंडर, जो चूरू के सरदारशहर वार्ड 10 के निवासी हैं, राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, बोगेरा, जिला चूरू में प्रिंसिपल के पद पर कार्यरत थे। 22 फरवरी 2025 को एक आदेश जारी किया गया, जिसके तहत उनका तबादला राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, रामगढ़, जिला जैसलमेर में कर दिया गया। इसी तबादला आदेश को आशाराम पंडर ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि यह तबादला उनके लिए लंबी दूरी का है और इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप भी शामिल है। उन्होंने अपने तबादले को 'लंबी दूरी' और 'राजनीतिक हस्तक्षेप' (ब्लॉक अध्यक्ष के आग्रह पर मंत्री की इच्छा) के आधार पर चुनौती दी थी।
तबादले को चुनौती देने के मुख्य आधार
प्रिंसिपल आशाराम पंडर ने अपने तबादले को दो मुख्य आधारों पर चुनौती दी थी। पहला आधार यह था कि चूरू से जैसलमेर की दूरी बहुत अधिक है, जिससे उनके लिए यह एक लंबी दूरी का तबादला है। दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण आधार यह था कि यह तबादला वर्तमान ट्रांसफर प्राधिकारी द्वारा संबंधित ब्लॉक के ब्लॉक अध्यक्ष की सिफारिश पर संबंधित मंत्री की इच्छा के परिणामस्वरूप किया गया है। याचिकाकर्ता ने इसे स्पष्ट रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप का मामला बताया था।
ब्लॉक अध्यक्ष का पत्र और राजनीतिक हस्तक्षेप का आरोप
याचिकाकर्ता के वकील ने कोर्ट में तर्क दिया कि उनके मुवक्किल का तबादला संबंधित ब्लॉक के ब्लॉक अध्यक्ष द्वारा शिक्षा विभाग के संबंधित मंत्री को लिखे गए पत्र के परिणामस्वरूप किया गया है। इस पत्र में तबादले की सिफारिश की गई थी, और याचिकाकर्ता ने इसी को राजनीतिक हस्तक्षेप का पुख्ता प्रमाण माना। सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता सज्जन सिंह राठौड़ और आर.एस. भाटी ने इस मामले में पैरवी की, जिन्होंने याचिकाकर्ता के आरोपों का खंडन किया।
हाईकोर्ट की अहम टिप्पणियां: साक्ष्य और पक्षकारों का अभाव
कोर्ट ने इस केस में याचिकाकर्ता के आरोपों की गहन जांच की और अपने फैसले में कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड पर ऐसी कोई सामग्री मौजूद नहीं है, जिससे यह पता चले कि प्रतिवादियों ने ब्लॉक अध्यक्ष के पत्र का संदर्भ देते हुए तबादला आदेश जारी किया है। न ही यह दर्शाने के लिए कोई सामग्री है कि संबंधित मंत्री ने शिक्षा विभाग के निदेशक को ब्लॉक अध्यक्ष के अनुरोध पर तबादला करने का निर्देश दिया था।
कोर्ट ने यह भी पाया कि दुर्भावना (Mala Fide) के संबंध में याचिका में स्पष्टता का अभाव है। दुर्भावना का आरोप केवल प्रतिवादी संख्या 3 (रामरतन मीणा, सी/ओ. निदेशक, माध्यमिक शिक्षा, बीकानेर) पर लगाया गया था, लेकिन इसे साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए। इसके अलावा, कोर्ट ने यह भी देखा कि दुर्भावना का आरोप लगाने के बावजूद, संबंधित ब्लॉक अध्यक्ष और शिक्षा मंत्री को वर्तमान रिट याचिका में पक्षकार नहीं बनाया गया था, जो कानूनी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
पूर्व निर्णय का हवाला और याचिका खारिज होने का कारण
अपने फैसले में, कोर्ट ने 16 अक्टूबर 2025 को पारित अपने ही पूर्व के बैच के मामलों (सुल्तानसिंह साहू बनाम राजस्थान राज्य व अन्य) के निर्णय का हवाला दिया। सुलतान सिंह साहू मामले में कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा था कि तबादला आदेशों में हस्तक्षेप करने के लिए कोर्ट इच्छुक नहीं है, खासकर जब दुर्भावना के आरोप के संबंध में निश्चित तथ्यों की कमी हो। साथ ही, जिसके खिलाफ दुर्भावना का आरोप लगाया गया है, उसे पक्षकार बनाना आवश्यक है।
चूंकि याचिकाकर्ता का मामला कार्यकारी निर्देशों या तबादला नीति के तहत तरजीही अधिकार (preferential rights) वाले किसी भी प्रावधान के अंतर्गत नहीं आता था, और दुर्भावना के आरोपों में मेरिट नहीं थी, इसलिए कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया।
प्रतिनिधित्व का अधिकार और अंतिम फैसला
हालांकि याचिका खारिज कर दी गई, कोर्ट ने सुलतान सिंह साहू मामले के तहत याचिकाकर्ताओं को यह छूट दी कि यदि वे तरजीही अधिकार जैसे कि सेवानिवृत्ति में दो वर्ष या विकलांगता के आधार पर राहत चाहते हैं, तो वे स्थानांतरित पद पर कार्यभार ग्रहण करने के बाद एक महीने के भीतर अभ्यावेदन (representation) दे सकते हैं। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि तबादला आदेशों को चुनौती देने के लिए ठोस सबूत और सही कानूनी प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है।
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