भारत/इंडिया: आप इंडिका को मानिए, हम महाभारत को मानेंगे

आप इंडिका को मानिए, हम महाभारत को मानेंगे
India Vs Bharat
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अब आप इंडिका को मानते हैं तो शौक से मानिए, हम महाभारत को मानेंगे ।

वैसे आपकी आसमानी दुनिया में महाभारत का तो अस्तित्व भी न होगा किंतु बंधू! क्या इंडिका नाम की पुस्तक का अस्तित्व असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है? खरगोश के सिर पर सींग उगाना बंद कीजिए!

प्रिय इंडिया प्रेमियों! एक राजा हुए हमारे यहां, नाम था भरत। उन महाप्रतापी भरत का समस्त लोकों को गुंजायमान करने वाला विजयरथ अप्रतिहत गति और भास्वर तेज के साथ सभी दिशाओं में गतिमान हुआ करता था।

भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादां महत्

समंत पृथ्वी के स्वामी अर्थात् सभी दिशाओं को अपने शासन के अधीन लाने वाला वह पृथ्वीपति  एकराट् की उपाधि धारण करते हैं। प्राचीन भारतीय राजनीति की यह एक परिभाषा थी जिसका उल्लेख राज्याभिषेक पद्धति मंत्रों में आता है।

चतुरंतामिमां पृथ्वीं पुत्रो मे पालयिष्यति

चतुरंत पृथ्वी को एक राजनीतिक सूत्र में  बांधने की कल्पना का आरंभ भरत के साथ होता है जिसकी अविरल श्रृंखला नंद, मौर्य, गुप्त आदि अन्यान्य राज्य वंशों में निरंतर दृष्टिगोचर होती है।

हिपति बनने की महत्वाकांक्षा हर राज्य में देखी गई जो आज भी वर्तमान है किंतु भरत जैसा सुविस्तृत राज्य, अपार वैभव और नभस्पर्शी यश दुर्लभ है।

महदद्य भरतस्य न पूर्वे नापरे जना:

'भारत' नाम युगांतव्यापी एकता का प्रतीक  है। वैसे ऋग्वेद के आर्यों की एक शाखा भी 'भरत' कहलाई और उनकी प्रजा भारती। भरण-पोषण के अर्थ में भी राजा के लिए 'भरत' शब्द मिलता है।
राष्ट्रीयता की प्रेरक शक्ति से ही जन या नागरिक बनते हैं। प्रत्येक जाति भूमि के साथ अपना संबंध स्थापित करती है।  

जहां तक भूमि का विस्तार है वहां तक उसके जन का भी विस्तार है।
यावती भूमि: तावती वेदी:

वेदि में प्रज्वलित होने वाली अग्नि को भी 'भरत' कहा गया। यही भरताग्नि राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक के हृदय में सांस्कृतिक गौरव के रूप में प्रज्वलित है।

"यही प्रक्रिया इतिहास का कभी न रुकने वाला प्रवाह है। राष्ट्र की भरत अग्नि अमर है। विविध जन, विविध भाषा और विविध धर्मों को साथ तपाकर एकरूप बनाना उसी की शक्ति है। कई सहस्र

वर्षों से उसकी यह अत्यंत सूक्ष्म रहस्यमयी राष्ट्र जनने वाली पद्धति चालू रही है। इसप्रकार राज्य, जन और संस्कृति की तीन धाराओं के संगम पर देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ।" (वासुदेव शरण अग्रवाल)

कन्याकुमारी से लेकर गंगा के उद्गम स्रोत वाली भूमि भारत है। भारत का सुदूर दक्षिण बिंदु जिसे कुमारी अंतरीप के नाम से जाना जाता है - पार्वती अपर्णा के तप और समर्पण का साक्षी है।

उत्तर के शिखरों से उतरकर एक कन्या दक्षिण में जाकर तपव्रत धारण करती । उत्तर-दक्षिण में राज्य किसी का भी हो , सांस्कृतिक निर्झर अबाध होकर बहे, यही भारत भूमि है। 

'भारत' शब्द के उच्चारण मात्र से मुख भरता है। यह शब्द हमारी राष्ट्रीयता को उद्भासित करता है। जिस शब्द से हमारा मस्तक गर्वोन्नत होता हो उसे हम क्यों न अपनाएं? हालांकि हमने तो

अपना ही रखा था किंतु वे दस्तावेज हमें चिढ़ाते हैं। 

"हमने तुम्हें लिखना सिखाया, हमने तुम्हें पढ़ना सिखाया, हमने तुम्हें इतिहास पढ़ाया, हमने तुम्हें विज्ञान बताया। तुम्हारे पास अपना क्या है?

तुम गुमनामों को हमने खोजा! तुम बेनामों को हमने नाम दिया और पहचान दी। यू *** इंडियन्स!"

हमारे यहां बच्चों के रंग आधारित नाम रख दिए जाते हैं- काळू धोळू, कद को नाम का आधार बना दिया जाता है- ठिंगू, लंबू। शारीरिक संरचना भी नाम दिला देती है- मोटू, घोटू, काणा, भेंगा, खोड़ा, टूंटा, लूला, लंगड़ा।

ये नाम वास्तविक नामों से कहीं अधिक प्रचारित प्रसारित होते हैं। वैसे भी नाम में तो कुछ रखा नहीं है फिर क्यों नहीं कोई अपना नाम वही रखे जो बहुप्रचलित हो? पर आम तौर पर हम देखते हैं कि हर बच्चे के माता पिता या बच्चा स्वयं समझदार होते ही कहता है- मेरा नाम कालू नहीं कुलदीप है, मुझे मेरे सही नाम से पुकारो! 

फिर भारत कहे कि मुझे इंडिया नहीं, भारत कहकर पुकारो तो क्या आपत्ति है?

'किसी ने' इंडिया कह दिया और आपने मान लिया ऐसा क्यों?

न.. न.. न.. मैंने अंग्रेजों का नाम नहीं लिया। मुझे पता है ऐसा कहने पर आप लपककर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में पहुंच जायेंगे। आजकल मेगेस्थनीज की ओर आपका स्नेह सोता सहज ही बह चला है।

आपकी मनीषा कहती हैं- मेगेस्थनीज के ग्रंथ 'इंडिका' से इंडिया शब्द बना और चूंकि इंडिका 'इंडस' नदी से आया इसलिए हम इंडियन हैं। यही हमारी पहचान है। भली बात है! हालांकि वह सिंधु है पर आप स्वयं को इंडियन कहें, यह शब्द गैर कानूनी नहीं है।

अब जरा इंडिका की बात कर लें। माना जाता है कि ई.ए. श्वानबेक ने मेगेस्थनीज के लिखे कुछ अंशों का पता लगाया और उनके संग्रह के आधार पर, जॉन वाटसन मैकक्रिंडल ने 1887 में इंडिका का एक संस्करण प्रकाशित किया। हालांकि, यह  संस्करण सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया गया।

श्वानबेक और मैक्रिंडल ने प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व के लेखक डायोडोरस से मेगस्थनीज के लेखन अंशों को प्राप्त किया बताया। जबकि माना जाता है कि डायोडोरस ने एक बार भी मेगस्थनीज का उल्लेख नहीं किया है। स्ट्रैबो जो  मेगस्थनीज को अपने स्रोतों में से एक के रूप में उल्लेख करता है, उसकी बातों को पूर्णत: असत्य और अतर्किक मानता है।

मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय लेखन कला से अनभिज्ञ थे जबकि सिकंदर के साथ आए नियार्कस के अनुसार भारतीय कपड़ों पर लिखते थे। यदि आप इंडिका का यह संस्करण पढ़ेंगे तो जानेंगे कि कितना कुछ हवाई है। चींटियां, सांप, बिच्छू,बंदर, कुत्ते और मनुष्य सब कुछ हास्यास्पद।

उसके बताये देश की स्थापना  हरक्यूलिस और डायनीसस ने की थी। सोना खोदकर लाने वाली चींटियाँ थीं और बिना चेहरे और नथुनों वाली जनजातियाँ । जातियाँ सिर्फ़ सात थीं।

चमगादड़ों जैसे पंखों वाले साँप जो रात को उड़ते थे और जिनका मूत्र या पसीना यदि नीचे किसी पर गिर जाये तो फफोले फूट आते थे। उड़ने वाले बिच्छू और एक सींग वाले घोड़े। कुत्ते शेर और सांड को मुंह में पकड़कर रखते थे।

जनजातियां जिनके कान उनके पैरों तक आते थे और आंख माथे पर होती थी। उनके  कान कुत्तों जैसे थे तथा लोगों की उम्र एक हज़ार वर्ष हुआ करती थी। सिलस नदी थी जिसमें कुछ भी बहता नहीं, सब डूब जाता था।

अब आप इंडिका को मानते हैं तो शौक से मानिए, हम महाभारत को मानेंगे ।

प्रतापी भरत का भारत हमें गौरवानुभूति प्रदान करता है।

वैसे आपकी आसमानी दुनिया में महाभारत का तो अस्तित्व भी न होगा किंतु बंधू! क्या इंडिका नाम की पुस्तक का अस्तित्व असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो चुका है? खरगोश के सिर पर सींग उगाना बंद कीजिए!

नीलू शेखावत 

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