बेटी ने चुकाया कुंवर की मौत का बदला: मेवाड़ की बेटी ने दी अपने कुंवर की हत्यारों को सजा

मेवाड़ की बेटी ने दी अपने कुंवर की हत्यारों को सजा
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Highlights

  1. चोरों ने गश्त करते हुए गांव के कुंवर की हत्या कर दी.
  2. ठाकुर ने कुंवर के अंतिम संस्कार से पहले बदला लेने का प्रण लिया.
  3. कुंवर के हत्यारों की पहचान उनकी बेटी ने की.
  4. बेटी की निशानदेही पर चोरों के पूरे गिरोह का सफाया हुआ.

राजस्थान में एक कहावत है- बैर और कर्ज सपूत ही चुकाते हैं-
रण खेती रजपूत री, वीर न भूले वाल।
बारै बरसों बापरो, लैवे बैर दकाल।।

राजपूतों और सपूतों के बदले की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। एक कहानी हमने भी सुनी है-

मेवाड़ के किसी गांव की घटना है। उस गांव में एक बार अचानक से चोरियाँ बढ़ गई। कभी किसी की भेड़ उठा ली जाती, कभी किसी की बकरी। चारवाहों ने गांव ठाकुर को जाकर फरियाद की।

"पड़ोसी गांव के चोर (तब एक जाति) आये दिन पशु चुराने लगे हैं, सुरक्षा प्रबंध ठीक कीजिये।"

ठाकुर ने यह जिम्मेदारी अपने इकलौते कुंवर को दी। आज से वही गांव का पहरा लगाएंगे।

एक रोज कुंवर अपने अनुचर के साथ पहरा देते हुए गांव से बाहर नाडी (तालाब) तक पहुंचे कि जल में घड़ा डुबोने जैसी आवाज हुई। उन्होंने जोरदार दकाल की। तालाब किनारे चोर बैठे थे। वे समझ गए- गांव का हाकम ही होगा। दौड़ेंगे तो पकड़े जायेंगे, छिपना ही भला। किन्तु घोड़े तो उनकी ओर ही बढ़ते चले आ रहे थे।

कुंवर ने खाकी कपड़े पहने थे और अनुचर ने सफ़ेद। चोरों ने कुंवर को अनुचर समझकर रोकने के लिए पैर पर गोळी चला दी ताकि बचकर भागने में आसानी रहे किन्तु निशाना सीने पर लगा और कुंवर वहीं गिर पड़े।

यह मौत ठाकुर की निजी क्षति तो थी ही, साख का सवाल भी था। कुंवर को चोर मार जायेंगे तो बाकी लोगों में ठाकुर की शक्ति के प्रति क्या भरोसा रह जायेगा।

दाग देने के बाद तय हुआ कि पहले बदला लिया जायेगा उसके बाद ही कुंवर जी के मृत्यु सम्बन्धी क्रिया कर्म सम्पन्न होंगे। दस दिन बीत गए पर हत्यारों का सुराग न लगा।

संयोग से ठाकुर के गांव की एक कन्या उस गांव में ब्याही हुई थी जहां के चोर थे। उसने रात में अपने परिवार के पुरुषों को घबराहट और हड़बड़ी में कुछ धीमी वार्ताए करते सुना।

बातों से लग रहा था कि यह गिरोह किसी आदमी को मारकर आया है। अगले दिन बात हवा की तरह फैल ही गई- पड़ोसी गांव के कुंवर जी को चोर गिरोह ने मार दिया। उसका संदेह पक्का हो गया। हो न हो, हत्यारे यही लोग हैं।

दो दिन बाद वह विवाहिता अपने पीहर आयी।
गाँवमें सब शोकमग्न! पिता ने बेटी को सारी बात बताई तो वह धीरे से बोली- बापू कुंवर के हत्यारे मेरे ससुराल वाले ही हैं, मेरा आदमी भी इस हत्या में शामिल था।

उसकी माँ ने दौड़कर उसके मुंह पर हाथ लगाया- हमें कहा है, किसी और को न कह देना। तेरा सुहाग और हमारा जंवाई, ठाकुर छोड़ेगा नहीं।
बेटी बोली - जमीं बड़ी कि जंवाई?

अगली सुबह बाप ने रावळे जाकर सारी बात कह सुनाई । बाप-बेटी की निशानदेही पर पूरे गिरोह का सफाया हुआ। अचानक एक स्त्री ठाकुर के पैरों में गिरकर प्राणदान मांगने लगी। कन्या बोली - बावजी! तूम्बों की बेल यही है, जीवित रही तो फिर तुम्बे ही जनेगी।

सब उसकी तरफ आश्चर्य से देखने लगे! बदला पूरा हुआ, फिर कुंवर जी का क्रियाकर्म हुआ। खैर सामूहिक क्षमादान के युग में इन कहानियों का क्या मोल है? मुद्दे की बात यह है कि उस गांव में अगले सौ साल तक कोई चोरी, डकैती या हत्या का मामला दर्ज नहीं हुआ।

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