Rajasthan: पेंशन विवाद: हाईकोर्ट ने कहा- नॉमिनी वारिस नहीं, सिविल कोर्ट जाओ

पेंशन विवाद: हाईकोर्ट ने कहा- नॉमिनी वारिस नहीं, सिविल कोर्ट जाओ
पेंशन पर दो पत्नियों का दावा: हाईकोर्ट का निर्देश
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Highlights

  • हाईकोर्ट ने कहा कि नॉमिनी केवल एक ट्रस्टी होता है, असली हकदार कानूनी वारिस ही होगा।
  • विवाह की वैधता और 'असली पत्नी' कौन है, यह तय करना हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं।
  • कोर्ट ने दोनों पक्षों को सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर करने की छूट दी।
  • सिविल कोर्ट को बुजुर्ग पक्षकारों को देखते हुए एक साल में फैसला सुनाने का निर्देश।

जोधपुर: राजस्थान हाईकोर्ट (Rajasthan High Court) ने पारिवारिक पेंशन (Family Pension) को लेकर दो महिलाओं के बीच विवाद में कहा कि केवल नॉमिनेशन (Nomination) से कोई वारिस नहीं बनता। कोर्ट ने दोनों पक्षों को सिविल कोर्ट (Civil Court) जाने की छूट दी।

राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में पारिवारिक पेंशन को लेकर चल रहे एक जटिल विवाद का निपटारा करते हुए कहा कि केवल नामांकन (नॉमिनेशन) में नाम होने से किसी को संपत्ति या पेंशन का मालिकाना हक नहीं मिल जाता। जस्टिस फरजंद अली की कोर्ट ने रिपोर्टेबल जजमेंट में स्पष्ट किया कि "नॉमिनी केवल एक ट्रस्टी की तरह होता है। असली हकदार वही होगा, जो कानूनन उत्तराधिकारी है।" इस फैसले ने पेंशन से जुड़े मामलों में नामांकन की भूमिका को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, खासकर तब जब एक से अधिक व्यक्ति किसी मृतक की पेंशन पर दावा कर रहे हों।

पेंशन विवाद की जड़: दो पत्नियों का दावा

यह मामला राजस्थान राज्य पथ परिवहन निगम (RSRTC) के रिटायर्ड असिस्टेंट जोनल मैनेजर मूलसिंह देवल की पेंशन से जुड़ा है। मूलसिंह देवल वर्ष 2000 में रिटायर हुए थे और उनका निधन वर्ष 2013 में हो गया था। उनके निधन के बाद, उनकी पेंशन को लेकर दो महिलाओं ने दावा पेश किया, जिससे यह कानूनी विवाद खड़ा हो गया। उदयपुर निवासी आनंद कंवर ने याचिका दायर कर दावा किया कि पेंशन पेमेंट ऑर्डर (PPO) में पत्नी के रूप में उनका नाम दर्ज है, इसलिए नियमानुसार पेंशन उन्हें ही मिलनी चाहिए।

वहीं, जयपुर निवासी सायर कंवर ने इस दावे पर कड़ी आपत्ति जताई। सायर कंवर का तर्क था कि वर्ष 1972 के सेंट्रल प्रोविडेंट फंड (CPF) फॉर्म और राशन कार्ड जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों में पत्नी के रूप में उनका नाम दर्ज है। उन्होंने यह भी बताया कि उनकी शादी मूलसिंह देवल से वर्ष 1962 में हुई थी, जो आनंद कंवर के दावे से काफी पहले की थी। इस प्रकार, दोनों महिलाओं ने अपने-अपने दस्तावेजों और विवाह की तिथि के आधार पर पेंशन पर अपना हक जताया, जिससे यह कानूनी विवाद गहरा गया और हाईकोर्ट तक पहुंच गया।

हाईकोर्ट का स्पष्टीकरण: नॉमिनी वारिस नहीं, सिर्फ ट्रस्टी

याचिकाकर्ता आनंद कंवर के वकील ने कोर्ट में तर्क दिया कि पीपीओ जारी होने के बाद विभाग को पेंशन रोकनी नहीं चाहिए थी। उन्होंने यह भी बताया कि सायर कंवर की ओर से उत्तराधिकार प्रमाण पत्र के लिए लगाई गई अर्जी पहले ही खारिज हो चुकी है। दूसरी ओर, प्रतिवादी सायर कंवर के वकील ने जोरदार ढंग से तर्क दिया कि पहली शादी के रहते हुए दूसरी शादी, यदि हुई हो, तो वह कानूनन मान्य नहीं है और ऐसे में पहली पत्नी का अधिकार सर्वोपरि होता है।

कोर्ट ने अपने विस्तृत फैसले में इस महत्वपूर्ण बिंदु पर प्रकाश डाला कि "कानून में ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है कि नॉमिनी प्राकृतिक वारिसों को बेदखल कर पूर्ण स्वामी बन जाए।" कोर्ट ने स्पष्ट किया कि नॉमिनेशन केवल राशि प्राप्त करने के लिए एक सुविधा मात्र है, लेकिन संपत्ति या पेंशन का वास्तविक लाभ उत्तराधिकार के नियमों से ही मिलेगा। नॉमिनी केवल एक ट्रस्टी की भूमिका निभाता है, जिसका काम राशि को सही कानूनी वारिस तक पहुंचाना होता है। यह टिप्पणी पेंशन और संपत्ति के मामलों में नामांकन की कानूनी स्थिति को लेकर एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण प्रदान करती है, जिससे भविष्य में ऐसे विवादों का समाधान आसान हो सकता है।

विवाह की वैधता तय करना सिविल कोर्ट का अधिकार क्षेत्र

हाईकोर्ट ने इस मामले में विवाह की वैधता और 'असली पत्नी' कौन है, यह तय करने को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर बताया। कोर्ट ने माना कि ऐसे मामलों में गवाहों और सबूतों की पूरी जांच आवश्यक होती है, जिसमें विवाह के प्रमाण, तलाक की स्थिति (यदि कोई हो), और अन्य संबंधित तथ्यों की गहन पड़ताल शामिल है। यह प्रक्रिया हाईकोर्ट के बजाय सिविल कोर्ट में ही संभव है, जहां साक्ष्यों को प्रस्तुत करने और उनकी जांच करने के लिए विस्तृत प्रक्रियाएं होती हैं।

कोर्ट ने कहा कि यह विवाद का विषय है कि मृतक की कानूनी रूप से ब्याही पत्नी कौन है और क्या पहली शादी तलाक के जरिए कानूनी रूप से खत्म हुई थी या नहीं। ये सभी तथ्य जांच के विषय हैं, जिनके लिए विस्तृत सुनवाई और साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता होगी। वर्ष 2016 से लंबित इस याचिका को खारिज करते हुए, कोर्ट ने दोनों पक्षों को सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर करने की छूट दी है, ताकि वे अपने दावों को उचित कानूनी प्रक्रिया के तहत साबित कर सकें और 'असली पत्नी' का निर्धारण हो सके।

हिंदू मैरिज एक्ट और एक पत्नी का सिद्धांत

अपने फैसले में, कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 5 का भी हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक जीवित पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी नहीं की जा सकती। कोर्ट ने मिताक्षरा स्कूल और दायभाग स्कूल, हिंदू कानून की दो प्रमुख विचारधाराओं का उल्लेख करते हुए बताया कि दोनों ही परंपराओं में एक ही समय में दो पत्नियों को कानूनी मान्यता नहीं दी गई है। यह सिद्धांत हिंदू विवाह की पवित्रता और एकपत्नीत्व के महत्व को रेखांकित करता है।

यह स्पष्टीकरण इस बात पर जोर देता है कि हिंदू धर्म की किसी भी कानूनी शाखा में, चाहे वह उत्तर भारत की मिताक्षरा हो या बंगाल की दायभाग, एक जीवित पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी को कानूनी वैधता नहीं मिलती। वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम आने से पहले इन्हीं प्रणालियों के आधार पर हिंदू परिवारों में संपत्ति का अधिकार तय होता था, और ये सभी प्रणालियां एक समय में केवल एक कानूनी पत्नी को ही स्वीकार करती हैं। इसलिए, यदि किसी व्यक्ति की दो पत्नियां होने का दावा किया जाता है, तो कानूनी रूप से केवल एक ही पत्नी वैध मानी जाएगी।

बुजुर्ग पक्षकारों के लिए त्वरित न्याय का निर्देश

हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान यह भी टिप्पणी की कि विवाद के पक्षकार बुजुर्ग हो चुके हैं, और उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई में नहीं उलझाया जाना चाहिए। मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए, कोर्ट ने निर्देश दिया कि यदि सिविल सूट दायर किया जाता है, तो ट्रायल कोर्ट पक्षकारों की उम्र को देखते हुए प्राथमिकता से सुनवाई करे और एक साल के भीतर अपना फैसला सुनाए। यह निर्देश त्वरित न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, ताकि बुजुर्गों को अपने जीवनकाल में न्याय मिल सके।

सरकार को पेंशन नियमों में सुधार की सलाह

इस पूरे मामले की जटिलता और भविष्य में ऐसे विवादों से बचने की आवश्यकता को देखते हुए, हाईकोर्ट ने महाधिवक्ता (एएजी) को सुझाव दिया कि राज्य सरकार को अपने पेंशन नियमों में संशोधन करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि नॉमिनेशन, शादी टूटने और उत्तराधिकार से जुड़े नियमों को अधिक स्पष्ट और पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। ऐसा करने से भविष्य में इस तरह के भ्रम और कानूनी विवादों से बचा जा सकेगा और पेंशनभोगियों तथा उनके परिवारों को अनावश्यक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। यह सलाह एक स्पष्ट और सुव्यवस्थित कानूनी ढांचा बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण है, जिससे नागरिकों को न्याय प्राप्त करने में आसानी हो।

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