Rajasthan High Court: निजी विवाद को जातिगत रंग देना कानून का दुरुपयोग: हाईकोर्ट

निजी विवाद को जातिगत रंग देना कानून का दुरुपयोग: हाईकोर्ट
हाईकोर्ट ने पलटा 31 साल पुराना फैसला
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Highlights

  • हाईकोर्ट ने 31 साल पुराना निचली अदालत का फैसला पलटा।
  • निजी या व्यावसायिक विवाद को जातिगत रूप देना कानून का दुरुपयोग।
  • 'पब्लिक व्यू' में घटना न होने पर SC-ST एक्ट लागू नहीं होगा।
  • मोटरसाइकिल के लोन और रिपेयरिंग के भुगतान को लेकर था विवाद।

जोधपुर:जोधपुर (Jodhpur) हाईकोर्ट ने 31 साल पुराने एक फैसले को पलटते हुए कहा है कि निजी या व्यावसायिक विवाद को एससी-एसटी (SC-ST) एक्ट का रूप देना कानून का दुरुपयोग है। घटना 'पब्लिक व्यू' में न होने पर एक्ट लागू नहीं।

राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि दो व्यक्तियों के बीच निजी या व्यावसायिक लेन-देन के विवाद को एससी-एसटी एक्ट का रूप देना कानून का सरासर गलत प्रयोग है। यह फैसला 31 साल पुराने एक मामले में सुनाया गया है, जिसने कानून के दुरुपयोग को लेकर गंभीर चिंताएं जताई हैं।

जस्टिस फरजंद अली की कोर्ट ने अपने रिपोर्टेबल जजमेंट में यह अहम बात कही है। कोर्ट ने कहा कि यदि कोई घटना बंद दुकान या घर की चारदीवारी के भीतर घटित होती है, तो उसे 'पब्लिक व्यू' में नहीं माना जा सकता।

यह 'पब्लिक व्यू' एससी-एसटी एक्ट के तहत अपराध सिद्ध करने के लिए एक अनिवार्य शर्त है। इस फैसले से निचली अदालतों द्वारा ऐसे मामलों में की गई गलतियों को सुधारने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

कोर्ट ने वर्ष 1994 में निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सजा को रद्द कर दिया है। इसके साथ ही, आरोपी शोरूम मालिक को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया है, जिससे उसे 31 साल बाद न्याय मिला है।

कानून का सरासर दुरुपयोग: हाईकोर्ट

हाईकोर्ट ने अपने फैसले में अत्यंत सख्त टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि मामले के तथ्यों को देखने से यह बिल्कुल साफ है कि यह विवाद पूरी तरह से 'व्यावसायिक और अनुबंधित' प्रकृति का था।

यह विवाद एक विक्रेता और ग्राहक के बीच पैसे के लेन-देन से संबंधित था। इसका जातिगत अपमान से कोई लेना-देना नहीं था, जैसा कि आरोप लगाया गया था।

कोर्ट ने यह भी कहा कि आरोपी दुकानदार द्वारा बकाया राशि की मांग करना कानूनी रूप से पूरी तरह जायज था। यह उसका व्यावसायिक अधिकार था।

निचली अदालत ने एक निजी विवाद में एससी-एसटी एक्ट के कड़े प्रावधानों को लागू करके कानून का गलत प्रयोग किया है। यह विशेष कानून के मूल उद्देश्य के विपरीत था।

'पब्लिक व्यू' की अहम व्याख्या

इस फैसले का सबसे अहम कानूनी पहलू 'पब्लिक व्यू' की विस्तृत व्याख्या है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(1)(x) तभी लागू होती है, जब अपमानजनक घटना सार्वजनिक स्थान पर या जनता की नजरों के सामने हुई हो।

यह शर्त कानून के तहत जातिगत अपमान को रोकने के लिए बनाई गई है, जिसका उद्देश्य सार्वजनिक रूप से होने वाले भेदभाव को रोकना है। कोर्ट ने नक्शा मौका का हवाला देते हुए बताया कि कथित घटना शोरूम के अंदर 'चारदीवारी के भीतर' हुई थी।

यह एक बंद जगह थी जहां आम जनता की सीधी पहुंच या दृश्यता नहीं थी। इसलिए, इसे सार्वजनिक स्थान नहीं माना जा सकता।

कोर्ट ने निर्देश दिया कि चूंकि घटना सार्वजनिक दृष्टि में नहीं थी, इसलिए एससी-एसटी एक्ट के तहत अपराध नहीं बनता है। यह व्याख्या भविष्य के ऐसे मामलों के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करेगी।

क्या था 31 साल पुराना मामला?

दरअसल, यह मामला जोधपुर निवासी शिकायतकर्ता राजन सोलंकी द्वारा 22 अगस्त 1991 को दर्ज कराई गई रिपोर्ट से जुड़ा है। शिकायत में आरोप लगाया गया था कि जोधपुर के पुंगलपाड़ा निवासी आरोपी बृजमोहन उर्फ राजा ने उन्हें जानबूझकर जाति का हवाला देते हुए अपमानित किया, धमकाया और शारीरिक रूप से हमला किया।

शिकायत में यह भी आरोप लगाया गया था कि यह आचरण एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(1)(x) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323 के तहत अपराध है। यह आरोप एक गंभीर प्रकृति का था, जिसके आधार पर कानूनी कार्रवाई शुरू की गई थी।

विवाद की जड़ में व्यावसायिक लेन-देन

विवाद की असली वजह पूरी तरह से व्यावसायिक प्रकृति की थी। राजन सोलंकी ने अप्रैल 1990 में बृज मोहन के शोरूम से बजाज मोटरसाइकिल लोन पर खरीदी थी। यह मोटरसाइकिल बजाज ऑटो फाइनेंस कंपनी लिमिटेड से लोन पर ली गई थी।

सोलंकी ने मासिक किस्तों का भुगतान नहीं किया और उनके कई चेक बाउंस हो गए थे। यह तथ्य ट्रायल के दौरान भी स्वीकार किया गया था, जो विवाद की जड़ को स्पष्ट करता है।

इसी दौरान मोटरसाइकिल का एक्सीडेंट हो गया और उसे मरम्मत के लिए बृज मोहन के शोरूम में लाया गया। मरम्मत का खर्च लगभग 10 हजार रुपए आया था, जिसका भुगतान सोलंकी को करना था।

अभियोजन पक्ष के अनुसार, जब सोलंकी वाहन लेने गए तो उन्होंने डिमांड ड्राफ्ट से भुगतान की पेशकश की थी। हालांकि, बृज मोहन ने इसे मना कर दिया और नकद या चेक में भुगतान की मांग की।

आरोप है कि इसी बातचीत के दौरान बृज मोहन ने सोलंकी को उनकी जाति का हवाला देकर अपमानित किया और शोरूम से बाहर धक्का दे दिया। यह घटना ही विवाद का मुख्य बिंदु बनी।

निचली अदालत का फैसला और हाईकोर्ट में अपील

मामले की जांच के बाद, आईपीसी की धारा 323 और एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(1)(x) के तहत चार्जशीट दायर की गई थी। ट्रायल के दौरान, अभियोजन पक्ष ने अपने आरोपों को साबित करने के लिए सात गवाह पेश किए और कई दस्तावेजी साक्ष्य भी प्रस्तुत किए।

इसके विपरीत, बचाव पक्ष ने भी अपनी दलीलें पेश कीं, जिसमें तीन गवाह और 12 दस्तावेज शामिल थे। दोनों पक्षों की दलीलें और साक्ष्य सुनने के बाद, 19 सितंबर 1994 को स्पेशल जज ने बृज मोहन को दोनों धाराओं के तहत दोषी ठहराया था।

उन्हें छह महीने की साधारण कैद और एक हजार पांच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। इस फैसले के खिलाफ बृज मोहन ने हाईकोर्ट में अपील दायर की, जिसमें उन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को चुनौती दी।

हाईकोर्ट की कड़ी टिप्पणी और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के रवैये पर कड़ी टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने विशेष दंड कानून के कठोर प्रावधानों को एक ऐसे तथ्यात्मक मामले पर लागू किया, जो मूल रूप से एक निजी व्यावसायिक विवाद से उत्पन्न हुआ था।

इस तरह के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप कानून का स्पष्ट गलत अनुप्रयोग हुआ है। यह कानून के सही उपयोग के सिद्धांतों के खिलाफ था।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एससी-एसटी एक्ट की धारा 3(1)(x) का विधायी उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र में अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों पर किए गए जातिगत अपमान को रोकना है। यह कानून व्यावसायिक या निजी विवादों को निपटाने के लिए नहीं बना है।

यह कानून सामाजिक भेदभाव को रोकने के लिए है, न कि व्यक्तिगत लेन-देन के विवादों में हस्तक्षेप करने के लिए। कोर्ट ने यह भी पाया कि शारीरिक हमले के आरोप के लिए कोई मेडिकल एविडेंस नहीं थी।

इससे अभियोजन पक्ष का यह दावा कमजोर पड़ गया। कोर्ट ने यह भी पाया कि अभियोजन पक्ष का यह दावा साबित नहीं हुआ कि सोलंकी ने डिमांड ड्राफ्ट से भुगतान की पेशकश की थी।

डिमांड ड्राफ्ट का कोई भी सबूत या बैंक रिकॉर्ड पेश नहीं किया गया। इससे आरोपी का यह तर्क सही साबित होता है कि विवाद केवल बकाया भुगतान को लेकर था, न कि जातिगत अपमान को लेकर।

कोर्ट ने माना कि यह मामला दीवानी (सिविल) प्रकृति का था, जिसे गलत तरीके से आपराधिक रंग दिया गया था। परिणामस्वरूप, हाईकोर्ट ने 1994 के फैसले को रद्द करते हुए आरोपी बृज मोहन को सभी आरोपों से बरी कर दिया।

कोर्ट ने उसकी जमानत मुचलके भी खारिज कर दिए। यह फैसला कानून के दुरुपयोग को रोकने और न्याय के सिद्धांतों को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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