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सिरोही जिला अस्पताल: महिला वार्ड की बदहाली और मोर्चरी की लापरवाही ने खोली स्वास्थ्य तंत्र की पोल
सिरोही | जिला अस्पताल की अव्यवस्थाएँ अब आमजन के लिए त्रासदी का रूप ले चुकी हैं। हाल ही में मोर्चरी के बाहर शववैन कीचड़ में धंसने और परिजनों द्वारा शव को घुटनों तक पानी में उठाकर ले जाने का मामला सामने आया था। उसी क्रम में अब महिला वार्ड के टॉयलेट और स्वच्छता व्यवस्था की भयावह तस्वीर ने स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति को उजागर कर दिया है।
महिला वार्ड में संक्रमण का खतरा
महिला वार्ड का शौचालय गंदगी और दुर्गंध से भरा पड़ा है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी अस्वच्छ स्थिति महिलाओं में यूटीआई इंफेक्शन और गंभीर रोगों को जन्म दे सकती है। गर्भवती महिलाएँ और नवजात सबसे बड़े जोखिम पर हैं। पूर्व विधायक संयम लोढ़ा ने इस पर जिला कलक्टर से शिकायत की थी, लेकिन टीम गठन की रस्म अदायगी के बाद भी हालात जस के तस बने हुए हैं।
कारण: निजी अस्पतालों से साठगांठ?
स्वास्थ्य सेवाओं की इस बदहाली का एक बड़ा कारण निजी अस्पतालों से कथित साठगांठ भी माना जा रहा है। जानकारों का कहना है कि यदि सरकारी अस्पतालों की व्यवस्थाएँ ठीक हो जाएं तो मरीजों को निजी अस्पतालों का रुख नहीं करना पड़ेगा। लेकिन यहां का खेल उल्टा दिखाई देता है—मरीजों को जानबूझकर रेफर करना और निजी अस्पतालों की “चांदी” में हिस्सेदारी तय करना।
यदि रेफरल का डेटा निकाला जाए तो साफ हो जाएगा कि जिन मरीजों को बाहर भेजा गया, उनमें से कई का उपचार जिला अस्पताल में ही संभव था।
प्रशासनिक अमले पर सवाल
चिंता की बात यह है कि जिला अस्पताल के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी (PMO) और प्रशासनिक अमला इन अव्यवस्थाओं पर सिर्फ मौन साधे बैठे हैं। हालात सुधारने की बजाय घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं।
लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब जिला स्तर पर ही स्वास्थ्य तंत्र इतना लाचार है, तो आमजन अपनी जिंदगी और सेहत की सुरक्षा किसके भरोसे करें?
सिरोही में अस्पताल की स्थिति बहुत बुरी हो गई है। अस्पताल के निरीक्षण के वक्त बहुत सारी समस्याएं देखने को मिली। यहां महिला वार्ड में तो गंदगी महिलाओं के लिए जान का खतरा है। कलक्टर को सूचना दी थी, टीम भी गठित हुई, लेकिन कुछ खास नतीजा नहीं निकला है। मैंने इस विषय पर संभागीय आयुक्त से बात की है।
— संयम लोढ़ा, पूर्व विधायक, सिरोही
टिप्पणी : बदहाल अस्पताल या रेफरल सेंटर?
सिरोही का जिला अस्पताल इन दिनों इलाज से ज़्यादा बहानों और रेफरल के लिए मशहूर है। महिला वार्ड के टॉयलेट से उठती बदबू और मोर्चरी के बाहर शववैन के फंसने की घटनाएँ बताती हैं कि यहाँ रोगियों से ज़्यादा कीटाणु पल रहे हैं।
हैरानी की बात है कि जिला प्रशासन और अस्पताल प्रबंधन के लिए यह सब “सामान्य” हो चुका है। ऐसा लगता है मानो अस्पताल किसी इलाज़गृह की बजाय निजी अस्पतालों का एजेंट बन चुका हो। मरीज आएं, कुछ कागज़ी खानापूर्ति हो और फिर सीधे रेफर—यहाँ यही “मॉडल ऑफ हेल्थकेयर” चल रहा है।
प्रश्न यह नहीं कि कितनी टीमें गठित हुईं, बल्कि यह है कि उन टीमों ने आख़िर किया क्या? और यदि सब कुछ इतना ही असंभव है तो फिर जिला अस्पताल का अस्तित्व किस लिए है—जनता की सेवा के लिए या निजी अस्पतालों की चांदी के लिए?