Highlights
- मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के बयानों पर विवाद।
- "बुराई और अहंकारियों के साथ खड़ा होना है" जैसे बयान।
- वायरल वीडियो का सच: संदर्भ से काटा गया बयान।
- ज़ुबान फिसलने के मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक पहलू।
सोचिए ज़रा, क्या होता है जब ज़ुबान फिसलती है? एक छोटा-सा शब्द, एक मामूली-सी चूक, और पल भर में सब कुछ बदल जाता है। कभी-कभी ये महज़ एक गलती होती है, एक हंसी का पल, जिसे हम 'स्लिप ऑफ़ द टंग' कहकर टाल देते हैं। लेकिन, दोस्तों, क्या हो जब ये गलतियाँ बार-बार हों? क्या हो जब एक प्रदेश के मुख्यमंत्री की ज़ुबान बार-बार लड़खड़ाए, और ऐसे शब्द निकलें जो जनता को चौंका दें, या फिर गंभीर सवाल खड़े कर दें? क्या यह सिर्फ़ एक इत्तेफाक है, या इसके पीछे कोई गहरा राज़ छिपा है? आज हम सिर्फ़ शब्दों की नहीं, बल्कि मन और मस्तिष्क के उन अनसुलझे रहस्यों की बात करेंगे, जो अक्सर राजनीति के गलियारों से होते हुए सीधे हमारे दिमाग की गहराइयों तक जाती हैं।
ज़ुबान का फिसलना: एक आम बात या कुछ और?
चलिए, पहले उन वाकयों की बात करते हैं जिन्होंने हाल ही में ख़ूब सुर्खियाँ बटोरीं। राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा, जिनके एक बयान को लेकर इन दिनों ख़ूब चर्चा हो रही है। उनकी ज़ुबान पर अक्सर कुछ ऐसे शब्द आ जाते हैं, जो या तो माहौल को हल्का कर देते हैं, या फिर गंभीर सवाल खड़े कर देते हैं। याद है आपको, वो पल जब एक कार्यक्रम में उन्होंने 'सत श्री अकाल' को 'सत सत अकाल' कह डाला? अरे, मुझे तो लगा कि शायद भाषा का थोड़ा फेरबदल हो गया होगा! लेकिन, जब उन्होंने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को श्रद्धांजलि अर्पित कर दी, जबकि वो मंच पर उन्हीं के साथ मौजूद थे, तो सच कहूँ, मैं भी भौंचक्का रह गया! है न कमाल की बात?
फिर वो वाकया, जब कश्मीर से धारा 370 हटाने को लेकर उनके बयान में कुछ ऐसी बात निकल गई, जिसने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया। और अब, दशहरे के कार्यक्रम में उन्होंने तो हद ही कर दी, कह डाला कि 'हमें बुराई और अहंकारियों के साथ खड़ा होना है।' सोचिए, मुख्यमंत्री के मुख से निकले ये शब्द, सुनने वालों को कितनी उलझन में डाल सकते हैं! अब आप ही बताइए, इसे क्या कहेंगे – ज़ुबान का फिसलना, ध्यान भटकाना, या फिर कुछ और?
पायलट हटाए, ज़ुबान का क्या? एक मनोवैज्ञानिक पड़ताल
मुझे जुलाई का महीना याद है, जब उनका प्लेन गलत जगह लैंड हुआ था, तो दो पायलट हटा दिए गए थे। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि जब उनकी ज़ुबान अक्सर गलत शब्द 'लैंड' करवा देती है, तो इसका क्या मतलब है? एक मनोविज्ञान के विद्यार्थी के तौर पर मेरे मन में सवाल आया, आख़िर ऐसा हो क्यों रहा है? एक साधारण कार्यकर्ता से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पहुँचने वाले भजनलाल शर्मा की ज़ुबान आख़िर क्यों फिसल जाती है? देखिए, ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है, लेकिन जब ये मुख्यमंत्री जैसे प्रभावशाली व्यक्ति के साथ होता है, तो ये चिंता का विषय बन जाता है। क्या ये महज़ एक भूल है, या इसके पीछे कोई और कहानी है?
सियासत का खेल: संदर्भ से कटा बयान और 'आलू से सोना'!
लेकिन ठहरिए! कई बार सिर्फ़ ज़ुबान नहीं फिसलती, बल्कि कुछ लोग खेल भी कर जाते हैं। कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें दावा किया गया कि राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने ख़ुद यह स्वीकार किया है कि भाजपा चुनावों में झूठे वादे करके वोट मांगती है। ये खबर आग की तरह फैली, सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया। लेकिन जब हमारी टीम ने इस वीडियो की पड़ताल की, तो कुछ और ही सच सामने आया। हमने देखा कि अक्सर कांग्रेस और विपक्षी पार्टियां भी इस तरह के खेल करती हैं। राहुल गांधी का 'आलू से सोना' वाला बयान याद है? या अशोक गहलोत का 'पानी से बिजली' निकालने वाला बयान? अक्सर नेताओं के बयान संदर्भ से काटकर ऐसे पेश किए जाते हैं कि उनका मतलब ही बदल जाता है। सियासत का यह खेल पुराना है, और इसमें ज़ुबान फिसलने से ज़्यादा 'कैंची' की भूमिका होती है!
ठीक ऐसा ही मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के साथ भी हुआ। जाँच में पता चला कि वायरल वीडियो, उनके मूल भाषण के 08:50 और 08:55 के बीच का एक क्लिप था। इस छोटी सी क्लिप से संदर्भ पूरी तरह से गायब था। दरअसल, क्लिप किए गए हिस्से से पहले, सीएम भजनलाल शर्मा अपने भाषण में कह रहे थे कि भाजपा ने लोकसभा चुनावों में दो बड़े वादे किए थे - एक अनुच्छेद 370 हटाना और दूसरा राम मंदिर का निर्माण करना। और जब भाजपा ने ये वादे किए थे, तो विपक्षी दलों ने इन दोनों वादों को 'भाजपा का जुमला' यानी झूठे वादे करार दिया था, और कहा था कि भाजपा झूठे वादे करके वोट मांग रही है। लेकिन, हमने दोनों वादों को पूरा किया। हमने अनुच्छेद 370 हटाया और राम मंदिर का निर्माण किया। इससे यह साफ़ है कि वायरल वीडियो को मूल भाषण से संदर्भ से बाहर क्लिप किया गया था। यानी, ये महज़ एक राजनीतिक चाल थी, ज़ुबान का फिसलना नहीं। ये तो ऐसा है जैसे कोई आपको किसी गाने का सिर्फ़ एक टुकड़ा सुनाकर कहे कि यही पूरा गाना है!
लेकिन हर बार चाल नहीं होती: ज़ुबान के फिसलने के वैज्ञानिक कारण
तो क्या इसका मतलब है कि हर ज़ुबान का फिसलना महज़ एक संयोग है? या फिर इसके पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी हो सकते हैं? आइए, अब हम राजनीति के मैदान से निकलकर सीधे मनोविज्ञान और मस्तिष्क के रहस्यों की ओर बढ़ते हैं। क्या आप जानते हैं कि हमारी ज़ुबान क्यों फिसलती है? इसके कई मनोवैज्ञानिक और न्यूरोलॉजिकल कारण हो सकते हैं, जो हमें हैरान कर देंगे।
मनोविज्ञान में इसे 'पैराप्रैक्सिस' या 'फ्रायडियन स्लिप' भी कहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन अनजाने में कुछ और ही कह जाते हैं, और अक्सर ये हमारे अवचेतन मन में चल रही बातों का नतीजा होता है। मतलब, जो बात हम शायद जानबूझकर नहीं कहना चाहते, वो अनजाने में ज़ुबान पर आ जाती है। है न दिलचस्प? कभी-कभी यह संज्ञानात्मक भार (Cognitive Load) का परिणाम होता है, जब हमारा दिमाग बहुत सारी जानकारी को एक साथ प्रोसेस करने की कोशिश कर रहा होता है और थक जाता है। तनाव, थकान, या बहुत ज़्यादा सोचने से भी ज़ुबान लड़खड़ा सकती है। दिमाग में विचारों की भीड़ इतनी होती है कि शब्द एक दूसरे से टकरा जाते हैं, और नतीजा होता है एक ग़लत वाक्य!
इसके अलावा, 'स्पीच एरर' भी एक कारण है। इसमें बोलने की प्रक्रिया में ही गड़बड़ हो जाती है, जैसे 'एंटीसिपेशन एरर' (आगे आने वाले शब्द को पहले ही बोल देना) या 'परसीवरेशन एरर' (पहले बोले गए शब्द का फिर से दोहरा जाना)। मतलब, हमारा दिमाग इतनी तेज़ी से काम कर रहा होता है कि कभी-कभी वो 'ओवरटेक' कर लेता है और हम ग़लती कर जाते हैं।
तो क्या है असली माजरा?
तो दोस्तों, बात सिर्फ़ ज़ुबान फिसलने की नहीं है। यह समझने की है कि कब यह एक अनजाने में हुई ग़लती है, कब यह राजनीतिक खेल का हिस्सा है, और कब यह हमारे मस्तिष्क की जटिल कार्यप्रणाली का परिणाम है। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के बयानों को लेकर हुई यह पूरी चर्चा हमें सोचने पर मजबूर करती है कि हम चीज़ों को किस नज़र से देखते हैं। क्या हम हर बात को सिर्फ़ एक सतही स्तर पर देखते हैं, या उसकी गहराई में जाकर, उसके पीछे छिपे कारणों को समझने की कोशिश करते हैं?
अगली बार जब आप किसी नेता की ज़ुबान को फिसलते हुए देखें, तो सिर्फ़ हँसिए मत, बल्कि एक पल के लिए रुककर सोचिए: क्या यह वाकई एक गलती है? या इसके पीछे कोई गहरा मनोविज्ञान छिपा है? या फिर, कहीं ये किसी सियासी शतरंज की बिसात पर चली गई एक बारीक चाल तो नहीं? क्योंकि, राजनीति और मनोविज्ञान का रिश्ता इतना गहरा है कि अक्सर हम सिर्फ़ सतह पर तैरती लहरें देख पाते हैं, जबकि गहराई में कुछ और ही चल रहा होता है। है न, सोचने वाली बात?
- प्रदीप बीदावत
राजनीति