नीलू की कलम से: चदरिया ऊनी रे ऊनी...

चदरिया ऊनी रे ऊनी...
चदरिया ऊनी रे ऊनी...
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Highlights

राजस्थान सिर्फ गर्म प्रदेश नहीं ठंडा प्रदेश भी है यारों!

'यहां सर्दी भी हद पार है।'

ऊन की पोटली का सीह क्या बिगाड़ लेगा?

डील-डाल वाले पुरुष पर यह क्या तो फबती है!

जिन तथ्यान्वेषकों ने राजस्थान के बारे में यह 'ओळी' स्थिर की है कि यहां गर्मी हद पार होती है उनसे कहो कि एक तथ्य और एड करो- "यहां सर्दी भी हद पार है।"

गर्मी-गर्मी कहकर हमारे पर्यटक पहाड़ों की ओर डायवर्ट किए हैं तो सर्दी में पहाड़ों को भी थोड़ी सांस लेने दो। आने दो पावणों को राजस्थान और बताओ उन्हें कि यहां की सर्दी लद्दाख से कम नहीं। राजस्थान सिर्फ गर्म प्रदेश नहीं ठंडा प्रदेश भी है यारों!

हमारे यहां की 'डांफर' साइबेरिया की समधन जैसी है,पसलियों के पार निकलती है बैरन। काया में धूजणी और दांतों में कड़कड़ाट छूटता है।

आदमी 'ठर के ठाकुरजी' हो जाता है और हाथों पैरों के 'कांकरे'। दिन में गोडे छाती में और रात  को गले में डाल लो तब भी यह 'सीह'(सर्दी ) पीछा न छोड़े।

ठंड में सबसे सुखी जीव है उन्नी। नाम उन्नी,बाल ऊनी और प्रकृति ऊ'नी (गर्म)। सर्दी उसकी पीठ से डांग की तरह टप्पा खाकर उछल जाती है पर मजाल है कि उसको छू ले। ऊन की पोटली का सीह क्या बिगाड़ लेगा?

सियाळे में किसीने पूछा उन्नी से -

"उन्नी उनाई!
कित्ता कातक मास न्हायी?"
(ऐसा कौनसा पुण्य कर्म किया कि ऊनयुक्त देह पाई)
उन्नी बोली -
"न न्हायी न धोयी 
एक चतरमास खाई
सगळो ही फळ पाई "
(चौमासे में जमकर चराई की, उसीका फल है)

उन्नी की मां हुई लल्डी (भेड़)।बेटी 'सुखी' तो मां 'परम सुखी'। इधर बकरी सबसे दुःखी। यहां के बड़े-बुजुर्ग  जब भी किसी बालक या जवान को ठंड में धूजते (कंपकंपाते) हुए देखते हैं तो तपाक से कहते हैं- मोट्यारों ने कोई सी लागे? टाबरां को सीह तो बकरियां चरे!

भला बकरी का सीह कौन चरेगा?

बकरी वही सयानी जो सीह में लल्डी की ओट ले और आदमी वही सयाना जो सी में 'बल्डी' (राजस्थान में निर्मित विशेष प्रकार ऊनी चादर) की ओट ले। बल्डी लल्डी की ही नेमत है। बल्डी वही जिसकी रेसिपी न कश्मीरी बाजार जानता है न लुधियाना बाजार और न ही तिब्बती बाजार।

बल्डी का बाजार,बनावट और बेजारे विशुद्ध राजस्थानी,रंग और डिजाइन निहायती देसी जिसकी नकल कर-करके फैशन डिजाइनरों ने पैसों से अपने घर भर लिए।

सर्दी की आहट से पहले ही बाजार में गर्माहट आ जाती है, किसिम-किसिम के गर्म कपड़ों से बाजार सजता है मगर बल्डी बाजार के बाहर है या शायद उपक्रमपूर्वक बाहर कर दी गई क्योंकि ढाई हाथ की बल्डी सब पर भारी है। ब्रांडेड गरम कपड़ों को खरीदने वालों के कान भले ठंडे हो जाए,बेचने वाले की जेब साल भर गर्म रहती है।

काळजे को निवाच (गर्माहट) तो बल्डी बेचने और खरीदने वाले को ही मिलता है। जिस दिन बड़े-बड़े नाम वाले बाजार में हमारी बल्डी बिकने लगी उस दिन कोट-ब्लेजर,इनर-स्वेटर,हुडी-वूडी सब बाहर हो जाने हैं।

बल्डी बहूपयोगी है।  एक्सट्रीम सर्दी में इसे आपादमस्तक लपेट लो, 'झीणे' सीह में सिर,पैर उघाड़ लो और इसकी भी जरूरत न लगे तो समेट कर कांधे पे धर लो,गले में डाल लो या सिर पर बांध लो।

चादर ओढ़े हुए स्त्री-पुरुष वैसे भी आकर्षक लगते हैं फिर बल्डी और पट्टूडे़ के तो  कहने ही क्या। बल्डी में रंग और पैटर्न सीमित होते हैं मगर इसके ब्लैक एंड व्हाइट कलर-पैटर्न की तो दुनिया दीवानी है। डील-डाल वाले पुरुष पर यह क्या तो फबती है!

आज से तीस-चालीस वर्ष पूर्व गांवों में कोट सिर्फ 'इराक वाले', शॉल सिर्फ 'आसाम वाले' और सूटर (स्वेटर) सिर्फ 'सरकार वाले' के पास ही होते थे बाकि तो बल्डी, इरंडी, पट्टूडा़,खेसला और धूसा ही सियाळे के साथी थे।

रंगीले लोगों के लिए रंग-बिरंगे और सादगी पसंद लोगों के लिए लाल किनारीदार उजळे-उजळे पट्टूडे़। सफेद लेकिन 'सफेद झक्क' नहीं,प्राकृतिक गूगळे (ऑफ व्हाइट)। सफेद झक्क की आदत ने हमसे काफी कुछ छीन लिया। सफेद झक्क कॉलर ने मेहनत करके खाने की आदत छीन ली,सफेद झक्क चीनी और नमक ने स्वास्थ्य छीन लिया और सफेद झक्क चमड़ी की लालसा ने हमसे आत्मविश्वास छीन लिया।

दिन की सर्दी से तो अकेले बल्डी-पट्टू लड़ सकते हैं किंतु रात के करट (अत्यधिक ठंड) में ये भी नाकाफी है। 'पो' और 'मा' की रातों से तो राम रुखाळे! जो बूढ़ा हाड (वृद्ध अस्थियां) वर्ष भर शरीर की गाड़ी खींच लेता है वह 'मझ सियाळे' में आकर डगमगाने लगता है। पो से बच निकलने वाले की 'पौ बारह' है। बडेरे कह गए हैं-

"पो-खालड़ी को खो
मा-कांधे कामळ बा
फागण- देख बा' ळी भागण"
(पौष,माघ से बच-निकलकर फागुन देखने वाला भाग्यशाली है।)

हालांकि फिक्र तब भी नहीं, यहां बल्डी और पट्टू का भाई 'धूसा'(दुतरफी ऊनी चादर) काम करेगा। राली (घर में बनी पतली रजाई) या सोड़ (रजाई) के साथ मिलकर ऐसी मसोड़ (रजाई को चादर की तह देना) बनेगी कि सर्दी सात कोस दूर भागेगी।

कबीरदास जी ने इस देह को चादर यूं ही नहीं कहा। आखिर चादर ही चादर के काम आती है। वैसे कबीर जी की 'चदरिया' गर्मियों के हिसाब से बनी हुई है और इसलिए सियाळे के जागन्ने(जागरण) में कोई गायक तारसप्तक पर 'चदरिया झीनी रे झीनीऽऽऽऽऽ...'  गा दे तो रजाई में 'घोट-मोट' होकर बैठे आदमी को भी धूजणी छूट जाती है।

गायक को रोककर कहता है-
"बीरा! सियाळे-सियाळे तो चदरिया झीणी मत राख!"

गायक पूछता है- "तो पच्छे कांई राखां?"
मोट्यार गोडे भेळे करते हुए बोला- "चदरिया ऊनी रे ऊनीऽऽऽऽऽ..."
- नीलू शेखावत

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