Highlights
- 'हवाई चप्पल' पहनने वाले को 'हवाई जहाज़' में बिठाने का सपना अब एकाधिकार में बदल गया है।
- जेट एयरवेज़ और किंगफ़िशर जैसी पुरानी एयरलाइंस के पतन के बाद टाटा और इंडिगो का बाज़ार पर प्रभुत्व।
- अडानी को एयरपोर्ट बेचने से लेकर पायलटों के शोषण तक, हवाई यात्रा में बढ़ती मनमानी।
- डीजीसीए की निष्क्रियता और कर्मचारियों की असुरक्षित कार्यस्थितियों पर गंभीर सवाल।
नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के 'हवाई चप्पल' वाले सपने से हवाई यात्रा अब चंद कंपनियों का एकाधिकार बन गई है।
यह सिर्फ़ एयरलाइंस (airlines) की नहीं, देश की आर्थिक व्यवस्था की भी कहानी है।
एक समय था जब भारत के प्रधानमंत्री ने 'हवाई चप्पल' पहनने वाले आम आदमी को 'हवाई जहाज़' में बिठाने का सपना दिखाया था।
यह एक ऐसा जुमला था, जो करोड़ों भारतीयों के कानों में शहद घोल गया था। उस समय लगा था कि अब हवाई यात्रा सिर्फ़ अमीरों का विशेषाधिकार नहीं रहेगी, बल्कि यह आम लोगों की पहुँच में भी आएगी।
लेकिन, आज जब हम इस सपने की हकीकत से रूबरू होते हैं, तो तस्वीर कुछ और ही नजर आती है। हवाई जहाज़ में बैठना तो दूर, हवाई यात्रा ही अब कुछ चुनिंदा, ख़ास लोगों की निजी उड़ान बनकर रह गई है, जहाँ आम मुसाफ़िर सिर्फ़ एक अदद भीड़ है।
यह कहानी केवल एयरलाइंस सेक्टर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत की पूरी आर्थिक व्यवस्था का एक प्रतिबिंब है।
स्टील से लेकर सीमेंट तक, संचार से लेकर ईंधन तक, हर प्रमुख क्षेत्र में चंद बड़े खिलाड़ियों ने बाज़ार पर कब्ज़ा जमा लिया है।
यह एकाधिकार न केवल प्रतिस्पर्धा को खत्म कर रहा है, बल्कि उपभोक्ताओं की जेब पर भी भारी पड़ रहा है और सेवाओं की गुणवत्ता को भी लगातार गिरा रहा है।
'उड़ान' का सपना और जुमलों की हकीकत
एक दशक पहले, भारत के आसमान में कई रंग बिखरे हुए थे। जेट एयरवेज़, किंगफ़िशर, विस्तारा और इंडियन एयरलाइंस जैसी कई कंपनियाँ प्रतिस्पर्धा में थीं। इस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण यात्रियों को बेहतर सेवा और उचित किराए की उम्मीद थी।
भले ही हम सिंगापुर एयरलाइंस जैसे वैश्विक मानकों तक न पहुँचे हों, लेकिन एक उम्मीद थी कि भारतीय हवाई यात्रा भी लगातार बेहतर हो रही है। इसी दौर में इंडिगो ने 'सस्ती और समयबद्ध' यात्रा का मंत्र देकर बाज़ार में अपनी मजबूत जगह बनाई।
यात्रियों को लगा कि अब हवाई सफ़र उनकी जेब पर भारी नहीं पड़ेगा। उस समय टिकट के दाम से लेकर विमान में मिलने वाले खाने-पीने तक, हर चीज़ में एक सम्मानजनक स्तर बना हुआ था। लेकिन, हवाई यात्रा के लिए शायद वे 'अच्छे दिन' ज्यादा समय तक नहीं टिक पाए।
एकाधिकार की उड़ान: कुछ हाथों में सिमटी हवाई सत्ता
पिछले ग्यारह सालों में भारतीय हवाई यात्रा की कहानी पूरी तरह से पलट गई है।
जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने सीमेंट, संचार, बिजली और स्टील जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपने चहेते बड़े उद्योगपतियों को बढ़ावा दिया, ठीक उसी तरह एयरलाइंस सेक्टर में भी यह प्रवृत्ति देखने को मिली।
देश के प्रमुख हवाई अड्डे अडानी समूह को बेच दिए गए, जिसके परिणामस्वरूप यात्रियों पर किराए और अन्य शुल्कों का बोझ बढ़ गया है।
भारत की गौरवशाली 'महाराजा' इंडियन एयरलाइंस को टाटा समूह के हवाले कर दिया गया।
जो कंपनियाँ पहले प्रतिस्पर्धा में थीं, उनके मालिकों को या तो जेल की हवा खानी पड़ी या उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा।
नरेश गोयल और विजय माल्या जैसे बड़े नाम इसके उदाहरण हैं। अब भारतीय हवाई यात्रा बाज़ार में कौन बचा है? मुख्य रूप से इंडिगो और टाटा की एयरलाइंस ही बची हैं, जो अब एक सीमित प्रतिस्पर्धा के साथ बाज़ार पर हावी हैं।
हर क्षेत्र में एकाधिकार का बढ़ता ढर्रा
यह खेल केवल हवाई यात्रा तक ही सीमित नहीं है। भारत के लगभग हर बड़े आर्थिक क्षेत्र में यही एकाधिकार का ढर्रा चल रहा है।
संचार क्षेत्र में जियो और एयरटेल का प्रभुत्व है। सीमेंट उद्योग में अडानी और बिड़ला का दबदबा है। स्टील सेक्टर में टाटा और जिंदल जैसे कुछ बड़े खिलाड़ी बाज़ार पर नियंत्रण रखते हैं।
इस तरह, 140 करोड़ 'हवाई चप्पल' पहनने वाले ग्राहक अब इन चंद कंपनियों के बंधक बनकर रह गए हैं, जहाँ उनकी पसंद और उनकी जेब दोनों पर इन्हीं का राज चलता है।
इन कंपनियों ने पिछले एक दशक में न केवल अपनी मनमानी दरों से लोगों की जेब काटी है, बल्कि उन्हें 'भीड़' मानकर घटिया सेवा भी परोसी है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे सत्ता ने भीड़ को 'भक्त' बनाकर शासन के नाम पर जुमले बेचे हैं।
यात्रियों की जेब कटी, सेवा की कमर टूटी: 'उड़ान' का असली चेहरा
आज हर हवाई यात्री को यह सोचना चाहिए कि पिछले ग्यारह सालों में हवाई टिकट के दाम कितने बढ़े हैं और सेवाओं की गुणवत्ता कितनी गिरी है?
एक समय था जब विमान में खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था होती थी, लेकिन आज तो यात्रियों को ढंग से पानी भी नहीं मिलता।
यह स्थिति केवल यात्रियों तक ही सीमित नहीं है। इस एकाधिकार का सबसे बड़ा शिकार वे लोग भी हैं जो इन हवाई जहाज़ों को उड़ाते हैं और उनका रखरखाव करते हैं – यानी पायलट और अन्य कर्मचारी।
डीजीसीए की भूमिका पर गंभीर सवाल
नागरिक उड्डयन मंत्रालय के तहत आने वाला डीजीसीए (डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन) आखिर कहाँ है? वैश्विक सुरक्षा मानकों की लगातार धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं।
क्या कोई रिकॉर्ड रखा जाता है कि पायलट दिन में कितने घंटे उड़ान भरते हैं? उनकी थकान, उनका मानसिक तनाव, क्या सुरक्षा के लिए मायने नहीं रखता?
एयरलाइंस कंपनियाँ खर्च कम करने के लिए रिटायर हो चुके या अधिक उम्र के पायलटों से विमान उड़वा रही हैं।
हवाई जहाज़ उड़ाने से लेकर रखरखाव तक के कर्मचारियों को ठेके और अनुबंधों पर रखा जा रहा है, जैसे मानो किसी सुलभ शौचालय की ठेकेदारी हो!
यह सोचने वाली बात है कि डीजीसीए ने यात्रियों की जान को जोखिम में डालकर इतने सालों से इंडिगो जैसी कंपनियों को पायलटों का ऐसा शोषण करने की छूट क्यों दी है?
पायलटों पर दो-तीन उड़ानों की बजाय पाँच-छह उड़ानें भरने का दबाव होता है, उन पर ओवरटाइम का बोझ होता है, और पर्याप्त पायलटों की हमेशा कमी बनी रहती है।
एक रिपोर्ट बताती है कि इंडिगो का सालाना मुनाफ़ा सात हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा है, फिर भी उनके पास पर्याप्त पायलट नहीं हैं और न ही नए पायलटों को प्रशिक्षित करने का कोई ठोस इंतज़ाम है।
यह कैसा 'न्यू इंडिया' है, जहाँ मुनाफ़े के लिए सुरक्षा और कर्मचारियों की भलाई को दांव पर लगाया जा रहा है?
'नया भारत' की हवाई यात्रा: भीड़ और भेड़-बकरियों का सफर
तो क्या हम 'हवाई चप्पल' वाले आम नागरिक, जो कभी 'हवाई जहाज़' में उड़ने का सपना देखते थे, अब बस एक 'भीड़' बनकर रह गए हैं? एक ऐसी भीड़, जिसे घटिया सेवा, ज़्यादा दाम और अपनी जान का जोखिम भी सहना पड़े?
जब कभी कोई हवाई हादसा होता है या पायलटों के उत्पीड़न की ख़बरें सामने आती हैं, तो सरकार और डीजीसीए थोड़ा-बहुत शोर मचाते हैं, कुछ लीपापोती करते हैं, और फिर सब कुछ वापस पुराने ढर्रे पर आ जाता है।
यह सब इसलिए होता है, ताकि यह 'भीड़' या यूँ कहें, 'भेड़-बकरियों' की तरह, अपनी जान को असुरक्षित बनाकर, अपनी 'चप्पल छाप' हवाई यात्रा जारी रख सके।
प्रधानमंत्री मोदी का जुमला था कि हवाई चप्पल पहनने वाले हवाईजहाज़ से यात्रा करेंगे। हक़ीक़त यह है कि हवाई यात्रा अब कुछ मुट्ठीभर लोगों के लिए मुनाफ़ा कमाने का ज़रिया बन गई है, और बाकी 140 करोड़ लोग, जिन्हें 'उड़ान' का सपना दिखाया गया था, अब बस इस एकाधिकार की उड़ान में अपनी जेबें कटवा रहे हैं। क्या यही है वो 'परिवर्तन' जिसका वादा किया गया था? सवाल तो बनता है!
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