Highlights
- घनश्याम तिवाड़ी ने वंदे मातरम पर कांग्रेस की विभाजनकारी नीतियों की आलोचना की।
- उन्होंने खिलाफत आंदोलन और लखनऊ पैक्ट को द्विराष्ट्रवाद की नींव बताया।
- तिवाड़ी ने कहा कि कांग्रेस ने वंदे मातरम को छोटा कर विभाजन की रूपरेखा तय की।
- नरेंद्र मोदी को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और ऋषि परंपरा का प्रतीक बताया गया।
नई दिल्ली: राज्यसभा (Rajya Sabha) में सांसद घनश्याम तिवाड़ी (Ghanshyam Tiwari) ने वंदे मातरम (Vande Mataram) पर कांग्रेस (Congress) की विभाजनकारी नीतियों की आलोचना की। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने गीत को छोटा कर भारत के विभाजन की नींव रखी। नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं।
आज हम सब लोग बहुत सौभाग्यशाली हैं कि वंदे मातरम के ऊपर अपने विचार विमर्श कर रहे हैं। इसका गुणगान और यशोगान कर रहे हैं।
भारतवर्ष में वंदे मातरम करना कोई नई बात नहीं है, यह हमारी सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा है। विश्व में सबसे पुराना लिखित ग्रंथ ऋग्वेद है, जिसमें कहा गया है 'माता पृथ्वी पुत्रो अहम प्रतिभ्याह' यानी माता पृथ्वी हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं।
नेतृत्व के गुण और राम का उदाहरण
हमारे शास्त्रों में वर्णन है कि नेतृत्व करने वाले या राज करने वाले में कुछ विशेष गुण होने चाहिए। उनमें लोक संग्रह का गुण, लोक संपर्क का गुण और लोक आराधन का गुण होना चाहिए।
जिस राजनेता में ये तीनों गुण होते हैं, वह राजनेता सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। भगवान राम का उदाहरण देते हुए कहा गया कि जब वे लंका जीतकर लौट रहे थे, तब लक्ष्मण जी ने कहा कि भैया, सोने की लंका है, आप यहीं क्यों नहीं रहते।
तब राम जी ने कहा था 'अपी स्वर्णमय लंका नमे लक्ष्मण रोचते जननी जन्मभूमि स्वर्गात दपि गरियसी'। इसका अर्थ है कि मुझे सोने की लंका भी पसंद नहीं है, क्योंकि मेरी जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
भगवान राम ने उसी दिन वंदे मातरम बोल दिया था, जिस समय उन्होंने यह बात कही थी। यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है।
वंदे मातरम: एक मंत्र, एक ऋषि परंपरा
मैं इन सब बातों से ऊपर उठकर यह कहना चाहता हूं कि भारतवर्ष में वंदे मातरम करना कोई नई बात नहीं है। हमारे यहां एक ऋषि परंपरा है, जिसमें कहा गया है कि वेद अपौरुषेय हैं, यानी उन्हें किसी पुरुष ने नहीं लिखा है।
मंत्रों के दृष्टा थे, जिन्होंने मंत्रों को देखा और याद किया, फिर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक वे चलते रहे। इसीलिए मैं कहना चाहता हूं कि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय मंत्र दृष्टा थे।
श्री अरविंदो ने कहा है कि यह वंदे मातरम एक गीत नहीं, बल्कि एक मंत्र है। यह भारत के जागरण का मंत्र है।
इसलिए बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने यह भारत के जागरण का मंत्र लिखा, और वे भारत की ऋषि परंपरा के अंतर्गत ऋषि हो गए। इसीलिए हम ऋषि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को हमारी श्रद्धांजलि और उनको निवेदन करते हैं।
प्रचारक परंपरा और नरेंद्र मोदी का योगदान
एक परंपरा यहां और है, ऋषि परंपरा के अलावा भारत में 100 साल में एक नई परंपरा चालू हुई है। वह है प्रचारक परंपरा।
यह परंपरा ऋषि परंपरा की अच्छी बातों का संरक्षण, विस्तार और प्रचार करती है। उसी प्रचारक परंपरा के मूर्तिमंत प्रतीक श्री नरेंद्र मोदी जी हैं।
आज तक राज करने वाले लोगों ने कभी यह नहीं सोचा कि हमको यह क्यों करना चाहिए। नरेंद्र मोदी जी ने यह करके बताया कि वे लोक संग्रह कर रहे हैं, लोक जागरण कर रहे हैं और वे भारत माता के लिए शिक्षित कर रहे हैं।
इसलिए वे युग चिंतक महापुरुष के रूप में इन सारे कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे हैं। इसी कारण आज हम वंदे मातरम पर यहां चर्चा कर रहे हैं।
वंदे मातरम का ऐतिहासिक संदर्भ और जागरण
1857 के बाद देश में एक सुप्तावस्था आ गई थी, उसे जागृत करने के लिए ऋषि बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत की रचना की। हम सब इस बात को जानते हैं कि यह गीत पहले बंग दर्शन में लिखा गया, फिर आनंद मठ में प्रकाशित हुआ।
रवींद्रनाथ टैगोर ने भी इसकी महत्ता को स्वीकार किया। 1905 में जो बंग भंग हुआ था, लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया था, और सबसे पहले जो राष्ट्रवाद की और राष्ट्र की अखंडता के लिए आवाज उठी थी, वह बंग भंग आंदोलन था।
1905 से लेकर 1908 तक सारे देश में यह मंत्र गूंजा। इस मंत्र के कारण इतनी जागृति हुई कि यह जागरण का महामंत्र बन गया, प्रेरणा स्रोत बन गया, प्रेरणा पुंज बन गया।
हजारों लोगों ने लाठियां खाईं, गोलियां खाईं, कोड़े खाए, जेलों में गए। भारत की सारी भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया और उसको भिन्न-भिन्न भाषाओं में बोला गया। यह गीत हमारा आगे चला और राष्ट्रव्यापी पहचान मिली।
कांग्रेस की विभाजनकारी नीतियां: वंदे मातरम और द्विराष्ट्रवाद
लेकिन कुछ तारीखें हमको देखनी पड़ेंगी, जिन्होंने इस मंत्र की, इस गीत की प्रतिष्ठा को भी कम किया और भारत के लिए भी हानिकारक हुआ। 1914 और 1916 में जब कांग्रेस ने सेपरेट कांस्टीट्यूएंसीज (अलग निर्वाचन क्षेत्र) का नारा स्वीकार किया, तो यह एक बड़ी गलती थी।
1916 में लखनऊ पैक्ट हुआ, जिसमें मुसलमानों की अलग कांस्टीट्यूएंसी और हिंदुओं की अलग कांस्टीट्यूएंसी स्वीकार की गई। यह सबसे बड़ा पाप था, यहीं से इसकी नींव रखी गई।
उसके बाद दूसरा बड़ा काम हुआ जिसने हमको राष्ट्र की मूल धाराओं से मुसलमानों को अलग किया, वह था खिलाफत आंदोलन। 1920 और 1922 तक एक खिलाफत आंदोलन हुआ, जो तुर्की का आंदोलन था, भारत का नहीं।
मुझे समझ में नहीं आया कि कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम लीग से खिलाफत आंदोलन का समर्थन इस बात पर क्यों किया कि कांग्रेस पार्टी खिलाफत आंदोलन का समर्थन करेगी, इस शर्त पर कि मुस्लिम लीग भारत की स्वतंत्रता का समर्थन करे।
तुर्की में कमाल अत्तात तुर्क (कमाल पासा) जैसे नेता हुए, जिन्होंने वहां रूढ़िवाद के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। उन्होंने तीन प्रमुख बातें रखीं: टर्की में टर्की की भाषा में ही शिक्षा दी जाएगी, बुर्के पर प्रतिबंध लगाया जाएगा, और नमाज टर्की भाषा में पढ़ी जाएगी।
उन्होंने कहा कि खुदा सब भाषाओं को समझता है, उसके लिए सब भाषाएं बराबर हैं। उन्होंने यह तीनों बातें लागू कर दीं, और इसके खिलाफ हिंदुस्तान में खिलाफत आंदोलन हुआ।
यह आंदोलन तुर्की में हो रही लड़ाई का समर्थन भारत में कर रहा था, और कांग्रेस पार्टी उस आंदोलन का समर्थन कर रही थी। यह सबसे बड़ी द्विराष्ट्रवाद की नींव यहां पर रखी गई, यह कांग्रेस में हुआ।
वंदे मातरम को छोटा करना और विभाजन की नींव
उसके बाद 1937 में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। 1937 के कांग्रेस अधिवेशन में इस गीत को छोटा करने की बात तय कर ली गई, और वहीं से भारत के विभाजन की भी नींव रख दी गई।
जब इसको छोटा किया गया, तो उसमें तर्क ये दिए गए कि इसमें मूर्ति पूजा है, इसमें दुर्गा का नाम है, इसमें कमला का नाम है, इसमें धर्म का नाम है, इसमें विद्या का नाम है। इसके कारण से इसको काट दिया जाए।
और उसके दो छंद 'सुजलाम सुपलाम मलेश शीतलाम' वो रखा गया, और 3, 4, 5, 6 छंदों को काट दिया गया। यह जब हुआ, उसके बाद 1940 में लाहौर में मुस्लिम लीग का सम्मेलन हुआ।
उन्होंने द्विराष्ट्रवाद की थ्योरी इसी आधार पर प्रतिपादित करके भारत के विभाजन की रूपरेखा तय की। अगर कांग्रेस पार्टी इस गीत को नहीं काटती, इस पर संघर्ष करती, इस पर झुकती नहीं, तो मुस्लिम लीग 1940 में लाहौर में यहां तक नहीं पहुंच सकती थी।
और उसके बाद 1947 में इसका विभाजन हुआ। जो गीत 1857 के बाद 1872 में, 1905 में, 1908 में इस देश के जागरण का मंत्र बन गया, उसको काटा गया।
काटने के बाद विभाजन की परख दी गई, और 1947 में विभाजन हुआ। दुनिया के किसी भी देश ने इतनी बड़ी त्रासदी नहीं देखी।
दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जिसका धर्म के आधार पर विभाजन हुआ हो। जर्मनी का विभाजन हुआ था, लेकिन साम्यवाद और पूंजीवाद के आधार पर बर्लिन के बीच में दीवार खींची गई थी।
कोरिया का भी विभाजन हुआ, वियतनाम का भी विभाजन हुआ, यूगोस्लाविया का भी विभाजन हुआ। बहुत से देशों का विभाजन हुआ, लेकिन एकमात्र देश दुर्भाग्य से भारत था, जिसमें धर्म के आधार पर विभाजन हुआ।
उस विभाजन की विभीषिका इतनी बड़ी थी कि लाखों लोग मारे गए। एक करोड़ से ज्यादा लोग घरों से बाहर निकाल दिए गए, इतना बलात्कार हुआ, गाड़ियां भर-भर कर आती रहीं।
यह सारी नींव इस गीत के विभाजन से रूपरेखा बनी। 1937 का जो कांग्रेस अधिवेशन था, और 1914 और 1916 का जो लखनऊ का पैक्ट था, और मुसलमानों के लिए सेपरेट कांस्टीट्यूएंसी करी, उसका परिणाम हमको यह भोगना पड़ा।
काटे गए छंदों का निहितार्थ और सांस्कृतिक राष्ट्र का क्षरण
काटा क्या गया, मैं बताता हूं। तीसरा और तीसरा जो अंतरा है, उसमें काटा गया 'सतशत कोठी' यानी आपके हजारों गले हैं और हजारों हाथ हैं।
इस पैरे को, इस अंतरा को, इस तंजा को काट दिया गया। क्यों काटा गया? इसमें कौन सी मूर्ति पूजा थी?
यह काटा इसलिए गया, और इसके काटने से यह जो आ रहा था कि हम बहुत ताकतवर हैं, हमारी शक्ति है, हमारे हजारों हाथ हैं, वह ताकत क्षीण हो गई। युवा जिस ताकत को लेकर चलते थे कि हम भारत के लिए हजारों गले हैं, हजारों कंठ हैं, हजारों हाथ हैं, उन युवकों में वह शौर्य खत्म हो गया।
करोड़ों लोगों में वह काम बंद हो गया। फिर दूसरा क्या काटा? 'तुम्ही विद्या तुम्ही धर्म' उसको काट दिया।
तो भारत में से धर्म को काटना, और धर्म के लिए यह कहना कि यह अगर गीत में रहेगा, तो या तो विद्रोह हो जाएगा। मैं कहना चाहता हूं कि धर्म के उत्पन्न होने वाली भूमि तो भारतवर्ष है।
आज के 1500 वर्ष पहले तो कहीं अजान नहीं थी। आज के 2100 वर्ष पहले तो कहीं चर्च या गिरजाघर नहीं था।
यह भारत ही था, भारत ने कहा 'धारणा धर्म्याहु धर्मो धारेति प्रजा य्या धारण संयुक्त धर्म इति निश्चय'। वह धर्म है, वह धर्म इस भारतवर्ष में था, और वह धर्म कहता है कि मां की रक्षा करो, मां की पूजा करो। उस धर्म को आपने काट दिया उसमें से।
फिर उसमें काटा 'दुर्गा रिपुदल वारणी बहुबलधारी'। अरे, दुर्गा का नाम काटा? शिवाजी जब लड़ रहे थे, तो 'जय जय भवानी' और 'जय शिवाजी' कहकर ही तो लोग लड़ रहे थे।
महाराणा प्रताप जो लड़ रहे थे, चामुंडा माता की जय बोलकर ही तो लड़ रहे थे। गुरु गोविंद सिंह जी के पुत्रों का बलिदान हुआ, वीर बाल दिवस हम 26 तारीख को मनाएंगे।
उनका बलिदान हुआ। गुरु गोविंद सिंह जी लड़े, नैना देवी के दर्शन कर-कर के तो रोज आते थे। इतने सारे जो लोग लड़े, दुनिया के अंदर कोई इतिहास नहीं है।
712 ईस्वी में राजा दाहिरसेन के ऊपर पहला हमला हुआ था, उससे लेकर पहलगांव के हमले तक आ जाइए, अंग्रेजों के हमले पर आ जाइए। दुनिया की कोई सभ्यता और संस्कृति नहीं बची, भारत बचा, भारत का धर्म बचा, भारत की संस्कृति बची।
उसके लिए लड़ने वाले योद्धा थे, उनकी प्रेरणा जय भवानी थी, जय दुर्गा थी, दस प्रेरणा धारणी थी। उसको काटा गया।
और फिर उसके बाद में ज्ञान को, कर्म को और संगीत को काट दिया। जब किसी देश में से ज्ञान निकल जाए, सरस्वती निकल जाए, दुर्गा निकल जाए, लक्ष्मी निकल जाए, तो वह देश क्या बचेगा?
वह देश नहीं, राष्ट्र नहीं बचेगा, भूगोल बचेगा। और वह भूगोल बचेगा, तो उसमें एक तो पाकिस्तान की लाइन खींच दी जाएगी, और एक बांग्लादेश की लाइन खींच दी जाएगी।
अगर यह भूगोल ना होकर सांस्कृतिक राष्ट्र बनता, तो यह नहीं होता। इस गीत के काटने के बहुत असर हुए, सांप्रदायिकता बढ़ी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कम हुआ।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारत की पहचान
यह राष्ट्र तो सांस्कृतिक राष्ट्र है, यह भूसांस्कृतिक राष्ट्र है। इसमें व्यक्तियों का एक समूह है, जिसकी समान शत्रु मित्र भावना है, जो इस देश को मातृभूमि, पुण्यभूमि और धर्मभूमि मानते हैं।
उसके लिए साफ-साफ कहा गया है 'हिमालय समारंभ यावत हिंदू सरोवरम तंग देव निर्मितम देशम हिंदुस्तानम समाचरेत'। हिमालय का पहला शब्द है 'ही' और इंदु कन्याकुमारी को संस्कृत में इंदु यानी चंद्रमा सागर कहते हैं, हिंदू सागर।
तो उसका 'नदु' और 'ही', तो हिंदू। यह जो देश है, इसको राष्ट्र कहते हैं। इस राष्ट्र में से अगर धर्म निकाल दिया जाए, तो क्या बचेगा?
इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्थापना किसने करी? जैसे मैंने कहा, राम जी ने करी। फिर शंकराचार्य जी ने केरल के कालड़ी गांव में थे, अभी प्रधानमंत्री जी ने केदारनाथ में उनके मूर्ति का अनावरण किया है।
शंकराचार्य जी केरल से चलकर वहां तक गए, और भारत के चारों कोनों पर चारों धामों की स्थापना की। यह भारत का सांस्कृतिक राष्ट्र है।
आज का संदर्भ और भविष्य की प्रतिज्ञा
मेरा इतना ही कहना है कि आज हम सौभाग्यशाली हैं कि हम वंदे मातरम गा रहे हैं। हम क्यों गा रहे हैं? हम यहां पर बैठे हैं, हम बहस कर रहे हैं।
यह सारा उन महापुरुषों की देन है। तो हमको आज यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए। यह कहते हैं आज क्यों मनाया जा रहा है? मैं आज यह बात साफ-साफ कहना चाहता हूं कि जिस समय भारत का विभाजन हुआ, यह बार-बार पूछा गया कि आप लोगों ने क्या किया, आप लोगों ने क्या किया?
मैं कह रहा हूं कि एक आजादी तो स्वतंत्रता सेनानियों ने दिलाई, और दूसरी आजादी आपातकाल में हमने लड़कर दिलाई, लोकतांत्रिक सेनानियों ने। हम जेलों में बंद थे, मार खाने वाले थे, और हम लोग इसलिए बोल रहे हैं कि हमने दूसरी आजादी दिलाई।
और एक बात और कहकर खत्म करूंगा कि जिस समय भारत का विभाजन हुआ, उस समय भारतीय जनता पार्टी नहीं थी, और नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्तित्व नहीं था। आज नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्तित्व है और भारतीय जनता पार्टी है। भारत अखंड रहेगा, वंदे मातरम बोलेगा और भारत माता की जय बोलेगा।
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