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दो अक्टूबर का दिन इस साल नागपुर के लिए त्रिआयामी बन कर आया। उस दिन महात्मा गांधी की 156वीं जयंती थी, 69वां धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस भी उसी दिन मना और आरएसएस के सौ साल पूरे होने का समारोह भी उसी दिन रखा गया।
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गांधी तो दो अक्टूबर को जन्मे थे तो उन की जयंती पर कार्यक्रम तो हर साल उसी दिन होते हैं, मगर भारतीय बौद्ध महासभा और आरएसएस ने अपने समारोहों की तारीख़ पीछे-आगे कर ली और दो अक्टूबर को ही अपने-अपने आयोजन भी किए।
नमस्ते दोस्तों! चाय की चुस्कियों के साथ एक सदी पुराने सफ़र की बात करते हैं, है न? सोचिए ज़रा, एक संस्था जिसने भारत की ज़मीन पर पूरे सौ साल का फासला तय किया हो! अब जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी शताब्दी पूरी कर चुका है, तो इसके प्रमुख मोहन भागवत जी का विजयादशमी भाषण नागपुर से आया। यह महज़ सालाना संबोधन नहीं, बल्कि संघ के सौ साल का निचोड़ और आने वाले कल की एक धुँधली सी परछाई भी था। चलिए, इस परछाई को थोड़ा और क़रीब से देखते हैं, और समझते हैं कि भागवत जी ने हमें क्या 'ज्ञान' दिया है।
भागवत जी की 'मन की बात': सुरक्षा से समाज तक
संघ प्रमुख ने पहलगाम हमले और नक्सलवाद पर बात की। उन्होंने सरकार और सेना की 'दृढ़ता' सराही, और कहा कि नक्सलवाद की विचारधारा खोखली है। लेकिन क्या सिर्फ़ दमन से काम चलेगा? भागवत जी ने खुद कहा कि ‘न्याय, विकास और सद्भावना’ ज़रूरी है। तो, सरकार जी, सुना आपने? सिर्फ़ लाठी नहीं, रोटी और सम्मान भी चाहिए। है न कमाल की बात?
जेन ज़ी और पड़ोसियों का दर्द: कहीं घर की आग तो नहीं?
अब बात करते हैं 'जेन ज़ी' की। पड़ोसी देशों की उथल-पुथल पर भागवत जी ने 'घातक विचारधारा' वाले 'नए पंथ' का ज़िक्र किया। चिंता ज़ाहिर की कि दुनिया भारत की ओर उम्मीद से देख रही है। लेकिन, ज़रा सोचिए, पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय की बात कितनी सही है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर 'विफल' रही है, और बेरोज़गारी चरम पर है? क्या 'जेन ज़ी' का असंतोष सिर्फ़ 'घातक विचारधारा' है, या फिर उनका भविष्य अंधकारमय देखकर उपजा गुस्सा भी है? राधिका रामसेशन भी कहती हैं कि संघ को युवाओं के बढ़ते असंतोष का 'फ़ीडबैक' ज़रूर मिला होगा। तो, सरकार जी, 'अमृतकाल' में ये कैसा 'विषपान' हो रहा है?
धार्मिक सहिष्णुता और संघ-भाजपा का रिश्ता: क्या सब 'ठीक' है?
और लीजिए, संघ प्रमुख ने धार्मिक सहिष्णुता की बात भी कर डाली! बोले, "विदेशियों के धर्म को स्वीकार कर के रहने वाले हमारे अपने बंधु देश में हैं।" वाह! क्या कहने! लेकिन अगर ऐसा है तो अल्पसंख्यकों पर हमले क्यों होते हैं? बजरंग दल जैसी इकाइयाँ हिंसा क्यों करती हैं? क्या संघ ने कभी सोचा कि लोग धर्म क्यों बदलते हैं? कहीं इसमें जातिगत भेदभाव का हाथ तो नहीं?
अंत में, बात संघ और बीजेपी के रिश्तों की। इस बार भागवत जी का भाषण सरकार के लिए 'संदेश' या 'चेतावनी' जैसा नहीं लगा। राधिका जी कहती हैं, "मोदी जैसे प्रधानमंत्री आरएसएस को जल्दबाज़ी में नहीं मिलने वाले हैं।" मोदी जी संघ का एजेंडा पूरा कर रहे हैं, तो भला संघ क्यों नाराज़ होगा? लेकिन बात भी ग़ौर करने लायक है कि पिछले चुनावों में संघ कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता ने बीजेपी को बहुमत से दूर रखा। तो क्या यह 'नरमी' सिर्फ़ ऊपरी है? या संघ ने दिखा दिया कि 'ज़रूरत' किसे ज़्यादा है? भागवत जी ने इस पर ख़ामोशी ओढ़ ली, तो क्या ये 'शांत समंदर' के नीचे छिपी 'तूफ़ानी लहरों' का संकेत है?
तो दोस्तों, संघ प्रमुख का ये भाषण महज़ शब्दों का खेल था, या देश के लिए कोई गहरा चिंतन, कोई नई दिशा? क्या ये सिर्फ़ 'अपने लोगों' को संदेश था, या 'सबका साथ, सबका विकास' की कोई नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश? आप इन शब्दों को कैसे देखते हैं? क्या आपको लगता है कि संघ अपने सौ साल के सफ़र में सचमुच 'बदल' रहा है, या सिर्फ़ 'बदलने' का दिखावा कर रहा है? अपनी राय हमें ज़रूर बताइए। क्योंकि आख़िरकार, ये आपके और हमारे देश का सवाल है, है न?