नीलू की कविता: चंपा अब क्यों नहीं आती

चंपा अब क्यों नहीं आती
चंपा अब क्यों नहीं आती
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उसका हेला जहां तक पहुंचता
निकल आती घरों से सासुएं
झांकने लगती मोखों से कुलवधुएं
दौड़ पड़ती बालिकाएं

जिस किसी घर के आगे खुलता
वो भानुमती का छाबड़ा
उमड़ पड़ता हुजूम
मुहल्ले भर की ललनाओं का

सुई से लेकर सुथन तक
सब होता था उसमें
क्षीण कटि पर बंधेज की चुनड़ी लपेटे
पसीने से भीगी हुई गोरी देह को मटकाती

बड़े बड़े घूघरों वाली जोड़ों को ठणमणाती
वो अपने सिर पर लेकर चलती थी 
पूरा का पूरा शॉपिंग मॉल

रखती थी हर औरत के
तन बदन और कलाई का नाप
उसका आना सबके दिलों को कर देता हरा

वो अपने पीछे छोड़ जाती रंगीन संसार
रंग जो खिलता कहीं केशों में
कहीं कलाइयों में
कहीं नखों पर
कहीं होठों पर
वो हर एक स्त्री को सजाकर जाती
हाथ को रबड़ की तरह  मोड़कर
मूठ्या पहनाने वाली
चंपा अब क्यूं नहीं आती?

—नीलू शेखावत 

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