वंदे मातरम पर संसद में तीखी बहस: राजकुमार रोत: राष्ट्रप्रेम बनाम धरती का दोहन, संसद में गरमागरम बहस

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Highlights

  • वंदे मातरम को राष्ट्रप्रेम से जोड़ने की अपील, धार्मिक विवाद से दूर रखने का आग्रह।
  • धरती को संसाधन मानकर उद्योगपतियों को सौंपने पर सरकार की आलोचना।
  • हसदेव, करौली और सिंगरौली में जल-जंगल-जमीन के लिए आदिवासियों का संघर्ष।
  • अरावली पर्वत श्रृंखला में खनन की अनुमति पर चिंता व्यक्त की गई।

नई दिल्ली: संसद में वंदे मातरम (Vande Mataram) के 150वें वर्ष पूरे होने पर चर्चा के दौरान, Rajkumar Roat ने इसे राष्ट्रप्रेम से जोड़ने और धार्मिक विवादों से दूर रखने की अपील की। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया कि वह धरती को संसाधन मानकर उद्योगपतियों (industrialists) को सौंप रही है, जबकि आदिवासी (tribals) जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। रोत ने हसदेव (Hasdeo), करौली (Karauli) और सिंगरौली (Singrauli) जैसे क्षेत्रों में हो रहे खनन का उदाहरण दिया।

संसद में राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम के 150वें पूर्ण होने पर एक गहन चर्चा का आयोजन किया गया। इस अवसर पर, एक सम्मानित रोत ने सदन को संबोधित करते हुए कहा कि यह गीत भारत की आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों के भीतर एक नई जान फूंकने का काम किया था।

उन्होंने इस ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए अपील की कि वंदे मातरम को केवल देश प्रेम और राष्ट्र प्रेम से जोड़कर देखा जाए, न कि इसे किसी धार्मिक या राजनीतिक विवाद का हिस्सा बनाया जाए।

रोत ने वर्तमान समय में चल रही "कौन राष्ट्रप्रेमी है और कौन राष्ट्रविरोधी" जैसी बहस पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि इस तरह की चर्चा की आवश्यकता क्यों पड़ी, इसका उद्देश्य क्या है?

उन्होंने विशेष रूप से सत्ता पक्ष के साथियों से अपील की कि वे अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से बताएं कि क्या वे वंदे मातरम से सच्चा प्रेम करते हैं और क्या उनकी पार्टी इस गीत की मूल भावना के अनुरूप कार्य कर रही है।

वंदे मातरम का मूल अर्थ और वर्तमान विकृति

वंदे मातरम का गहरा अर्थ है धरती की पूजा करना, इस धरती को अपनी मां के समान पूजनीय मातृभूमि मानना। यह गीत हमें अपनी भूमि, जल, जंगल और पहाड़ों के प्रति अगाध श्रद्धा और सम्मान सिखाता है।

हालांकि, रोत ने खेद व्यक्त किया कि आज इस पवित्र भावना के विपरीत कार्य हो रहे हैं।

उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में भारत की इस पूजनीय धरती को केवल एक संसाधन के रूप में देखा जा रहा है और इसे अंधाधुंध खनन तथा दोहन के लिए उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है।

हमारी सुंदर नदियाँ, नाले और पहाड़, जो हमारी प्राकृतिक विरासत हैं, उन्हें पूंजीपतियों के लाभ के लिए नष्ट किया जा रहा है।

मातृभूमि का दोहन: हसदेव से सिंगरौली तक

इस संदर्भ में, रोत ने छत्तीसगढ़ के हसदेव और रायगढ़ क्षेत्र का उदाहरण दिया, जहाँ आदिवासी समुदाय अपनी धरती माँ की रक्षा के लिए रात-दिन आंदोलन कर रहा है।

उन्होंने गंभीर आरोप लगाया कि जवानों को वंदे मातरम का उद्बोधन देकर उन उद्योगपतियों का साथ देने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जो जल, जंगल और जमीन को उजाड़ने का काम कर रहे हैं।

यह राष्ट्रगीत की भावना के साथ एक बड़ा विरोधाभास प्रस्तुत करता है।

राजस्थान के करौली और सवाईपुर में भी इसी तरह के हालात देखने को मिल रहे हैं। ट्राइबल प्रोजेक्ट और डूंगरी बांध जैसी परियोजनाओं के खिलाफ स्थानीय लोग अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

ये मामले दर्शाते हैं कि कैसे विकास के नाम पर पर्यावरण और स्थानीय समुदायों की अनदेखी की जा रही है।

मध्य प्रदेश के सिंगरौली से आज ही की सूचना का हवाला देते हुए रोत ने बताया कि सीआरपीएफ पुलिस बल की मदद से आठ गांवों के आदिवासियों को बंधक बनाकर पूरा का पूरा जंगल काटा जा रहा है।

यह सब बड़े उद्योगपतियों के हाथों में जमीन सौंपने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने सरकार के "एक पेड़ मां के नाम" जैसे अभियानों की प्रासंगिकता पर भी सवाल उठाया, जब एक तरफ लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं और दूसरी तरफ पर्यावरण संरक्षण की बात की जा रही है।

आजादी के संघर्ष से सीख और वर्तमान विस्थापन

रोत ने आजादी की लड़ाई के दौरान वंदे मातरम गीत द्वारा लाई गई क्रांति को याद किया। उन्होंने भील प्रदेश के मानगढ़ के इतिहास और गुरु गोविंद गुरु के अंग्रेजों को ललकारने वाले क्रांतिकारी भजन का भी जिक्र किया।

उन्होंने कहा कि यह भजन अंग्रेजों से लड़ने के लिए गोला-बारूद से भी अधिक कारगर था, क्योंकि इसने लोगों के भीतर देशभक्ति की भावना को प्रज्वलित किया था।

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आजादी के वक्त क्रांतिकारियों ने वंदे मातरम का गीत गाकर अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों से आजाद कराने का काम किया था।

लेकिन आज, सरकार के राज में, फोर्स के दम पर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और देश के अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में हमारी मातृभूमि को उद्योगपतियों के हवाले किया जा रहा है।

अरावली पर्वत श्रृंखला पर मंडराता खतरा

राजस्थान की अरावली पर्वत श्रृंखला को राज्य की जीवनरेखा और रीढ़ की हड्डी माना जाता है। यह श्रृंखला रेगिस्तान के फैलाव को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

रोत ने चिंता व्यक्त की कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद, मोदी सरकार ने 100 मीटर से नीचे वाली सभी पहाड़ियों में खनन की अनुमति दे दी है।

उन्होंने चेतावनी दी कि यदि अरावली पर्वत श्रृंखला को इसी तरह खत्म किया गया, तो राजस्थान का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

यह निर्णय न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिक संतुलन और जल सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर चुनौती है।

बिरसा मुंडा के आदर्शों का अपमान

हाल ही में बिरसा मुंडा जयंती को राष्ट्रीय गौरव दिवस के रूप में मनाया गया। रोत ने बिरसा मुंडा के उद्देश्यों को याद दिलाया, जो जल, जंगल और जमीन के लिए लड़े थे और आदिवासी अधिकारों के प्रबल समर्थक थे।

उन्होंने कहा कि बिरसा मुंडा के आदर्शों के विपरीत, आज लाखों आदिवासियों को उनके घरों से विस्थापित करके लाखों हेक्टेयर जमीन उद्योगपतियों को दी जा रही है।

यदि हमें सच्चे अर्थों में वंदे मातरम का सम्मान करना है और अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम दिखाना है, तो हमें धरती को केवल एक संसाधन मानकर उसका उत्खनन बंद करना होगा।

हमें आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के अधिकारों का सम्मान करना होगा और प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाना होगा। यह ही सच्ची राष्ट्रभक्ति है।

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