नीलू की कलम से: अवधूत कवि का आखरलोक

अवधूत कवि का आखरलोक
Dr. aaidan singh bhati
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Highlights

कोई उन्हें पानीदार व्यक्तित्व कहता है तो कोई मरुस्थल का मोती, किसी को उनमें निहंग का दरसाव होता है तो किसीको फ़कीर का। फिर 'अवधूत' तो वह हैं ही।

इन सबमें अपनी बात भी जोडूं तो वे स्नेही अभिभावक भी हैं।

सोशल मीडिया के दौर से पूर्व तक लेखक और पाठक में पर्याप्त दूरी हुआ करती थी। पाठक लेखक को विभोर होकर पढ़ा करते थे। पाठक के लिए लेखक मतलब प्राज्ञ, लेखक मतलब सर्वज्ञ, लेखक मतलब मानवीय बुद्धि की पराकाष्ठा। लेकिन सोशल मीडिया का जमाना आया तो सारे सेलिब्रिटी मसलन नेता, अभिनेता, लेखक, दार्शनिक सभी आमजन के सम्मुख आ खड़े हुए। अब वे चौबीसों घंटे उनकी नजर-निगरानी में रहते हैं।

पाठक-दर्शक उनके पेशेवर जीवन से कहीं अधिक इतर जानकारियां जुटाकर एक धारणा बनाने लगा है। अब लेखक उतना ही नहीं जितना वह कागज पर उतारता है बल्कि दूसरे लोगों या मुद्दों के प्रति उसका
व्यवहार एवं प्रतिक्रिया भी उसकी छवि निर्मित करते है। सोशल मीडिया वह प्लेटफार्म है जिसने मेरे जैसे आम पाठकों को दिग्गज लेखकों को जानने, समझने और संवाद स्थापित करने का अवसर प्रदान किया।

उनमें से ही एक कवि जिन्हें मैं गद्यकार के रूप में अधिक जानती हूं और जिनके अधिकांश लेख या कहानियों को सुरक्षित रखती हूं, वे हैं आदरणीय आईदान सिंह जी भाटी। यह वह नाम है जिसे सब कोई जानता है किंतु जितना जानता उससे अधिक जानने की इच्छा भी सतत बनी रहती है। जिज्ञासा का कारण एक ही -"शिखर पर बैठा व्यक्तित्व इतना सहज कैसे हो सकता है?"

इसी जिज्ञासा को कुछ हद तक शांत करने हेतु एक पुस्तक आई है जिसका नाम है- 'अवधूत कवि का आखर लोक' जिसमें आदरणीय दाता (आईदान सिंह जी भाटी) को समकालीन विद्वानों की दृष्टि से प्रतिबिंबित किया गया है और जिसका संपादन किया है डॉ. रेवंतदान सा ने।

मैंने इसमें दाता का साक्षात्कार पढ़ा। वे कहते हैं- "मैं लिखने से ज्यादा पढ़ता हूं।"

मुझे आश्चर्य नहीं क्योंकि वह छोटे से छोटे व्यक्ति के लेखन पर भी दृष्टि रखते हैं, इतना ही नहीं, नए लेखकों को सुझाव देकर उत्साहित भी करते हैं।
लोकवादी दृष्टि में प्रगतिशीलता खोजने वाला कवि लोक से दूर कैसे रह सकता है?

वे देशज जड़ों पर खड़ा एक ऐसा विराट वटवृक्ष हैं जिसका वितान लाघव को उदरस्थ करने के लिए नहीं, उन्हें अपनी शीतल छांव देकर पल्लवित-पुष्पित करने के लिए बना है। बकौल संपादक वह एक आकाश धर्मा व्यक्तित्व है, जहां से हर कोई उन्हें अपने करीब पाता है।

कोई उन्हें पानीदार व्यक्तित्व कहता है तो कोई मरुस्थल का मोती, किसी को उनमें निहंग का दरसाव होता है तो किसीको फ़कीर का। फिर 'अवधूत' तो वह हैं ही। इन सबमें अपनी बात भी जोडूं तो वे स्नेही अभिभावक भी हैं।

मेरे लेखन को उनका अपार स्नेह मिला जो किसी भी साधारण विद्यार्थी के लिए अनपेक्षित किंतु सुखद विस्मय से अधिक और क्या हो सकता है? जब यह पुस्तक पढ़ी तो अनुभूत किया कि यह तो मेरे ही अनुभव का साधारणीकरण है।

आदरणीय आईदान सिंह जी जैसे कवि और लेखक सबकुछ पर लिख बोलकर भी अपनी बारी पर मौन साध लेते हैं, ठीक उस यशस्वी चारण की तरह जिसने सबका गीत गाया पर अपनी बारी में निश्शब्द रह गया। ऐसे में एक कृतज्ञ पाठक, प्रशंसक या शिष्य का यह कर्त्तव्य है कि उनके महान व्यक्तिव से जनसाधारण का परिचय करवाए।

आदरणीय रेवंत सा ने इस शिष्य धर्म का अत्यंत सुंदर निर्वाह किया है। विभिन्न सहृदय जनों के संस्मरण,समीक्षा, साक्षात्कार, काव्य और पत्र व्यवहार को अलग-अलग अध्यायों में सजाकर ऐसे ग्रंथ की योजना की है कि जिससे 'आईजी' के व्यक्तिव का कोई भी कोण अनछुआ नहीं रहता।

संपादक के इस कथन- 'यह पुस्तक पहले आ जानी चाहिए थी' का समर्थन मैं भी करती हूं किंतु उसका संपादन करने के लिए भी उतने ही योग्य व्यक्ति की अपेक्षा रहती जितना गंभीर आईजी का व्यक्तित्व है। 'बंदर के हाथ में उस्तरा' देने से तो बेहतर है 'दुर्घटना से देर भली'। फिर हम तो सुनते आए हैं- सहज पके सो मीठा होई। आपके धैर्य और परिश्रम से साहित्य की थाती समृद्ध हुई है।

आशय यही कि पुस्तक का संपादन सही समय पर सही हाथों से हुआ है, यह भी साहित्य का सौभाग्य है।

वैसे भी साहित्य जगत में डॉ. रेवंतदान कोई अपरिचित नाम नहीं है। संपादित पुस्तक के रूप में आपने जिस अगाध सागर का परिचय साधारण पाठक वर्ग से करवाया है वह ऐसा सेतु है जिसके सहारे 'अवधूत कवि' के आखर लोक की यात्रा सहज सुलभ हो जाती है।

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं।।

-नीलू शेखावत

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