मिथिलेश के मन से : दो दिन राजस्थान में

दो दिन राजस्थान में
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Highlights

दो साल ऐसे थोड़े बिताये हैं हमने राजस्थान में। 2006 से 2008 तक। ढेर सारी यादें हैं। ढेर सारे बहाने हैं। 17 मार्च तक राजस्थान में ही रहना है।

इसके उलट सच यह भी है कि उलाहना देने वाले ऐसे लोग हर दौर में बहुसंख्यक रहे हैं क्योकि उलाहना के अलावा उनके पास और कुछ भी नहीं होता।

मुर्गे ने वैसी ही बांग दी। भोर वैसी ही हुई।रोहिणी के इस सरसब्ज इलाके में सड़क पार करते और पंख संभालते मोर वैसे ही दिखे। बच्चों की चिल्लपों वैसी ही रही।
धुआं वैसे ही उठा। चूल्हे वैसे ही जले। लेकिन यह सब कल की बात हुई मानिए।

आज और आज से एक हफ्ते बाद तक की हमारी दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं दिखने जा रहा।

दिखेगा तो आसानी से नहीं दिखेगा। इस दौरान हम दिल्ली में नहीं होंगे। हम राजस्थान में होंगे। जयपुर में होंगे, सिरोही में होंगे, माउंट आबू में होंगे।

अजीम प्रेमजी फाउंडेशन की एक कार्यशाला में हमें शिरकत जो करनी है।‌ यह कार्यक्रम सिरोही में होना है। फिर? फिर क्या, हम फुर्र हो जाएंगे।

एक डाल से दूसरी डाल। पुराने दोस्तों से मिलेंगे..। कुछ घाव हरे करेंगे, कुछ नये दोस्त बनायेंगे। कुछ पुराने रिश्तों को याद करेंगे, कुछेक को मिट्टी देंगे।

दो साल ऐसे थोड़े बिताये हैं हमने राजस्थान में। 2006 से 2008 तक। ढेर सारी यादें हैं। ढेर सारे बहाने हैं। 17 मार्च तक राजस्थान में ही रहना है।

सूचना देना इसलिए जरूरी लगा क्योंकि लोग शिकायत करते हैं कि बताया नहीं, आये और उड़ लिये..भला ऐसे भी करता है कोई?

इसके उलट सच यह भी है कि उलाहना देने वाले ऐसे लोग हर दौर में बहुसंख्यक रहे हैं क्योकि उलाहना के अलावा उनके पास और कुछ भी नहीं होता।

उलाहना हमेशा से उनका रक्षाकवच रहा है। तो भी, कोशिश होगी कि हम सबसे मिलें। पाली के उन दोस्तों से भी जिनके जेह्न में आज तक यह बात ताजा है कि 'दैनिक भास्कर' के पाली संस्करण ने अपना सर्वाधिक वैभवशाली दौर हमारे ही कार्यकाल में देखा था।

यह हमीं थे जिससे मुकाबले के लिए ' पत्रिका' ने अपने तीन संपादक बदल डाले और तब भी मीलों दूर का फासला रहा। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ना होता तो हमारी मेहनत मगरमच्छों के पेट में गयी होती? तो हमें पाली छोड़ना पड़ता?

पुनश्च:

बचपन के दोस्त सुभाष राय की किताब का लोकार्पण आज ही (12मार्च) होना है लखनऊ में। आज ही जयशंकर गुप्त मऊ में पत्रकारिता पर एक सेमिनार में तकरीर कर रहा होगा।

दोनों आयोजन बहुत ही ज़रूरी थे हमारे लिए। किसी न किसी में तो हम जाते ही। किसी न किसी की गाली तो खाते ही। एक दिल को हम आखिर एक ही वक्त पर कितने कितने काम सौंपते? लेकिन सब पर विराम लग गया है।

हमें फुर्र हो जाना पड़ रहा है। माफ करना यारो! तुम्हारा यह दोस्त साला ऐसा हई है। बेहद आवारा, बेहद गैरज़िम्मेदार। ज़िंदगी तक ठीक से नहीं जी पाया। मरेगा भी बेनाम ही...

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