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यह मिथिलेश कुमार सिंह है। कहते हैं स्याही शब्दों को जिंदा नहीं करती, लेकिन मिथिलेशजी के जज्बात कागजों के कलेजे कंपा देते हैं। दैनिक भास्कर, सहारा समय, आईनेक्स्ट जागरण और इंडीपेंडेंट मेल जैसे कई न्यूज प्रकाशनों में सैकड़ों पत्रकारों को उंगली पकड़कर आगे लाने वाले मिथिलेश वाकई शब्दों केमिथिलेश हैं। इनके शब्द विदेह होने के बावजूद अपनी देह का अहसास कराते हैं और बाहों में भर लेते हैं। हमें सहलाते हैं, पुचकारते, बहलाते और कभी—कभी डांट भी देते हैं। इनके शब्द कभी पैरों से लिपट जाते हैं। आंखों को बहने पर मजबूर करते हैं, खिलखिलाने को भी। पलकों के झुक जाने को, होठों के मुस्कुराने को और कुछ भी न बोल पाने को भी ये शब्द हमें मजबूर कर देते हैं.