पाठ्यक्रम-2 समाज सुधार या समाज संघर्ष: पाठ्यक्रम में सती प्रथा का गलत चित्रण, समाज में विद्वेष बीज

पाठ्यक्रम में सती प्रथा का गलत चित्रण, समाज में विद्वेष बीज
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Highlights

पाठ्यक्रम में सती प्रथा का चित्रण गलत और भ्रामक है.

यह समाज में जातिगत विद्वेष और नफरत पैदा कर रहा है.

राजस्थान में सती होना व्यक्तिगत निर्णय था, प्रथा नहीं.

राजा राममोहन राय के लेखों पर आधारित जानकारी अधूरी है.

सामाजिक कुरीतियों पर पाठ है कोई। सती प्रथा टॉपिक चल रहा। मास्टर जी किताब की लाइनें पढ़ते हैं- "देश के कई भागों में विधवाओं से यह उम्मीद की जाती थी कि वे अपने पति के साथ ही जिन्दा जल जाये। इन्हें सती कहकर महिमा मंडित किया जाता था।"

सामने बैठे विद्यार्थी वर्ग में एक दो उसी जाति के हैं जिस जाति में मास्टर जी के अनुसार सती प्रथा रूपी कुरीति पाई जाती है। इसलिए वे उनसे मुख़ातिब होकर व्याख्या करते हैं- तुम लोग सती माता के मंदिर जाते हो न? बच्चे नीची गर्दन करके सहमति में सिर हिलाते हैं। 

देख लो वह सती कैसे बनी। आज तुमको कोई जबरदस्ती जिन्दा जलाकर बाद में तुम्हारी मूर्ती बनाकर तुम्हें पूजने लगे तो? सहमे हुए बच्चे कोई जवाब नहीं देते। 

मास्टर जी फिर कहते हैं- उसके रोने और तड़पने को दबाने के लिए परिवार के लोग जोर जोर से ढ़ोल बजाते थे, जोर जोर से शोर मचाते थे।

यह तब तक चलता था जब तक वह पूरी तरह से जल कर राख न हो जाए। और तो और उन्हें पति की चिता के साथ जबरदस्ती बाँध भी देते थे ताकि वह भाग न सके। बाद में उसके परिवार वाले उसके पति की सारी संपत्ति को हड़प लेते थे। 

कभी कभी वे जिद करके जीवित रह भी जाती तो उनका विधवा जीवन इतना भयावह होता कि बाकी स्त्रियां जल जाने में ही अपनी भलाई समझती।

उन्हें कई वर्षों तक अँधेरी कोठरी में बिना नहाये धोये रखा जाता। खाने के लिए पानी और आटे का घोल दिया जाता और पशुओं से भी बुरा बर्ताव किया जाता था।

यह अतिरिक्त ज्ञान मास्टर ने नौकरी पाने के लिए पढ़े गए सिलेबस से लिया होगा।

क्रूरता का ज्वलंत दृश्य दिमागी रूप से देख लेने के बाद बच्चे उस साथी को घूरते हैं जो कथित रूप से उस परम्परा के लिए जिम्मेदार(?) है। कक्षा से बाहर निकलने के बाद वह दूसरी जातियों के साथियों से ऐसे ऐसे प्रश्नों का सामना करता है जिसके जवाब उसके पास हैँ ही नहीं।

इसका जवाब उसके घरवालों के पास भी नहीं क्योंकि उन्होंने भी यह सब कभी  नहीं देखा पर जब किताब में पढ़ा रहे हैं तो सच ही पढ़ा रहे होंगे। अब वह बच्चा सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति से नफरत कर सकता है। 

मास्टर आगे पढता है- राजा राममोहनराय ने अपनी भाभी को ऐसे ही जलाते हुए देखा तो अंग्रेजों से कहकर इस अमानवीय प्रथा को बंद करवाया।

पाठ में एक नोट में सती प्रथा के समर्थक का नोट लिखा है- "औरतें कुदरती तौर पर कम समझदार, बिना दृढ संकल्प वाली और भरोसे योग्य नहीं होती थी…उनमे से बहुत सारी खुद ही अपने पति की मृत्यु के बाद उसके साथ जाने की कामना करने लगती है, परन्तु कहीं वे धधकती आग से भाग न निकले, इसलिए पहले हम उन्हें चिता की लकड़ियों से कसकर बाँध देते हैं।" यह एक बंगाली संदर्भ है। इसमें दिए संदर्भ को पढ़कर किसीको भी इस प्रथा और उसे फॉलो करने वाले के प्रति घृणा और नफरत होगी ही। 

अब चूंकि मास्टर जी राजस्थान के हैं, जहां गांव गांव में सतियों के थान हैं, सतियों की कहानियाँ हैं और सतियों को पूजने वाले लोग भी मौजूद हैँ तो वे बंगाल क्यूं जायेंगे।

बेचारे मास्टर ने बंगाल का नाम ही किताब में पढ़ा। तो वह अपने संदर्भ से ही पढ़ायेगा। उसके अनुसार तो राजा राममोहनराय भी राजपूत ही था, तभी तो उसकी अपनी भाभी सती हुई।

हमारे यहाँ चालाक पाठ्यक्रम लेखक और मूर्ख मास्टरों के बीच कैसे विद्यार्थियों का अपने इतिहास और परम्परा के प्रति दृष्टिकोण विकसित किया जा रहा है, यह इसकी एक बेहद मामूली सी किन्तु दुर्भाग्यजनक बानगी है।

अब हम बंगाल और राजपुताना की परिस्थिति को अलग अलग करके समझते हैं। किताबों में पढ़ाई जाने वाली सती प्रथा नामक कुरीति का मुख्य स्रोत राजा राम मोहन राय के सती प्रथा पर लिखे गए लेख के साथ कुछ समाचार रिपोर्टर्स की रेपोर्ट्स है जिसका पुस्तकाकार सम्पादन भारत में प्रगतिशीलता के पुरोधा लेखक मुल्कराज आनंद ने किया।

ये वही आनंद जी हैं जिन्होंने 1992 के राम जन्म भूमि मंदिर आंदोलन में हिंदुओं का घनघोर पतित रूप देखा। इतना ही नहीं, उन्होंने इसके खिलाफ एक जबरदस्त संघर्ष छेड़ने की बात भी कही। धर्म, कला, इतिहास, संस्कृति कहाँ कहाँ आपने मोर्चे नहीं खोले? खैर …

बंगाल और राजस्थान की खिचड़ी इसी पुस्तक में तैयार होती है। वहां के दायभाग सिस्टम को बड़ी करामात के साथ राजस्थान से जोड़ा जाता है। पुस्तक में माना गया कि बंगाली ब्राह्मण समाज में यह कुप्रथा प्रमुखता से थी क्योंकि बड़े बड़े जमींदार इसी समाज से थे।

मृतक की पत्नी जीवित रहने की स्थिति में पति की सम्पत्ति में हक़ न मांग सके इसलिए उन्हें जबरन पति की चिता पर बांधकर जिन्दा जलाया जाता था। इस तथ्य (?) पर तो वहां के जानकार ही कुछ बोल सकते हैं किन्तु मैं राजस्थान के बारे में बात कर सकती हूँ।
प्रथम तो यहां सती होना कोई प्रथा नहीं थी। प्रथा उसे कहेंगे जिसे कोई समाज या परिवार बिना सोचे समझे निरंतर और अनिवार्य रूप से पालता है। जबकि यह पूर्णतया स्त्री (पत्नी) का व्यक्तिगत निर्णय था। हर स्त्री सती नहीं होती थी।

सती अकेले राजपूत समाज में ही नहीं होती थी, अन्य समाजों में भी सती होने के अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं।

न तो कोई स्त्री विधवा जीवन की भयावहता से डरकर सती होती थी और न ही परिवार संपत्ति पाने के लिए उसके साथ जबरदस्ती करते थे।
विधवा को पति की सम्पत्ति पर तो अधिकार मिलता ही था, पति पक्ष और पितृ पक्ष के दोनों दरवाजे खोल दिए जाते थे, वह जहाँ चाहे रहे।

उसे सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त कर दिया जाता था। ध्यान, भजन, दान, पुण्य और तीर्थाटन की इतनी आजादी सधवा स्त्रियों को नहीं थी।
बेटी विधवा होती तो माँ, और बहू विधवा होती तो सास अपने श्रृंगार स्वेच्छा से त्याग देती थी। माँ और सास नहीं होती तो बड़ी जेठानी और बड़ी भाभी यह त्याग करती।

यह सच हो सकता है कि मृत्यु शोक के बारह दिनों में बदहवास और शोक संतप्त विधवा के भोजन ग्रहण न करने की स्थिति में उसके स्वास्थ्य को देखते हुए परिजनों द्वारा छाछ और आटे की राबड़ी जबरन उसके पेट तक पहुंचाई जाये क्योंकि उस समय एकमात्र यही लिक्विड न्यूट्रीशन अवेलेबल था।

मगर बाकी लोग खीर बनाकर नहीं खा रहे होते थे। वे भी रुखा सूखा ही खाते थे।

यहाँ समाज सुधार के नाम पर समाज के एक वर्ग को लम्बे समय से कोंचने-नोचने की कहानी का संकेत भर है जिसे सुनियोजित तरीके से प्रसारित, प्रचारित किया गया। प्रारम्भ में इसे पूरे हिन्दू समाज की बुराई कहकर हिन्दुओं को भर भर के कोसा गया। फिर आया जनवाद।

तब यह हिन्दुओं की बुराई न रहकर मात्र सवर्णों की बुराई रह गई जिसे जोर शोर से प्रचारित किया इन्हीं महामनाओं ने। इनकी खुन्नस तो सारे हिन्दुओं से थी पर चूंकि यह युग दलितों को सभी अपराधों और आरोपों से मुक्त रखने का युग था और इसी के आधार पर दलित बनाम सवर्ण का नेरेटिव भी खड़ा करना था.

इसलिए एक ही वर्ग को एकतरफ़ा ग्राउंड रिपोर्ट के नाम पर टारगेट किया गया। प्रसार के लिए पाठ्यक्रम सबसे सरल और कारगर माध्यम था। एक ही बात को दो तीन पीढ़ियां आजीवन पढ़ेंगी, सुनेगी तो धारणा दृढमूल हो ही जाएगी। कलम और स्याही के आगे तलवार और खून कितने निर्बल और विवश हो सकते हैं, इन अभियानों से समझा जा सकता है। 

- नीलू शेखावत

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