Highlights
- अरावली के संरक्षण के मानदंड कांग्रेस शासनकाल में ही लागू हुए थे, 2003 में अशोक गहलोत ने जिलेवार नक्शे जारी किए थे।
- पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का "90 प्रतिशत अरावली समाप्त हो जाएगी" का दावा पूरी तरह असत्य और भ्रामक है।
- माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई अरावली की परिभाषा कानूनी तथ्यों पर आधारित है, राजनीतिक नहीं।
- अरावली क्षेत्र का लगभग 25% हिस्सा अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और आरक्षित वनों में आता है, जहाँ खनन पूरी तरह प्रतिबंधित है।
- केवल लगभग 2.56% अरावली क्षेत्र ही सीमित, नियंत्रित और कड़े नियमों के तहत खनन के दायरे में आता है।
- नए खनन पट्टे तब तक जारी नहीं होंगे जब तक विस्तृत वैज्ञानिक मानचित्रण और स्थायी खनन प्रबंधन योजना तैयार नहीं हो जाती।
- अशोक गहलोत का "अरावली बचाओ" अभियान राजनीतिक दिखावा है, जिसे उनकी पार्टी के शीर्ष नेताओं का भी समर्थन नहीं मिला।
- केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने अरावली की सुरक्षा सुनिश्चित की है; सरकार का रुख स्पष्ट है।
जयपुर, 21 दिसम्बर 2025। भारतीय जनता पार्टी प्रदेश कार्यालय में आयोजित एक महत्वपूर्ण प्रेसवार्ता में पूर्व नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर अरावली पर्वतमाला जैसे गंभीर पर्यावरणीय विषय पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार के विरुद्ध भ्रम फैलाने का आरोप लगाया। राठौड़ ने गहलोत के दावों को दुर्भाग्यपूर्ण और तथ्यात्मक रूप से गलत बताते हुए कहा कि अरावली के संरक्षण और खनन नियमन से जुड़े सभी निर्णय राजनीतिक नहीं, बल्कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट और लिखित आदेशों के तहत लिए गए हैं।
राठौड़ ने विस्तार से बताया कि करीब ढाई अरब साल पुरानी, विश्व की सबसे प्राचीन 700 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वत श्रृंखला की कम से कम 100 मीटर ऊंचाई को ही 'अरावली हिल्स' मानने को लेकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई परिभाषा के संबंध में अशोक गहलोत द्वारा लगाए जा रहे आरोप न तो कानूनी तथ्यों पर आधारित हैं और न ही न्यायिक प्रक्रिया की समझ को दर्शाते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह मानदंड, जिसके तहत स्थानीय भू-भाग से 100 मीटर या उससे अधिक ऊँची भू-आकृतियों को अरावली का हिस्सा माना जाता है, वास्तव में कांग्रेस शासनकाल में ही तय और लागू हुआ था। इतना ही नहीं, 19 अगस्त 2003 को जिलेवार नक्शे तैयार करने के निर्देश भी तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कार्यकाल में ही जारी किए गए थे। वर्षों तक इस परिभाषा को लागू रखने के बाद आज इसे गलत बताना न्यायिक फैसले को राजनीतिक रंग देने का एक स्पष्ट प्रयास है।
राठौड़ ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णयों का हवाला देते हुए बताया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने दिनांक 20 नवंबर 2025 को अरावली के संरक्षण और खनन नियमन की रूपरेखा तैयार करते हुए अपने आदेश में केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के नेतृत्व में गठित समिति की सिफारिशों को स्वीकार किया। इस आदेश में यह स्पष्ट किया गया कि अरावली से जुड़े जिलों में स्थित कोई भी ऐसी भू-आकृति जो आसपास के भू-भाग से कम से कम 100 मीटर ऊंची हो, उसे 'अरावली हिल्स' माना जाएगा। इससे पूर्व भी, 8 अप्रैल 2005 को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुपालन में 100 मीटर से अधिक ऊँचाई को 'हिल' मानने का मानदंड तय किया गया था, जिसे कांग्रेस सरकारों ने भी वर्षों तक लागू रखा था।
उन्होंने आगे बताया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय में अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं में अवैध खनन का मुद्दा लंबे समय से चल रहा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने W.P. (सिविल) संख्या 4677/1985 (एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ और अन्य) और W.P. (C) 202/1995 (टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ) में अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं में अवैध खनन से संबंधित मामलों की सुनवाई करते हुए, 09.05.2024 को अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की एक समान परिभाषा प्रस्तावित करने के लिए दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के सचिवों एवं विशेषज्ञों की एक समिति गठित की थी। इस समिति की रिपोर्ट पर गहन विचार-विमर्श के बाद ही दिनांक 20 नवंबर 2025 को अंतिम निर्णय आया है। इसलिए इसमें किसी भी प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है।
राठौड़ ने समिति की बातचीत से सामने आए तथ्यों को उजागर करते हुए कहा कि अरावली क्षेत्र में खनन को नियंत्रित करने की औपचारिक परिभाषा केवल राजस्थान के पास थी, जो 2002 की कमेटी रिपोर्ट और रिचर्ड मर्फी (1968) के लैंडफॉर्म क्लासिफिकेशन पर आधारित थी। इस परिभाषा के अनुसार, स्थानीय ऊँचाई से 100 मीटर या उससे अधिक उठने वाली पहाड़ियों और उनकी ढलानों पर खनन प्रतिबंधित है, और राजस्थान 9 जनवरी 2006 से इसका कड़ाई से पालन कर रहा है। यानी तब से ऐसी पहाड़ियों में कोई नया खनन पट्टा नहीं दिया गया। इसके बावजूद, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा यह कहना कि केंद्र सरकार ने अरावली को 100 मीटर में सीमित कर दिया है, यह तथ्यात्मक रूप से गलत है, क्योंकि यही मानदंड कांग्रेस शासनकाल में तय और लागू हुआ था।
पूर्व नेता प्रतिपक्ष ने अशोक गहलोत द्वारा फैलाए जा रहे इस दावे को भी सिरे से खारिज कर दिया कि “90 प्रतिशत अरावली समाप्त हो जाएगी”। उन्होंने इसे पूरी तरह असत्य और भ्रामक बताया। राठौड़ ने वास्तविक स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि अरावली क्षेत्र का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा हिरसा अभ्यारण्य, राष्ट्रीय उद्यान और आरक्षित वनों में आता है, जहाँ खनन पूरी तरह प्रतिबंधित है। इसके अलावा, पूरे अरावली क्षेत्र में से केवल लगभग 2.56 प्रतिशत क्षेत्र ही सीमित, नियंत्रित और कड़े नियमों के तहत खनन के दायरे में आता है। यह आंकड़ा स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि अरावली के बड़े हिस्से को खनन से कोई खतरा नहीं है।
राठौड़ ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट निर्देशों पर भी प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया है कि जब तक इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्टरी रिसर्च एंड एजुकेशन (ICFRE) द्वारा अरावली क्षेत्र का विस्तृत वैज्ञानिक मानचित्रण (Detailed Scientific Mapping) और स्थायी खनन प्रबंधन योजना (Sustainable Mining Management Plan) तैयार नहीं हो जाता, तब तक कोई नया खनन पट्टा जारी नहीं किया जा सकता। ऐसे में अरावली के नष्ट होने की बात करना गहलोत जी का सिर्फ भ्रम फैलाने का प्रयास है।
उन्होंने अरावली की नई परिभाषा की सख्ती पर जोर देते हुए बताया कि 100 मीटर का मानदंड केवल ऊंचाई तक सीमित नहीं है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकृत परिभाषा के अनुसार, 100 मीटर या उससे ऊँची पहाड़ियों, उनकी ढलानों और दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर के क्षेत्र में आने वाली सभी भू-आकृतियाँ खनन पट्टे से पूरी तरह बाहर रखी गई हैं, चाहे उनकी ऊंचाई कुछ भी हो। यह व्यवस्था पहले से अधिक सख्त और वैज्ञानिक है, जो अरावली के पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखने के लिए डिज़ाइन की गई है।
राठौड़ ने अशोक गहलोत के हालिया "अरावली बचाओ" अभियान को भी राजनीतिक दिखावा करार दिया। उन्होंने बताया कि 18 दिसंबर 2025 को पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सोशल मीडिया पर इस नाम से एक अभियान शुरू किया और अपनी प्रोफाइल पिक्चर बदली, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा जी, न राहुल गांधी जी, न मल्लिकार्जुन खड़गे जी और न ही सचिन पायलट जी ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर बदली। यह साफ दर्शाता है कि जिस अभियान का दावा किया जा रहा है, उसमें स्वयं उनकी पार्टी का समर्थन भी उनके साथ नहीं है। जब किसी मुद्दे पर पार्टी के शीर्ष नेता भी साथ खड़े न हों, तो स्पष्ट हो जाता है कि यह अभियान पर्यावरण संरक्षण नहीं, बल्कि विशुद्ध रूप से राजनीतिक दिखावा है। अरावली जैसे संवेदनशील विषय पर प्रतीकात्मक राजनीति नहीं, बल्कि न्यायालय के आदेशों और वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार ठोस कार्रवाई की आवश्यकता होती है।
सर्वे ऑफ इंडिया के विश्लेषण से स्पष्ट है कि कमेटी की परिभाषा लागू होने पर अरावली क्षेत्र में खनन नहीं बढ़ेगा, बल्कि और अधिक सख्ती आएगी। उन्होंने आंकड़ों के साथ बताया कि राजस्थान के राजसमंद में 98.9%, उदयपुर में 99.89%, गुजरात के साबरकांठा में 89.4% और हरियाणा के महेंद्रगढ़ में 75.07% पहाड़ी क्षेत्र खनन से प्रतिबंधित रहेगा। इसके अलावा, राष्ट्रीय उद्यान, इको-सेंसिटिव ज़ोन, रिज़र्व व प्रोटेक्टेड फ़ॉरेस्ट और वेटलैंड्स में खनन पूरी तरह बंद है।
वर्तमान में अरावली क्षेत्र के 37 ज़िलों में कुल भौगोलिक क्षेत्र का केवल 0.19% (277.89 वर्ग किमी) हिस्सा ही कानूनी खनन पट्टों के अंतर्गत है, जिसमें भी लगभग 90% खनन राजस्थान, 9% गुजरात और 1% हरियाणा तक सीमित है। इसलिए 90% अरावली हिल्स के खत्म होने की बात कानूनी और भौगोलिक रूप से पूरी तरीके से असत्य है।
केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव जी ने भी सार्वजनिक मंच पर स्पष्ट कर दिया है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से अरावली पर्वतमाला पर कोई आंच नहीं आएगी। केंद्र सरकार पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध है कि अरावली को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा, अरावली पूर्णतः सुरक्षित और संरक्षित रहेगी। राठौड़ ने अंत में कहा कि अरावली सुरक्षित है और रहेगी। सरकार का रुख स्पष्ट है — अरावली पर्वतमाला की सुरक्षा, पर्यावरण संतुलन और कानून का पालन सर्वोपरि है। भ्रम फैलाने से सच्चाई नहीं बदलती। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश, सरकारी रिकॉर्ड और वैज्ञानिक तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि अरावली न पहले खतरे में थी, न आज है और न आगे होगी।
प्रेसवार्ता में विधायक कुलदीप धनकड़, महेन्द्र पाल मीणा, प्रदेश मीडिया प्रभारी प्रमोद वशिष्ठ सहित अन्य भाजपा नेता उपस्थित रहे।
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